यदि जिंदा रहना है तो स्वस्थ जीवन ही रहना उचित है बजाय कि किसी बीमारी को झेलते हुए जीना। हमारे स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए विश्व स्वास्थ्य दिवस की शुरूआत 7 अप्रैल 1948 से विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा पूरी दुनिया में एक साथ वैश्विक स्वास्थ्य जागरूकता दिवस के रूप में मनाने के लिए संकल्पित हुआ। इस दिन स्वास्थ्य संबंधित विभिन्न कार्यक्रमों के द्वारा लोंगों के बीच जागरूकता फैलाई जाती है।
हर साल अलग -अलग विषयों को विषय वस्तु बनाकर यह दिवस मनाया जाता है। इस वर्ष 7 अप्रैल 2020 नर्सों और दाइयों के नेक कार्यों के लिए जश्न के रूप में मनाया जाएगा क्योंकि ये लोग अन्य स्वास्थ्य सेवाएं व कोविड-19 से बचाव के लिए अपने जान को जोखिम में डालकर बहुत ही उच्च गुणवत्ता, सम्मानजनक उपचार और देखभाल प्रदान किया है।
इन्हीं नर्सों और दाइयों के द्वारा विविध तरह की सेवाएं और जानकारियाँ महिलाओं के लिए विशेष रूप से प्रदान करती रहती हैं परंतु आज भी उन ग्रामीण महिलाओं को अपने स्त्रीजनित स्वास्थ्य के प्रति अभी कोई खास जागरूकता नहीं हो पाई है।
ऐसा ठीक ही कहा जाता है कि, "भारत की आत्मा अपने गांवों में रहती है"। जैसा कि भारतीय जनगणना, 2011 के अनुसार कुल भारतीय आबादी की लगभग 833 मिलियन (68.84%) आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। उसमें से 48.63% महिलाएं हैं और बाकी पुरुष हैं। क्या वे ग्रामीण महिलाएँ अपने स्वास्थ्य और अपनी स्वच्छता के प्रति उनके पास जागरूकता हैं? इस सवाल के जवाब के दौरान विशेष रूप से मैं बहुत चुप हो जाता हूँ। ये भाग्यहीन महिलाएं अपने मासिक धर्म के समय अपने स्वास्थ्य के साथ-साथ स्वच्छता के बारे में बहुत अधिक समस्याओं का सामना कर रही हैं। उनके इस मासिक अवधि के दरमायन स्वच्छता का सही ज्ञान न होना एक विकट चिंता का विषय है जो उनके जीवन को तबाह कर देता है जिसकी जानकारी उन्हें बेहद कम होती है। यदि उन्हें इस बात की बखूबी जानकारी होती तो वे केवल 2-3 दिनों की सावधानियों के द्वारा अपने समूचे मूत्रपथ और प्रजनन प्रणाली में होने वाले कई मुश्किल स्त्री रोग संबंधी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता।
ऐसा अक्सर देखा गया है कि संसाधनों की कमी, शिक्षा और व्यक्तिगत स्वच्छता के बारे में जागरूकता की कमी, स्वच्छता उत्पादों के बारे में जानकारी न होने के कारण इन ग्रामीण महिलाओं के साथ ऐसी स्त्रीरोग की समस्याएं बहुत ज्यादा हो रही हैं। यहां तक कि वे अपने मासिक धर्म के बारे में भी किसी से कोई बातचीत नहीं करती हैं। ये सब कमियां उन्हें लगातार श्वेत प्रदर, गर्भाशय के मुख का कैंसर, बांझपन जैसी कठिन बीमारियों को अपने गले लगाना पड़ता है। जैसा कि भारत में स्वच्छ भारत मिशन (एस.बी.एम.) 2014 से 2020 की अवधि के लिए एक राष्ट्रव्यापी अभियान है, जिसका उद्देश्य भारत के शहरों, कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों की सड़कों, सड़कों और बुनियादी ढांचे को स्वच्छ करना है।
स्वच्छ भारत मिशन में महिलाओं के लिए स्वच्छता को प्रमुख महत्व दिया गया है। जैसा कि स्वच्छ भारत मिशन 2 अक्टूबर 2014 को लॉन्च किया गया और मिशन के तहत 1.96 लाख करोड़ की अनुमानित लागत पर ग्रामीण भारत में 90 मिलियन शौचालयों का निर्माण करके 2 अक्टूबर 2019 तक "खुले में शौच मुक्त" (ओडीएफ) भारत को प्राप्त करना था। उसी के तत्वावधान में 'पिंक टॉयलेट स्कीम', एक स्मार्ट टॉयलेट कंपाउंड जो महिलाओं और शिशुओं के लिए विशेष पहल हुई जिसमें बुनियादी चेकअप की सुविधा, सेनेटरी नैपकिन वेंडिंग मशीन, भोजनालय, स्तनपान क्षेत्र और साथ ही साथ महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराया जाना शामिल था और बहुत सी जगहों पर यह खूब काम कर रहा है जो एक असाधारण पहल प्रारम्भ हुई है।
शहरी और अर्ध शहरी क्षेत्रों या रेलवे और बस स्टेशनों में यह एक मॉडल है। एक शोध की रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि सार्वजनिक शौचालयों में सैनिटरी नैपकिन को बदलने के लिए लगभग 72% शहरी महिलाएं असहज महसूस कर रही हैं तो ग्रामीण महिलाओं को इसको करने के लिए यह बहुत दूर की बात है। चल रहे स्वच्छ भारत अभियान के तहत इसमें मासिक धर्म स्वच्छता को उच्च महत्व दिया गया है।
संयुक्त राष्ट्र ने मासिक धर्म की स्वच्छता को वैश्विक मुद्दा माना है और यह इस बात की मान्यता दी है कि विश्व स्तर पर 1.2 अरब महिलाओं को बुनियादी स्वच्छता नहीं मिलती है जबकि इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण) की रिपोर्ट 2015-2016 के अनुसार 15 से 24 वर्ष की आयु में देश में 62 प्रतिशत युवा महिलाएं अभी भी मासिक धर्म के दौरान कपड़े का उपयोग करती हैं।
एक अन्य रिपोर्ट में, भारत की झुग्गियों में लगभग 90% महिलाएं पारंपरिक रूप से मासिक धर्म के समय सेनेटरी पैड के बजाय कपड़े का उपयोग करती हैं जो अपने संकट को खुद आमंत्रण दे रही हैं।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2017 में पता चला है कि मध्य प्रदेश में मुश्किल से 37.6% महिलाएं मासिक धर्म के दौरान सुरक्षित और स्वच्छ साधनों का उपयोग करती हैं। इसका अर्थ हुआ कि 62.4% अस्वस्थ साधनों का उपयोग करती हैं। कुछ आंकड़ों से पता चलता है कि 40% से अधिक युवा भारतीय महिलाएं अस्वस्थ मासिक धर्म संरक्षण का उपयोग करती हैं और ग्रामीण भारत में केवल 48.2% महिलाएं स्वच्छता सुरक्षा का उपयोग करती हैं।
भारत में लगभग 71% लड़कियां अपने पहले मासिक धर्म चक्र के बारे में अनजान होती हैं। ऐसे में वे भी बेचारी कहीं न कहीं इन समस्याओं से घिर जाती हैं। सन 2015 के दौरान शिक्षा मंत्रालय की एक रिपोर्ट में पाया गया था कि गांवों में 63% स्कूलों में शिक्षकों ने कभी भी मासिक धर्म पर चर्चा नहीं की तो एक स्वच्छता के मकसद से इससे कैसे निपटा जाए। इन सब समस्याओं के परिणाम फलस्वरूप लगभग 2.3 करोड़ बालिकाएं हर साल ड्रॉप आउट होकर आउट ऑफ स्कूल हो जाती है और अपने आगे की शिक्षा से वंचित रह जाती हैं। ऐसा ग्रामीण परिवेश में ज्यादा देखने को मिलता है। एक अन्य रिपोर्ट में यह पाया गया कि लगभग 60% किशोर लड़कियों अपने मासिक धर्म के कारण अपना स्कूल की छोड़ देती हैं।
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि तमिलनाडु में लगभग 79% लड़कियां और महिलाएं, उत्तर प्रदेश में 66%, राजस्थान में 56% और पश्चिम बंगाल में 51% महिलाएँ को मासिक धर्म के समय की स्वच्छ्ता की जानकारी नहीं है। स्वच्छ भारत अभियान के तहत, मासिक धर्म स्वच्छता पर जोर दिया गया है। जैसे कई प्रयास, 70 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत की फ्री पैड योजना, सबला योजना, राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य और विभिन्न राज्य सरकारों के कई अन्य प्रयास किए गए हैं। फीचर फिल्म, पैडमैन शहरी क्षेत्रों में जागरूकता फैलाने में मददगार साबित हुई है।
हर साल 28 मई को मासिक धर्म स्वच्छता दिवस के रूप में मनाया जाता है लेकिन अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीणों के लिए बहुत कम जानकरी प्राप्त हो पाती है। इस तरह के एक आश्चर्यजनक सांख्यिकीय आंकड़ों के बावजूद ग्रामीण महिलाओं के लिए बहुत ही दुर्भाग्य है। माहवारी और मासिक धर्म स्वच्छता के बारे में एक सहयोगात्मक जागरूकता केंद्र और महिला विकास और अनुसंधान केंद्र (सीडब्ल्यूडीआर) इन किशोरियों के लिए बहुत तत्परता से काम कर रहे हैं लेकिन सरकारी योजनाएं भी जमीनी स्तर पर लाभार्थियों तक पूरी तरह से नहीं पहुंच पाती हैं।
वे भाग्यहीन ग्रामीण महिलाएं अब इस चिंता के बारे में इस नई सरकार से बहुत उम्मीद कर रही हैं जो 2019-2024 के लिए गांवों के लिए 25 लाख करोड़ रुपये खर्च कर रही हैं जो ग्रामीणों के लिए बहुत अधिक राशि है।
(लेखक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के कीट व कृषि जन्तु विज्ञान विभाग में सीनियर रिसर्च फेलो रह चुके हैं)