महिला दिवस विशेष: पश्मीना बनाता लूम्स ऑफ लद्दाख

स्वयं सहायता ग्रुप ने चांगपा आदिवासियोंं को उनका असली हक दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई
लद्दाख में लूम्स ऑफ लद्दाख स्वयं सहायता समूह के अंतर्गत 400 महिलाएं काम करती हैं और 52 किलो प्रति माह पश्मीना की खपत पहुंच गई है (फोटो सौजन्य: लूम्स ऑफ लद्दाख)
लद्दाख में लूम्स ऑफ लद्दाख स्वयं सहायता समूह के अंतर्गत 400 महिलाएं काम करती हैं और 52 किलो प्रति माह पश्मीना की खपत पहुंच गई है (फोटो सौजन्य: लूम्स ऑफ लद्दाख)
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ग्रामीण अंचल में स्वयं सहायता समूह की महिलाओं ने न सिर्फ घर-समाज की बांधी हुई दहलीज को लांघा है बल्कि अब वह अधिकारों की वकालत करते हुए अपने सामर्थ्य से शासन में अपना हक-हकूक मांगने लगी हैं। डाउन टू अर्थ ने ऐसे स्वयं सहायता समूहों की पड़ताल की, जो आजीविका से ऊपर उठकर सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों की वकालत कर रही हैं। इन कहानियों को सिलसिलेवार प्रकाशित किया जाएगा। आज पढ़ें, दूसरी कड़ी। पहली कड़ी पढ़ने के लिए क्लिक करें 

साल 2015 में लेह के उपायुक्त (डीसी) प्रसन्ना रामास्वामी लद्दाख के सुदूरवर्ती गांव चूमुर के दौरे पर थे। गांव की महिलाओं ने उन्हें हाथ से बुने ऊनी उत्पाद दिखाए तो वह हतप्रभ रह गए। उनके हाथों की कारीगरी के प्रेरित होकर उन्होंने महिलाओं के कौशल विकास के लिए लक्सल परियोजना शुरू की, जिसका मकसद था इन महिलाओं के हुनर को एक मंच प्रदान करना और उसे निखारना।

समुद्र तल से 4,900 मीटर की औसत ऊंचाई पर स्थित पूर्वी लद्दाख का चांगथांग क्षेत्र चांगपा आदिवासियों का घर है जो परंपरागत रूप से चरवाही का काम करते हैं। चूमुर भी इसी क्षेत्र का गांव है। घोड़े, याक, भेड़ों के अलावा चांगपा के पास पाई जाने वाली बकरियां पश्मीना का प्रमुख स्रोत हैं। यह क्षेत्र साल में 35,000 से 50,000 किलो पश्मीना का उत्पादन करता है। यह अब तक कच्चे पश्मीना का आपूर्तिकर्ता ही रहा है और चांगपा उस लाभ से वंचित रहे हैं, जिसके वे हकदार थे। प्रसन्ना ने इसी चांगथांग घाटी के आठ गांवों की महिलाओं को ट्रेनिंग के लिए राजी कर लिया। इनमें से 62 प्रतिशत महिलाएं पशुपालक थीं और शेष उनसे कच्चे माल निकालने वाली उत्पादक समूह का हिस्सा थीं। अब तक ये महिलाएं शौकिया ही बुनाई करती थीं और वे इनके व्यावसायिक महत्व से अनजान थीं। लक्सल परियोजना के तहत इन महिलाओं को तीन महीने तक पश्मीना बुनाई की ट्रेनिंग दी गई जिसके बाद वे कच्चे ऊन से बेशकीमती पश्मीना उत्पाद बुनने के हुनर में पारंगत हो गईं।

प्रसन्ना को इस काम में उनकी पत्नी अभिलाषा बहुगुणा का भरपूर साथ मिला और दोनों ने मई 2017 में लद्दाखी महिलाओं के उत्पाद को पहचान दिलाने और उन्हें आय का साधन मुहैया कराने के लिए स्वयं सहायता समूह लूम्स ऑफ लद्दाख का गठन किया। समूह में मुख्य रूप से वही महिलाएं शामिल थीं जो लक्सल परियोजना से जुड़ीं थीं। लूम्स ऑफ लद्दाख में स्वामित्व की भावना ने इन महिलाओं को समूह में जुड़ने को प्रेरित किया। अभिलाषा बहुगुणा डाउन टू अर्थ को बताती हैं, “यह एक साझा सपना है। पश्मीना लद्दाख के लिए पहचान का मुद्दा रहा है। यहां के लोगों को यह दुख सालता था कि उनका पश्मीना दुनिया में सर्वोत्तम है, फिर हम कच्चे माल की आपूर्ति तक ही क्यों सीमित हैं। वैश्विक बाजार में उसकी हिस्सेदारी महज एक प्रतिशत क्यों है?”

अभिलाषा ने 2013 में छात्र जीवन के दौरान कश्मीरी शिल्पकारों को अपने उत्पाद बेचने के लिए संघर्ष करते हुए देखा था। तब उनके अंदर यह भावना पैदा हुई थी, जब अमूल मॉडल सफल हो सकता है तो लग्जरी पश्मीना क्यों नहीं? इन्हीं प्रश्नों के उत्तर खोजने के क्रम में लूम्स ऑफ लद्दाख का विचार उनके दिमाग में आया और पति की मदद से उसे धरातल पर उतारा गया। वर्तमान में 400 महिलाएं समूह का हिस्सा हैं। 2021 में इनकी संख्या 200 थी। समूह से जुड़ी इन महिलाओं की मासिक आमदनी भी 2021 में 1,500 रुपए से बढ़कर 2022 में 2,500-15,000 रुपए तक पहुंच गई है। इसी तरह पश्मीना का मासिक उपभोग भी इस अवधि में सात गुणा बढ़ गया है। लूम्स ऑफ लद्दाख द्वारा 2021 में पश्मीना की मासिक खपत 7 किलो थी जो 2022 में 52 किलो तक पहुंच गई है। कहने का अर्थ है कि 52 किलो पश्मीना का विभिन्न उत्पादों में मूल्यवर्धन हो रहा है।

पश्मीना के अलावा अन्य स्थानीय ऊन की खपत भी तीन गुणा बढ़कर 10 किलो से 30 किलो के स्तर पर पहुंच गई है। समूह प्रबंधन से जुड़े निशांत राज डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि लूम्स ऑफ लद्दाख का मासिक टर्नओवर करीब 4 से 5 लाख रुपए है। अधिकांश आय प्रदशर्नियों और मेलों में उत्पादों को बेचने से अर्जित होती है। निशांत के अनुसार, लद्दाख के विभिन्न गांवों में समूह के केंद्र हैं, जहां महिलाएं एकत्र होकर उत्पाद तैयार करती हैं। बहुत सी महिलाएं यह काम घर से भी करती हैं। लूम्स ऑफ लद्दाख पश्मीना या अन्य ऊनी उत्पाद बेचने से प्राप्त आय तक वितरण बहुत ही पारदर्शी तरीके से करता है। उत्पादों से प्राप्त आय का करीब एक तिहाई हिस्सा समूह की महिलाओं को वितरित होता है और 40 प्रतिशत आय का उपयोग कच्चा माल खरीदने और शेष समूह के संचालन पर खर्च होता है।

अभिलाषा बताती हैं कि समूह अपने उत्पादों को घरेलू बाजार में मुख्य रूप से लेह में खुले स्टोर, देशभर में हो रही प्रदर्शनियों और ताज ग्रुफ ऑफ होटेल्स के जरिए बेचता है। इसके अलावा समूह ऑनलाइन पोर्टल के माध्यम से भी उत्पादों की बिक्री करने लगा है। हालांकि वह अभी शुरुआती चरण में है। इसके अलावा समूह विदेशों में स्थित कुछ स्टोरों में भी अपने उत्पाद बेचता है। अभिलाषा के अनुसार, लूम्स ऑफ लद्दाख फॉर्म टू फैशन पर आधारित पहल है। यह ग्रामीण महिलाओं का एक आंदोलन है जो लद्दाख की टेक्सटाइल कॉटेज इंडस्ट्री को स्थापित करने के प्रयासों में जुटा है। समूह के प्रबंधन में बुनकर महिलाओं की अहम हिस्सेदारी है। वह आगे बताती हैं कि समूह ने भारतीय सेना से हाल में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इस समझौते के तहत सेना से संबद्ध महिलाओं को ट्रेनिंग देकर उन्हें समूह में शामिल किया जाएगा।

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