महिला दिवस पर विशेष: फिर चमकने लगे लोहाघाट के लोहे के बर्तन

महिलाएं सरकारी विभाग को कृषि यंत्रों से लेकर मिड डे मील के बर्तनों तक की आपूर्ति कर रहीं
उत्तराखंड के चंपावत जिले में रायकोट कुंवर गांव में  एसएचजी की महिला लोहे के बर्तन तैयार करती हुई (फोटो: वर्षा सिंह)
उत्तराखंड के चंपावत जिले में रायकोट कुंवर गांव में एसएचजी की महिला लोहे के बर्तन तैयार करती हुई (फोटो: वर्षा सिंह)
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ग्रामीण अंचल में स्वयं सहायता समूह की महिलाओं ने न सिर्फ घर-समाज की बांधी हुई दहलीज को लांघा है बल्कि अब वह अधिकारों की वकालत करते हुए अपने सामर्थ्य से शासन में अपना हक-हकूक मांगने लगी हैं। डाउन टू अर्थ ने ऐसे स्वयं सहायता समूहों की पड़ताल की, जो आजीविका से ऊपर उठकर सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों की वकालत कर रही हैं। इन कहानियों को सिलसिलेवार प्रकाशित किया जाएगा। आज पढ़ें, तीसरी कड़ी। पहली कड़ी पढ़ने के लिए क्लिक करें, जबकि दूसरी कड़ी पढ़ें  

घिसाई और पिटाई के बाद हथौड़े की ठक-ठक से लोहे पर आकृतियां उकेर कर उसे कढ़ाई, तवे, फ्राईपैन जैसे बर्तनों का आकार देने में नारायणी देवी अब कुशल हो गई हैं। पूर्णागिरी स्वयं सहायता समूह की अध्यक्ष नारायणी लौह शिल्प के लिए मशहूर लोहाघाट के रायकोट कुंवर गांव में रहती हैं। जो उत्तराखंड में नेपाल की सीमा से लगते चंपावत जिले में आता है।

लोहे पर कारीगरी से निकलती धुन मंद पड़ने लगी थी। मुनाफा न होने पर लोहाघाट के लोहार अपने इस पुश्तैनी व्यवसाय से मुंह फेर रहे थे। नारायणी देवी कहती हैं, “गांव के पुरुष ही लोहारगिरी का काम करते थे। हम गांव-गांव जाकर सिर पर टोकरी में बर्तन रख बेचा करते थे। कभी एक कढ़ाई बिकती तो कभी दो। इससे परिवार नहीं चलता था। इसलिए ये काम छूट रहा था। लेकिन 2017 में पूर्णागिरी स्वयं सहायता समूह बनाकर हमने इसी काम को शुरू किया। क्योंकि हमें यही काम आता था। डर भी लग रहा था कि औरतें लोहे का काम कहां कर पाएंगी।”

“लोहे को गर्म करके ढलाई के काम में हम गांव के पुरुषों की मदद लेते। लेकिन धीरे-धीरे हमने अपने डर पर काबू पाया। अब हम लोहे की घिसाई-पीटकर बर्तन बनाने, डिजाइनिंग जैसे काम खुद करते हैं।” वह आगे बताती हैं।

पूर्णागिरी स्वयं सहायता समूह बर्तनों के साथ ही कुदाल, फावड़ा, खुरपी समेत कृषि यंत्र, चाकू, खुकरी और त्रिशूल जैसे लौह उत्पाद भी बनाता है।

राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में स्वयं सहायता समूहों को बढ़ावा दिया जा रहा था।

नारायणी देवी समेत रायकोट कुंवर गांव की महिलाएं भी इस कार्यक्रम का हिस्सा बनीं।

चंपावत में जिला ग्राम्य विकास अभिकरण में सहायक परियोजना निदेशक विम्मी जोशी कहती हैं “वर्ष 2020 में ग्राम्य विकास और उद्योग विभाग ने मिलकर लोहाघाट में ग्रोथ सेंटर बनाया। जहां लोहे की कटाई और मोल्डिंग के लिए मशीनें लगाई गई। जिसके बाद लोहाघाट के लोहे के बर्तनों और कृषि उपकरणों के काम में तेजी आई। कई स्वयं सहायता समूह सेंटर से जुड़ने लगे।”

रायकोट गांव में पूर्णागिरी को मिलाकर 5 स्वयं सहायता समूहों का प्रगति ग्राम संगठन तैयार किया गया।

नारायणी देवी इसकी अध्यक्ष हैं। ये संगठन ही ग्रोथ सेंटर का संचालन करता है। नारायणी कहती हैं, “2017 में हमारे समूह ने लौह उत्पादों से सालाना 60-70 हज़ार रुपए तक कमाया। 2022 तक हमारी आमदनी दो लाख रुपए पहुंच गई है। जबकि प्रगति संगठन की आमदनी 7 से 8 लाख रुपए तक हो गई।”

स्वयं सहायता समूहों के लौह उत्पादों को लेकर सबसे बड़ी समस्या मार्केटिंग की थी। समूह जो उत्पाद बना रहे थे, उसे कहां और कैसे बेचें। नारायणी देवी के बेटे अमित कुमार ने समूहों की इस मुश्किल को हल करने के लिए इस काम का ज़िम्मा लिया।

अमित कहते हैं “स्टील और एल्यूमीनियम के बर्तनों की मांग बढ़ने पर हमारा पुश्तैनी धंधा ठप पड़ रहा था। लेकिन बढ़ती बीमारियों के चलते अब एक बार फिर लोग लोहे के बर्तनों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। ऐसा मानना है कि लोहे के बर्तन में खाना पकाना स्वास्थ्यवर्धक है। हमने देशभर में लगने वाले सरस मेलों में अपने उत्पादों के स्टॉल लगाए। दिल्ली ट्रेड फेयर से लेकर गोवा और मुंबई तक अपने बर्तनों और कृषि उपकरणों को ले गए। हमें अच्छी प्रतिक्रिया मिलने लगी।”

लोहाघाट के स्वयं सहायता समूहों की मेहनत रंग ला रही थी। उत्तराखंड सरकार का ध्यान भी इन लौह उत्पादों की ओर गया। विम्मी जोशी कहती हैं, “हमने कृषि विभाग से समूहों द्वारा बनाए कृषि यंत्रों की खरीद के लिए बात की। अब कृषि विभाग एक साल में 2-3 लाख रुपए तक ऑर्डर देता है। इसके अलावा जिले के 60 सरकारी स्कूलों में मिड-डे-मील बनाने के लिए रसोई के बर्तनों का ऑर्डर भी यहीं से दिया जाता है। आंगनबाड़ी केंद्रों में भी यहां के बर्तन लिए जाते हैं।”

ग्राम्य विकास विभाग के सचिव डॉ बीवीआरसी पुरुषोत्तम कहते हैं “स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए हमने हिलांस ब्रांड बनाया है। लोहाघाट के लौह उत्पाद इस ब्रांड के नाम से बाजार तक पहुंचाये जा रहे हैं। हमने कृषि विभाग को भी पत्र लिखा है कि वे समूहों के बनाए हुए कृषि यंत्र ही खरीदें। कृषि और गैर कृषि आधारित उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए अगले 7 वर्षों में स्वयं सहायता समूहों द्वारा बनाए गए उत्पादों के 11 हजार उद्यम बनाने का लक्ष्य रखा है।”

उत्तराखंड राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन के मुताबिक अब तक करीब 3,41,862 परिवार स्वयं सहायता समूहों से जोड़े जा चुके हैं। 44,995 समूहों को राज्य सरकार प्रोत्साहित कर रही है। इन्हें करीब 36.85 करोड़ रुपए रिवॉल्विंग फंड के तौर पर दिए जा चुके हैं।

लोहाघाट के बर्तन और कृषि यंत्र भी हिलांस ब्रांड से राज्य के ग्रोथ सेंटर्स में रखे जा रहे हैं। ऑनलाइन शॉपिंग वेबसाइट पर भी ये मौजूद हैं। अमित कुमार कहते हैं कि हमारे पास चेन्नई से लेकर देश के दूसरे हिस्सों से ऑर्डर आए। लेकिन पैकेजिंग से जुड़ी मुश्किल आ रही है। लोहे के उत्पाद भारी होते हैं। हमें पैकेजिंग के लिए अभी और काम करना होगा।

महिला सामाख्या कार्यक्रम की निदेशक रह चुकी गीता गैरोला कहती हैं कि महिला स्वयं सहायता समूह तेजी से बनाए जा रहे हैं लेकिन इनकी मॉनीटरिंग नहीं की जा रही है। बहुत से ऐसे समूह हैं जिनके पास उनके उत्पादों को बेचने के लिए बाजार नहीं है।

महिलाएं शहद, मसाले, मशरूम, स्वेटर सबकुछ बना रही हैं लेकिन वे उन्हें बेचे कहां। सरकार ने महिलाओं को इतनी सिलाई मशीनें बांटीं लेकिन पहाड़ में महिला दर्जी नहीं मिलती। समूहों को लेकर सरकार दशकों से कार्य कर रही है। इस लिहाज से देश की औरतों को अपने पैरों पर खड़े हो जाना चाहिए था। लेकिन वे औरतें कहां हैं? गीता कहती हैं कि स्वयं सहायता समूहों की प्रगति से जुड़ा अध्ययन कराने की जरूरत है ताकि हमें सही स्थिति का पता लग सके।

एसएचजी मतलब वोटबैंक

उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य कर रही सामाजिक कार्यकर्ता दीपा कौशलम कहती हैं कि राज्य में बड़ी संख्या में स्वयं सहायता समूह तैयार तो किए गए लेकिन ये अब भी संगठित और मजबूत नहीं दिखाई देते। समूह से जुड़ी महिलाएं छोटे-छोटे फैसलों के लिए ग्राम प्रधान, ब्लॉक प्रमुख या अधिकारियों पर ही निर्भर करती हैं।

ज्यादातर स्वयं सहायता समूह सरकारी आयोजनों और मेलों की उम्मीद में काम करते हैं। यदि समूह स्वयं से बड़े प्लेटफॉर्म का उदाहरण दे पाएं तो स्थिति और बेहतर हो सकती है।

दीपा कहती हैं कि एनएरआलएम या एसआरएलएम सरकारी सिस्टम को सपोर्ट करते हैं तो सरकार का नियंत्रण भी समूहों पर कहीं न कहीं रहता है। ग्राम, ब्लॉक स्तर के कार्यक्रमों से लेकर मंत्रियों के दौरों और राजनीतिक कार्यक्रमों में भी समूह की महिलाओं को जाना ही पड़ता है। उनके पास विकल्प नहीं होता। इसलिए सत्ता में मौजूद पार्टी इन्हें राजनीतिक तौर पर प्रभावित करती ही है।

दीपा का आकलन है कि एसएचजी के जरिये स्थानीय समुदाय का विकास भी 15-20 प्रतिशत ही हो सका है। वही समूह आगे बढ़ने में सफल हुए हैं जिन्होंने स्वयं व्यक्तिगत तौर पर पहल की है।

उत्तराखंड के एसएचजी को लेकर इंटरनेशनल जर्नल ऑफ बेसिक एंड अप्लाइड एग्रीकल्चरल रिसर्च में वर्ष 2017 में लिखे गए एक शोधपत्र के मुताबिक राज्य में बड़ी संख्या में समूह निष्क्रिय पाए गए। अध्ययन के मुताबिक 11.70 फीसदी समूहों ने 1-3 वर्ष तक काम किया, 33.75 फीसदी समूहों ने 3-5 वर्ष तक काम किया जबकि सिर्फ 16.50 फीसदी समूहों ने 5 से अधिक वर्ष तक काम किया। 37.75 फीसदी समूह काम करते रहे। अध्ययन के मुताबिक गठन के बाद समूहों को प्रोत्साहित नहीं किया गया न ही इनके कार्यों की मॉनीटरिंग की गई और ज्यादातर समूह निष्क्रिय होते चले गए।

देहरादून के विकासनगर का रौनक स्वंय सहायता समूह खजूर के पत्तों से ज्वैलरी बनाने का काम करता रहा है। इस समूह की अध्यक्ष नज़मा इकबाल कहती हैं ये एसएचजी सिर्फ वोटबैंक के लिए ही बनाए गए हैं।

सरकारों को लगता है कि गरीब महिलाओं को थोड़ा बहुत पैसा दे दो ये चुप बैठ जाएंगी। वे अपने कार्यक्रमों में समूहों को 20-25 हजार या एक-दो लाख रुपए के चेक दे दिए जाते हैं। ऐसा करके सरकार अपना बचत ही तो करती है और हमें वो रकम ब्याज के साथ लौटानी होती है।

राजनीतिक विश्लेषक दिनेश जुयाल कहते हैं कि स्कूल-कॉलेज के संगठनों से लेकर महिला स्वयं सहायता समूह या महिला मंगल दल, युवक मंगल दल राजनीतिक लोगों की नर्सरी बन गए हैं। कई बार एसएचजी की अगुवाई कर रहे लोग भी सीधे तौर पर राजनीतिक दलों से जुड़े हुए हैं। जिनके पास सत्ता होती है उनकी पकड़ इन पर बन जाती है।

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