महिला दिवस पर विशेष: और जब मैं पंच बन गई!

भेदभाव को भोगने वाली महिलाओं ने शराबबंदी से लेकर राजनीति तक का सफर किया तय
छत्तीसगढ़ के जांजगीर चाम्पा जिले में स्थित आमोदा  गांव में एसएचजी द्वारा कुष्ठरोग के उन्मूलन के लिए जागरुकता रैली िनकाली गई ( फोटो: मनोज नाग)
छत्तीसगढ़ के जांजगीर चाम्पा जिले में स्थित आमोदा गांव में एसएचजी द्वारा कुष्ठरोग के उन्मूलन के लिए जागरुकता रैली िनकाली गई ( फोटो: मनोज नाग)
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“मैं कुष्ठ पीड़ित थी। घर से बाहर नहीं निकलती थी। गांव में ज्यादातर लोग भेदभाव करते थे। कुष्ठ रोग के कारण लोग इसे छुआछूत की बीमारी मानते थे और दूर रहकर बात करने के लिए कहते थे। बहुत छुआछूत था लेकिन अब गांव बदल चुका है। गांव में अब मेरे जैसी और कुष्ठ रोगियों के लिए कोई भेदभाव और दुर्व्यवहार नहीं रहा। द लैप्रोसी मिशन ट्रस्ट इंडिया के सहयोग से बने स्वयं सहायता समूह ने लोगों को जागरुक और हमें जिम्मेदार बना दिया है। हम लगातार लैप्रोसी के मुफ्त सरकारी इलाज और सामाजिक भेदभाव को खत्म करने की जागरुकता फैला रहे हैं।” यह बात पूरे आत्मविश्वास के साथ छत्तीसगढ़ के जाजंगीर चांपा जिले में आमोदा गांव की छाया नामदेव डाउन टू अर्थ से कहती हैं। वह गांव में सबसे पुराने और पहले स्वयं सहायता समूह “सहारा” की वर्ष 2012 से सदस्य हैं।

आमोदा गांव में छाया नामदेव अकेली नहीं हैं जिनके जीवन में बदलाव आया है। लगभग 5,000 की आबादी वाले इस गांव में अब 20 ऐसे स्वयं सहायता समूह बन चुके हैं जो आजीविका के लिए स्कूलों में सिर्फ मध्यान्ह भोजन बनाने तक सीमित नहीं हैं बल्कि अपने सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों के लिए सजग और सतर्क हैं। सहारा समूह से जुड़ी महिलाएं खेती-किसानी, उत्पाद तैयार करना और व्यक्तिगत स्तर पर व्यवसाय करके विविध तरीकों से आजीविका चला रही हैं।

सहारा एसएचजी की ही सदस्य सरस्वती श्रीवास कभी घर की दहलीज पार करने में संकोच करती थीं। लेकिन 2012 में उन्होंने समूह की महिलाओं के साथ शराबबंदी को लेकर आंदोलन किया। वह डाउन टू अर्थ से बताती हैं, “हमारे गांव में शराब की भट्ठी थी, जिसके चलते ज्यादातर पुरुष गांव में ही शराब पीकर लड़ाई-झगड़े में लिप्त रहते थे। मैने और गांव के सभी स्वयं सहायता समूह ने इस भट्ठी को बंद करने के लिए गांव के मुखिया से लेकर राज्य के मंत्री तक फरियाद की और आखिरकार हमारी जीत हुई। गांव के पांच किलोमीटर दायरे में शराब भट्ठी न होने की अपील मान ली गई। इसने हमारे महिला स्वयं सहायता समूहों के भीतर आत्मविश्वास भरा। फिर मैंने 2015 में वार्ड में पंच का चुनाव लड़ा और जीत भी गई।”

सरस्वती श्रीवास पंच का अपना कार्यकाल पूरा कर चुकी हैं और इस वक्त उनके वार्ड में पुरुष पंच है। वह कहती हैं कि आगे जब महिला सीट रिजर्व होगी तो फिर से पंच का चुनाव लड़ेंगी। गांव में एक सरपंच के साथ 20 पंच होते हैं। सरस्वती व्यक्तिगत तौर पर सिलाई का काम करती हैं। वहीं, समूह के साथ मशरूम उत्पादन का काम भी कर रही हैं। उन्हें महीने की 5-6 हजार रुपए की आमदनी हो जाती है।

सरस्वती बताती हैं कि जब समूह की महिलाओं के सहयोग से वह पंच बनी तो उन्हें पंचायत के नियम और कायदों का पता चला। इसका खूब फायदा उन्होंने अपने समूह की महिलाओं को दिया। वह कहती हैं कि राशन कार्ड और आवास जैसी योजनाओं को हासिल करने में वह समूह के महिलाओं की खूब मदद करती थीं। छत्तीसगढ़ में द लैप्रोसी मिशन ट्रस्ट इंडिया के राज्य समन्वयक किस्मत नंदा बताते हैं कि छत्तीसगढ़ के जांजगीर चांपा जिले से 20 किलोमीट दूर बसे आमोदा गांव से कुष्ठ रोगियों की काफी संख्या थी। 2006 में इस आधार पर गांव में मिशन पहुंचा। वहां लैप्रोसी को लेकर काफी सामाजिक भेदभाव था। पुरुषों का वर्चस्व था वह महिलाओं को किसी बैठक में भागीदारी नहीं करने देते थे। हमने इस बैरियर को तोड़ा और महिलाओं को एकत्र किया। सहारा स्वयं सहायता समूह इसी का परिणाम था जिसमें अब 20 महिलाएं जुड़ी हैं और अधिकारों के प्रति न सिर्फ जागरूक हैं बल्कि व्यक्तिगत सामर्थ्य पर कमाई कर रही हैं। आमोदा गांव में सहारा समूह से जुड़ी हमीदा बेगम जो कि कुष्ठ रोगी थीं, अब वह ठीक हो चुकी हैं। वह समूह के साथ गांव में कुष्ठ रोग के मुफ्त सरकारी इलाज के लिए जागरुकता फैलाती हैं। वह चूड़ी की दुकान भी चलाती हैं।

आमोदा ब्लॉक में लैप्रोसी मिशन के समन्वयक जनक नाग बताते हैं कि कोरोना संकट के समय मिशन की ओर से इन्हें 10 हजार रुपए की सहायता राशि दी गई थी। तबसे यह दुकान को और बेहतर तरीके से चला रही हैं। हमीदा बेगम अपने चूड़ी की दुकान से प्रति महीन 5 से छह हजार रुपए की कमाई कर लेती हैं। आमोदा गांव में इस वक्त सहारा स्वयं सहायता समूह मशरूम उत्पादन से आमदनी कर रहा है। समूह के सदस्य बताते हैं कि मशरूम का काम 2021 से शुरू किया गया। इस साल भी मशरूम उत्पादन की तैयारियां चल रही हैं।

स्वयं सहायता समूह ने बताया कि 2021 में कुल 4,500 लागत के साथ 19,000 रुपए मशरूम उत्पादन में अर्जित किया जबकि 2022 में 6,000 लागत से 23 हजार रुपए की आमदनी समूह को हुई। सरस्वती श्रीवास बताती हैं कि 2019 में जब सरकार ने स्वयं सहायता समूह को जोड़कर सहायता देना शुरु किया तबसे गांव में कई स्वयं सहायता समूह बन गए। इस वक्त 20 से ज्यादा एसएचजी गांव में काम कर रहे है। मनोज नाग बताते हैं कि लैप्रोसी मिशन में कुष्ठ रोग की जागरुकता के अलावा कई बैठकों में महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति सचेत किया गया। इसकी वजह से भी स्वयं सहायता समूह सशक्त हुए हैं। बहरहाल आमोदा गांव में भेदभाव झेलने वाली महिलाएं न सिर्फ जागरुक हुई हैं बल्कि वह अब लोकल गवर्नेंस को संभाल रही हैं।

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