जरूरत न होने के बावजूद कोरोना में बड़े पैमाने पर किया गया एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल: डब्लूएचओ

डब्ल्यूएचओ के मुताबिक अस्पताल में भर्ती कोरोना के हर चार में से तीन मरीज को बिना किसी खास जरूरत के एंटीबायोटिक दवाएं दी गई, इससे कोई खास राहत तो नहीं मिली लेकिन...
कोविड-19 के दौरान, अस्पतालों में भर्ती संक्रमितों के उपचार में एंटीबायोटिक दवाओं का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल किया गया; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
कोविड-19 के दौरान, अस्पतालों में भर्ती संक्रमितों के उपचार में एंटीबायोटिक दवाओं का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल किया गया; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
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विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने अपने हालिया निष्कर्ष में कहा है कि कोरोना के दौरान इलाज में एंटीबायोटिक दवाओं का भारी उपयोग किया गया। इससे मरीजों की स्थिति में तो कोई खास सुधार तो नहीं हुआ, लेकिन रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर) के मूक प्रसार और उससे जुड़े खतरों आशंका जरूर बढ़ गई।

गौरतलब है कि रोगाणुरोधी प्रतिरोध एक ऐसी स्थिति है जिसमें एंटीबायोटिक दवाएं कई तरह के संक्रमण को रोकने में बेअसर साबित होती हैं।

इस बारे में ज्यादा जानकारी देते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि कोरोना की वजह से अस्पताल में भर्ती मरीजों में से महज आठ फीसदी को बैक्टीरिया के कारण होने वाला संक्रमण था। इस संक्रमण का इलाज एंटीबायोटिक दवाओं से मुमकिन है, मगर इसके बावजूद कोरोना के हर चार में से तीन मरीज (75 फीसदी) को सिर्फ इस उम्मीद में एंटीबायोटिक दवाएं दी गई कि शायद वो फायदेमंद होंगी।

सेंटर फॉर डिजीज कण्ट्रोल एंड प्रिवेंशन ने भी जानकारी देते हुए लिखा है कि एंटीबायोटिक दवाओं की जरूरत केवल बैक्टीरिया के कारण होने वाले कुछ विशेष संक्रमणों के इलाज के लिए पड़ती है। वहीं बैक्टीरिया से होने वाले कुछ संक्रमण, एंटीबायोटिक दवाओं के बिना भी ठीक हो जाते हैं।

वहीं दूसरी तरफ यह एंटीबायोटिक दवाएं सर्दी, फ्लू या कोविड-19 जैसे वायरसों पर काम नहीं करती। ऐसे में जब इन एंटीबायोटिक्स की जरूरत नहीं होती, तो वे मदद करने की जगह स्वास्थ्य को कहीं ज्यादा नुकसान पहुंचा सकते हैं।

संयुक्त राष्ट्र स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक जहां पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में कोरोना के 33 फीसदी मरीजों को एंटीबायोटिक दवाएं दी गई। वहीं दूसरी तरफ पूर्वी भूमध्यसागर और अफ्रीकी क्षेत्रों में यह आंकड़ा 83 फीसदी तक था। ध्यान देने वाली बात है कि जहां 2020 से 2022 के बीच, यूरोप और अमेरिका में समय के साथ एंटीबायोटिक दवाओं को लेने की सलाह में कमी आई, वहीं अफ्रीका में इसमें वृद्धि दर्ज की गई।

स्वास्थ्य संगठन द्वारा जुटाए आंकड़े यह भी दर्शाते हैं कि इस दौरान कोरोना से गंभीर रूप से संक्रमित मरीजों में अधिकांश रूप से एंटीबायोटिक दवाएं दी गई। जो वैश्विक स्तर पर करीब 81 फीसदी रही।

वहीं तुलनात्मक रूप से मामूली संक्रमण के मामले में यह दर कम रही। हालांकि इसके बावजूद अफ्रीका में हल्के या मध्यम संक्रमण के करीब 79 फीसदी मामलों में इन दवाओं का उपयोग किया गया, जो दुनिया में सबसे अधिक है।

क्या कहते हैं आंकड़े

स्वास्थ्य संगठन ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि कोरोना से पीड़ित मरीजों में एंटीबायोटिक दवाओं के इस्तेमाल से स्थिति में कोई खास सुधार तो नहीं आया।  लेकिन उन लोगों में जिन्हें बैक्टीरियल इन्फेक्शन नहीं था, उन्हें इन दवाओं से नुकसान जरूर हो सकता था। बता दें कि यह वहीं दवाएं हैं, जिनसे दुनिया में रोगाणुरोधी प्रतिरोध का खतरा बढ़ रहा है।

यह निष्कर्ष, विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा कोविड-19 के लिए बनाए वैश्विक प्लेटफार्म से प्राप्त आंकड़ों के विश्लेषण पर आधारित हैं। यह आंकड़े जनवरी 2020 से मार्च 2023 के बीच 65 देशों में साढ़े चार लाख मरीजों से हासिल किए गए थे।

डब्ल्यूएचओ से जुड़ी डॉक्टर सिल्विया बर्टाग्नोलियो ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि जरूरत पड़ने पर यह एंटीबायोटिक्स मददगार होते हैं। भले ही उनसे जुड़े साइड इफेक्ट्स या एंटीबायोटिक प्रतिरोध जैसे जोखिम हो सकते हैं। हालांकि जब इनकी जरूरत नहीं होती इसके बावजूद इन्हें लिया जाता है तो वे फायदा करने की जगह कई समस्याएं पैदा कर सकते हैं।

इनकी वजह से संक्रमण से लड़ना मुश्किल हो जाता है और रोगाणुरोधी प्रतिरोध पैदा होने का खतरा बढ़ जाता है। ऐसे में उनके मुताबिक जब हम लोगों को स्वस्थ रखने के लिए एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग करते हैं तो हमें कहीं ज्यादा ध्यान रखने की आवश्यकता होती है।

यह नहीं भूलना चाहिए कि वैश्विक स्तर पर बढ़ता एंटीबायोटिक प्रतिरोध अपने आप में एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है। आज जिस तरह से इंसानों, जानवरों और फसलों में एंटीबायोटिक दवाओं का जरूरत से ज्यादा दुरुपयोग हो रहा है, उसके चलते मौजूदा एंटीबायोटिक्स दवाएं धीरे-धीरे कम प्रभावी होती जा रही हैं। नतीजन एक नई समस्या उभर रही है।

एंटीबायोटिक दवाओं के दुरूपयोग से बढ़ रहा है एक नई 'महामारी' का खतरा

बहुत से लोगों के मन में यह साल रहता है कि यह रोगाणुरोधी प्रतिरोध क्या होता है और हमें इसकी इतनी चिंता क्यों करनी चाहिए। तो आपकी जानकारी के लिए बता दें कि रोगाणुरोधी प्रतिरोध एक ऐसी स्थित है, जिसमें रोग फैलाने वाले सूक्ष्मजीव जैसे बैक्टीरिया, कवक, वायरस और परजीवी रोगाणुरोधी दवाओं के लगातार संपर्क में आने के कारण अपने शरीर को इन दवाओं के अनुरूप ढाल लेते हैं।

अपने शरीर में आए बदलावों की मदद से वो धीरे-धीरे इन दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि एंटीबायोटिक दवाएं उन पर असर नहीं करती। जब ऐसा होता है तो मनुष्य के शरीर में लगा संक्रमण जल्द ठीक नहीं होता। इस प्रतिरोध को कभी-कभी "सुपरबग्स" भी कहा जाता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन इन एंटीबायोटिक दवाओं को रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर) के जोखिम के आधार पर समूहों में वर्गीकृत करता है। चिंताजनक रूप से, अध्ययन से पता चला है कि वो एंटीबायोटिक्स, जिनमें प्रतिरोध का जोखिम कहीं ज्यादा होता है, आमतौर पर वैश्विक स्तर डॉक्टरों द्वारा उनको लेने की अधिक सलाह  दी गई है।

देखा जाए तो जिस तरह दूसरी बीमारियों पर गौर किया जा रहा है, उसके साथ-साथ एंटीबायोटिक दवाओं पर घटते शोध के चलते नई एंटीबायोटिक दवाओं के विकास में भी गिरावट आ रही है। यह स्थिति इस बात की ओर भी इशारा करती है कि आने वाले वर्षों या दशकों में हमें स्वास्थ्य से जुड़े एक और गंभीर संकट का सामना करना पड़ सकता है।

बता दें कि इन एंटीबायोटिक्स दवाओं के प्रभावी न रहने की वजह से उपचार के विकल्प कम हो रहे हैं। इंस्टिट्यूट फॉर हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (आईएचएमई) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक रोगाणुरोधी प्रतिरोध ने सीधे तौर पर 12.7 लाख लोगों की जान ली थी।

अनुमान है कि 2019 में जितनी मौतें हुई थी, उनमें से करीब 50 लाख मामलों में मरीज कम से कम एक दवा प्रतिरोधी संक्रमण से पीड़ित था। वहीं जर्नल लैंसेट में प्रकाशित एक रिसर्च का कहना है कि एंटीबायोटिक प्रतिरोध, दुनिया में मलेरिया और एड्स से भी ज्यादा लोगों की जान ले रहा है।

एक अन्य रिपोर्ट "ब्रेसिंग फॉर सुपरबग" से पता चला है कि हर बीतते दिन के साथ रोगाणुरोधी प्रतिरोध कहीं ज्यादा बड़ा खतरा बनता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी इस रिपोर्ट का अनुमान है कि यदि इसपर अभी ध्यान न दिया गया तो अगले कुछ वर्षों में इससे हर साल वैश्विक अर्थव्यवस्था को 284 लाख करोड़ रूपए (3.4 लाख करोड़ डॉलर) से ज्यादा का नुकसान उठाना पड़ सकता है।

इतना ही नहीं इसके चलते करीब 2.4 करोड़ अतिरिक्त लोग अत्यधिक गरीबी की मार झेलने को मजबूर होंगें। यह भी अनुमान है कि 2050 तक इसके कारण होने वाली मौतों का आंकड़ा बढ़कर सालाना एक करोड़ पर पहुंच सकता है।

आंकड़े दर्शाते हैं कि 2000 से लेकर 2018 के बीच मवेशियों में पाए जाने वाले जीवाणु तीन गुना अधिक एंटीबायोटिक प्रतिरोधी हो गए हैं, जोकि एक बड़ा खतरा है, क्योंकि यह जीवाणु बड़े आसानी से मनुष्यों के शरीर में भी प्रवेश कर सकते हैं।

ऐसे में विश्व स्वास्थ्य संगठन से जुड़े विशेषज्ञों ने जोर देकर कहा है कि एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल तर्कसंगत रूप से किया जाना चाहिए, ताकि मरीजों और आम लोगों पर इनका कम से कम नकारात्मक प्रभाव पड़े।

एक डॉलर = 83.4 भारतीय रुपए

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