उत्तराखंड के गांवों तक कब पहुंचेंगी स्वास्थ्य सेवाएं?

उत्तराखंड के गांवों में प्रसव पीड़ा होने के बाद यह डर सताने लगता है कि मां व शिशु जीवित रह पाएंगे या नहीं
Photo: Samrat Mukharjee
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चमोली के कोटी ग्राम पंचायत के पैंखोली गांव की 25 साल की सुनीता ने 14 फरवरी की रात घर में ही बच्ची को जन्म दिया। प्रसव के कुछ ही देर बाद तबियत बिगड़ गई। गांव में संचार सेवाएं अब तक नहीं पहुंची कि तबियत बिगड़ी तो एंबुलेंस के लिए फोन किया जा सके। गांव से सड़क 3 किलोमीटर और नज़दीकी अस्पताल 25 किलोमीटर दूर है। अस्पताल में डॉक्टर मिलेगा या नहीं, ये भी तय नहीं। गांव के लोग सुनीता को कुर्सी पर और नवजात को गोद में लेकर देर रात ही अस्पताल के लिए निकलते हैं।  नज़दीकी सड़क तक भी नहीं पहुंच सके थे, मां और शिशु दोनों की मौत हो जाती है और वे वापस घर की ओर चल देते हैं।

इस घटना के ठीक अगले दिन राज्य के दूसरे छोर पिथौरागढ़ में 26 साल की महिला ने अस्पताल में बच्चे को जन्म दिया। बच्चा स्वस्थ था, लेकिन मां ने दम तोड़ दिया। परिजन अस्पताल प्रशासन पर लापरवाही का आरोप लगाते हुए हंगामा कर, वापस घर लौट गए। पिथौरागढ़ में ढाई महीने के अंतराल में प्रसव के दौरान होने वाली ये चौथी मौत थी। 13 फरवरी को ही पिथौरागढ़ के बेड़ीनाग विकास खंड में प्रसव के दर्द से गुज़र रही कमला को डोली में बिठाकर नज़दीकी सामुदायिक विकास केंद्र ले जाया जा रहा था, जो सात किलोमीटर दूर था। इस दूरी को तय करने से पहले ही कमला ने खेत में बच्चे को जन्म दिया। इसी महीने उत्तरकाशी में भी ऐसी ही घटना हुई। उत्तराखंड में इस तरह की घटनाएं अब भी बेहद आम हैं।

महिलाओं के सुरक्षित प्रसव के इंतज़ाम और जन्म लेने (या नहीं ले पाने) के लिए नवजात शिशु की स्थिति से किसी राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति का आंकलन किया जा सकता है।

चमोली के ही गैरसैंण में 3-6 मार्च तक राज्य का बजट सत्र आयोजित होगा। मात्र 4 दिनों के बजट सत्र में त्रिवेंद्र सरकार को बताना है कि जनता की सुविधाओं के लिए इस बार उनके बहीखाते में क्या कुछ होगा। पहाड़ों पर डॉक्टरों और स्वास्थ्य सुविधाओं का न होना पलायन की बड़ी वजहों में से एक है।

युवा कार्यकर्ता शिवानी पांडे कहती हैं कि देश भर में लोग इस जगह को बद्रीनाथ, फूलों की घाटी, हेमकुंड साहिब, औली जैसी जगहों के लिए जानते हैं और हम लोग इसलिए कि करीब 4 लाख जनसंख्या वाले 12 तहसीलों वाले इस सीमांत जिले में इलाज के लिए एक महिला डॉक्टर, एक सर्जन और एक रेडियोलॉजिस्ट है। डॉक्टरों की कमी के कारण हर दिन बिना प्राथमिक उपचार के महिलाएं मर रही हैं। बच्चे इस दुनिया मे आने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जो किसी तरह पहाड़ के 4-5 जिले पार कर अपनी कीमत पर बच रहे हैं उन्हें देहरादून के प्राइवेट अस्पताल में तंगहाल जेब मार रही है

उत्तराखंड महिला मंच की निर्मला बिष्ट कहती हैं कि हम चाहते थे कि राजधानी गैरसैंण में होती तो शायद पर्वतीय क्षेत्रों में भी स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर होती। गांवों में आज वही लोग रह रहे हैं जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत कमज़ोर है। नैनीताल में स्वजल परियोजना के तहत पानी और स्वच्छता को लेकर कार्यरत सामुदायिक विकास विशेषज्ञ लक्ष्मी बताती हैं कि गांव में गर्भवती महिलाओं की स्वास्थ्य जांच तक नहीं हो पाती। जिले के उखलकांडा ब्लॉक में कोई डॉक्टर नहीं है, वहां से मरीजों को भीमताल रेफर किया जाता है, फिर हल्द्वानी। ये पूरा रास्ता 3-4 घंटे में तय किया जाता है। इसके अलावा गांव से सड़क तक आने का समय अलग। अस्पताल पहुंचने तक जिस पीड़ा से महिलाएं गुज़रती हैं उसका अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता। सब कुछ किस्मत पर निर्भर करता है कि वो बचेगी या स्वस्थ्य बच्चे को जन्म देगी। अस्पताल तो दूर महिलाएं एंबुलेंस तक नहीं पहुंच पा रहीं।

पिछले वर्ष नीति आयोग की रिपोर्ट “हेल्दी स्टेट्स प्रोग्रेसिव इंडिया” में स्वास्थ्य सूचकांकों में उत्तराखंड को 21 राज्यों की सूची में 17वें स्थान पर रखा गया। शिशु मृत्युदर, नवजात मृत्युदर में राज्य की स्थिति बेहद खराब रही। वर्ष 2015-16 के दौरान उत्तराखंड एक मात्र राज्य था जहां नवजात मृत्यु दर 28 से बढ़कर 32 (प्रति एक हजार जीवित बच्चे के जन्म पर) हो गई।

दिक्कत ये भी है कि पहाडों पर डॉक्टर सेवाएं नहीं देना चाहते। राज्य में स्वास्थ्य विभाग में बहुत से पद लंबे समय से खाली हैं। वर्ग क में 1337 पदों की तुलना में मात्र 638 कार्यरत हैं, 699 खाली। वर्ग ख में 1833 पदों की तुलना में 792 रिक्त पद, वर्ग ग में 9258 पदों की तुलना में 2749 रिक्त, वर्ग घ में 2755 पदों की तुलना में 959 रिक्त पद हैं। 

राज्य में शिशु मृत्यु दर वर्ष 2001 में 48 प्रति हजार जीवित जन्म थी, जो 2016 में 38 तक पहुंची। 2018-19 में संस्थागत प्रसव 70 प्रतिशत रहा, नवजात शिशु मृत्युदर 38 रही। वर्ष 2018-19 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक उत्तराखंड में 257 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं, जबकि हिमाचल प्रदेश में 538 केंद्र हैं। हालांकि सरकार ने हर साल स्वास्थ्य के मद में बजट में बढ़ोतरी की है। वर्ष 2016-17 स्वास्थ्य (एलोपैथी) का बजट प्रावधान 78190.64 लाख रु. था, जो 2017-18 में 155852.30 लाख और 2018-19 में 181147.61 लाख हो गया। 

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