घर में रहने वाली महिला या बाहर से भी सीधा वही आमदनी लेकर नहीं आती तब उसके कार्यों का कोई मूल्य नहीं होता। फोटो: प्रशांत रवि
घर में रहने वाली महिला या बाहर से भी सीधा वही आमदनी लेकर नहीं आती तब उसके कार्यों का कोई मूल्य नहीं होता। फोटो: प्रशांत रवि

घरेलू काम की आर्थिक हैसियत क्या हो?

महिला और महिला के कार्य का मूल्य पर होने वाली ये चर्चा भी कोई आज की नहीं है बल्कि लंबे समय से चली आ रही है
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हाल ही में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई के दौरान की गयी एक टिप्पणी से घरेलू काम काज में लगीं महिलाओं की हैसियत का अंदाज़ा लगाए जाने के चलन पर सवाल खड़े किए हैं और महिला के श्रम, देखभाल के आर्थिक पहलुओं पर बहस खड़ी की है। यह बहस स्वागत योग्य है और बहुप्रतीक्षित है। 

महिला और महिला के काम को समाज ने, घर परिवार ने हमेशा दोयम दर्जे पर देखा है। और ये बात कोई आज या कल  की नहीं बल्कि सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। एक महिला के काम का अगर सही से आंकलन किया जाये तो शहरी महिला औसतन साढ़े पाँच- छह घंटे घर के काम करती है और गांवों मे रहने वाली महिला औसतन दिन मे पाँच –साढ़े पाँच घंटे  घर के काम में देती है। फिर भी अक्सर यही सुनती है कि आखिर वो करती ही क्या है? 

जो महिलाएं घर से बाहर निकल कर पैसा कमाने जाती हैं उन्हें फिर भी उपयोगी माना जाता है पर घर में रहने वाली महिला या बाहर से भी सीधा वही आमदनी लेकर नहीं आती तब उसके कार्यों का कोई मूल्य नहीं होता है। हालांकि जिन्हें ‘कामकाजी महिलाएं’ कहा जाता है उन्हें भी घर के रोजमर्या के उन कामों से छूट नहीं है जिन्हें महिला के मत्थे ही मढ़ा गया है। निम्न और मध्य-वित्त आय की नौकरियों में लगीं महिलाओं को अपने दफ्तर, फैक्ट्री या अन्य प्रकार के कार्य-स्थल के अलावे घर के कामों का दोहरा बोझ होता है। 

खैर महिला और महिला के कार्य का मूल्य पर होने वाली ये चर्चा भी कोई आज की नहीं है बल्कि लंबे समय से चली आ रही है। वेतन आयोग हालांकि इन पहलुओं को संज्ञान में लेता रहा है और पुरुष कर्मचारी की तनख्वाह तय करने में उसकी पत्नी, बच्चे और उस पर आश्रित उसके वृद्ध माता-पिता को भी विचार में लिया जाता रहा है। लेकिन यहाँ पत्नी के काम को पुनरुत्पादन के लिए ज़रूरी कारक के तौर पर ही देखा गया।   

एक आम महिला सुबह उठने से लेकर रात के सोने तक अनगिनत मुश्किल कामों को करती है। अगर हम यह कहें कि घर संभालना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है, तो शायद गलत नहीं होगा। दुनिया में सिर्फ यही एक ऐसा पेशा है, जिसमें 24 घंटे, सातों दिन आप काम पर रहते हैं, हर रोज अलग तरह की कठिनाइयों से दो-चार होते हैं। हर डेडलाइन को पूरा करते हैं और वह भी बिना छुट्टी के। सोचिए, इतने सारे कार्य के बदले में वह कोई मेहनताना नहीं लेती। उसके परिश्रम को सामान्यतः घर का नियमित काम-काज कहकर विशेष महत्व भी नहीं दिया जाता। साथ ही उसके इस काम को राष्ट्र की उन्नति में योगदान देने का सम्मान भी नहीं मिलता। जबकि उतना काम नौकर-चाकर के द्वारा कराया जाता, तो अवश्य ही एक बड़ी राशि वेतन के रूप में चुकानी पड़ती। 

घर के लगभग सभी कामों का दायित्व एक महिला पर ही होता है , फिर भी कभी इस नजरिए से उसके काम को नहीं देखा जाता कि वह  देश और घर में अपना आर्थिक योगदान कर रही है। ऐसी महिलाएं घर की आय में सीधे कुछ नहीं जोड़तीं इसलिए उनके काम की कोई इकनॉमिक वैल्यू नहीं समझी जाती। जीडीपी के नाम से देश की दौलत का जो सालाना हिसाब लगाया जाता है, उसमें वही आय और उत्पादन शामिल होता है जिसमें पैसे का लेनदेन हुआ हो। यह कहने की जरूरत नहीं कि परिवार में एक हाउस वाइफ/होम मेकर की क्या अहमियत होती है और उसके बिना घर-समाज नहीं चल सकता । लेकिन उसके काम को अनउत्पादक समझ लिया जाना, जो उसकी हैसियत को गिराता ही नहीं, बल्कि उसके अस्तित्व और अस्मिता को भी खत्म कर देता है।  

इन दिनों हाऊसवाइफ के अस्तित्व को लेकर ऐसी व्यापक चर्चाएं हैं। सोशल मीडिया पर हाऊसवाइफ की सक्रियता से उन्हीं के बीच ऐसे प्रश्न उछलने लगे हैं कि क्या हाऊसवाईफ का परिवार, समाज और देश के प्रति योगदान नगण्य है? क्या हाऊसवाइफ का कोई अस्तित्व नहीं? क्या उसे आर्थिक निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं? क्या हाऊसवाइफ सिर्फ बच्चे पैदा करने और घर संभालने के लिए होती है? क्यों हाऊसवाइफ का योगदान देश के विकास में एक पुरुष से कमतर आंका जाता हैं? हाउसवाइफ को उनके काम के बदले सैलरी का प्रावधान होना ही चाहिए?

हाल मे इस चर्चा ने फिर से  ज़ोर पकड़ा है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने इस बाबत एक निर्णय दिया है जिसमें एक गृहिणी की दुर्घटना में मौत हो जाने पर बीमा कंपनी ने महिला की जिंदगी की कीमत बहुत कम आँकी थी और इसका आधार यह बताया था कि वह महिला होममेकर यानि गृहिणी थी।और तब मामला कोर्ट मे पहुंचा। आपने जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा भी कि ‘घरेलू काम करने वाली महिलाओं के काम का महत्व किसी भी तरह से उनके पति के काम से कम नहीं है’।

कोर्ट ने यह भी कहा कि होम मेकर्स की अनुमानित आय का आंकलन होना चाहिए और  उसके लिए उनके द्वारा किए गए काम को ध्यान में रखना चाहिए। 

हाउसवाइफ की घरेलू भूमिका और उसके आर्थिक मूल्यांकन का काम कई मोर्चों पर चल रहा है। हमारे देश में भी और बाहर भी। सन् 2004 में एक हाईकोर्ट भी कह चुका है कि हाउसवाइफ की कम से कम वैल्यू रुपयों में मासिक आय सुनिश्चित होना चाहिए। केरल में हाउसवाइफ के लिए मासिक भत्ते की मांग भी सामने आ चुकी है। बांग्लादेश के वित्तमंत्री का भी मानना रहा है कि हाउस कीपिंग की वैल्यू तय की जानी चाहिए। लेकिन बात इतनी ही नहीं है। हाउसवाइफ की वैल्यू तो निश्चित हो ही जाएगी लेकिन उससे बड़ा चिंताजनक प्रश्न हाउसवाइफ के अस्तित्व और समाज में उसके सम्मान का है। 

इसी साल घर और बच्चों को संभालने वाली महिलाओं को लेकर ऑक्सफैम की एक खास रिपोर्ट आई है जिसमें कहा गया है कि दुनियाभर में घर और बच्चों की देखभाल करते हुए महिलाएं सालभर में करीब 10 हजार अरब डॉलर के बराबर काम करती हैं, जिसका उन्हें कोई पेमेंट नहीं मिलता है.

ऑक्सफैम की मानें तो यह रकम दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी एप्पल के सालाना कारोबार का 43 गुना है. रिपोर्ट में भारत के संदर्भ में कहा गया है कि यहां की महिलाएं घर और बच्चों की देखभाल जैसे बिना वेतन वाले जो काम करती हैं, इसका हिस्सा देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 3.1 प्रतिशत के बराबर है.

घर और बच्चों के संभालने जैसे कामों में शहरी महिलाएं हर दिन 312 मिनट और ग्रामीण महिलाएं 291 मिनट लगाती हैं। जबकि इसकी तुलना में शहरी पुरुष बिना भुगतान वाले कामों में केवल 29 मिनट ही लगाते हैं, जबकि ग्रामीण इलाके में रहने वाले पुरुष 32 मिनट खर्च करते हैं

दरअसल अंतरराष्ट्रीय समूह ऑक्सफैम ने दावोस में विश्व आर्थिक मंच (WEF) की सालाना बैठक से पहले ‘टाइम टू केयर’ नाम से यह रिपोर्ट जारी की गई। रिपोर्ट में भारत से जुड़े एक आंकड़े को लेकर चिंता जताई गई है. जिसमें कहा गया है कि भारत समेत कई देशों में आर्थिक असमानता की वजह से ज्यादा महिलाएं और लड़कियां प्रभावित हो रही हैं। यहां पुरुषों की तुलना में महिलाओं को वेतन वाले काम मिलने के आसार कम होते हैं, यहां तक कि देश के 119 अरबपतियों की सूची में सिर्फ 9 महिलाएं हैं

इसके अलावा रिपोर्ट की मानें तो पुरुषों की तुलना में महिलाओं को काम के बदले कम वेतन मिलता है. यही नहीं, महिलाओं और पुरुषों के वेतन में काफी अंतर है। इसलिए महिलाओं की कमाई पर निर्भर रहने वाला परिवार आर्थिक रूप से कमजोर रह जाता है। देश में स्त्री-पुरुष के वेतन का अंतर 34 फीसदी है। यह भी सामने आया है कि जाति, वर्ग, धर्म, आयु और स्त्री-पुरुष भेदभाव जैसे संरचनातगत कारकों का भी महिलाओं के प्रति असमानता पर प्रभाव पड़ता है।

ऑक्सफैम ने ग्लोबल स्त्री-पुरुष असमानता सूचकांक 2018 में भारत की खराब रैंकिंग (108वें पायदान) का जिक्र करते हुए कहा कि इसमें 2006 के मुकाबले सिर्फ 10 स्थान की कमी आई है। वह वैश्विक औसत से काफी पीछे है। यही नहीं, इस मामले में वह चीन और बांग्लादेश जैसे  अपने पड़ोसी देशों से भी पीछे है। 

यानि घर पर रहते हुए जो काम महिलाएं करती हैं उनका तो कोई मूल्य मिलता ही नहीं, लेकिन जब बाहर नौकरी करने जाती हैं तो वहाँ भी समान योग्यता के बावजूद पुरुषों के मुक़ाबले कम वेतन ही मिलता है। लिहाज़ा हम उन जटिल स्थितियों की ओर बढ़ रहे हैं, जहां हमारे लिए भी घरेलू काम-काज चुनौती बन कर प्रस्तुत होगा, भले ही हम घरेलू महिलाओं के श्रम को आर्थिक मूल्य देने को तो तैयार हो जाएं, पर क्या उसे समुचित सम्मान भी दे पाएंगे? 

यहां जरूरत घर के कामों की सिर्फ कीमत तय करने की नहीं वरन उसके सम्मान को मान्यता देने की है जो मानव सभ्यता के इतिहास का सबसे बड़ा दाय है जिसे दुनिया भर की महिलाओं को लौटाना होगा। पुरुषों को घरेलू काम-काज में बराबर का हाथ बंटाना होगा। महिलाओं के लिए निर्धारित कर दिये गए इस एकाधिकार क्षेत्र को संतुलित करने के लिए पुरुषों को भी सहभागिता निभानी होगी।

घर के  काम मे पुरुषों की भागीदारी आधी-  आधी करना होगी। क्योंकि सिर्फ महिला के घरेलू काम का मूल्य तय  करने की बात करके समाज अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकता। जब बात कीमत निर्धारित करने की होगी तब बहुत सी चीजों का मूल्य तय कर पाना मुश्किल हो जाएगा -उनके प्यार और अपनेपन का, उनके समर्पण का, त्याग का और उनकी चुप्पी का भी।

लेखिका महिलाओं के मुद्दे पर लंबे समय से काम कर रही हैं

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