किसी कैलेंडर को सम्मान की नजर से नहीं देखता वायरस

कोरोनावायरस संक्रमण को एक साल होने जा रहा है, इसके साथ ही नया वर्ष भी शुरू होगा
दिल्ली के खान मार्केट में ग्राहक का इंतजार एक दुकानदार। फोटो: विकास चौधरी
दिल्ली के खान मार्केट में ग्राहक का इंतजार एक दुकानदार। फोटो: विकास चौधरी
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साल 2020 एक बुरे सपने की तरह बीत रहा है और दुनिया इस भ्रम में है कि नए साल में महामारी का सूरज भी डूब जाएगा। लेकिन सच यह है कि वायरस किसी कैंलेडर को सम्मान की नजर से नहीं देखता। उसे तो बस मेजबान यानी होस्ट चाहिए। दुनिया के 7 बिलियन से अधिक लोग उसकी विकास यात्रा को अनवरत जारी रखने के लिए पर्याप्त हैं।

नोवेल कोरोनावायरस को चीन के एक बाजार में मानव मेजबान को खोजे करीब एक साल हो गया है। तब से लेकर अब तक यह करीब 200 देशों में फैलकर 16 लाख से अधिक लोगों की जान ले चुका है। बहुत से देश महामारी के प्रारंभिक चरण के मुकाबले उच्च संक्रमण दर से जूझ रहे हैं। बहुत से देशों का दावा है कि उन्होंने वक्र को समतल कर दिया है और अब दूसरी लहर का सामना कर रहे हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि दुनिया महामारी के प्रभाव से दरक सी गई है।

एक साल बाद महामारी को बारीकी से देखने की जरूरत है जो सौ साल में एक बार स्वास्थ्य पर गंभीर संकट खड़ा करती है। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि वायरस आगे भी अपना काम करता रहेगा यानी मेजबान खोजता रहेगा। बहरहाल महामारी के एक साल होने के क्या मायने हैं? इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले यह जानना जरूरी है कि वायरस दुनिया में स्थायी कैसे बन रहा है। अलग-अलग समूह के लिए इसके अलग-अलग मतलब हैं। यह स्वास्थ्य पर संकट तो बना रहेगा लेकिन इसका सबसे गंभीर प्रभाव सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय हैं।

महामारी हमें इस तथ्य की रह रहकर याद दिलाती रहेगी कि हम राजनीतिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य से दरकिनार कर किए जाने को अभिशप्त हैं। हम भले ही एक ग्रह पर रह रहे हों लेकिन “एक दुनिया” में नहीं हैं। हमारी शासन व्यवस्था और विकास को परिभाषित करने वाली असमानता तब खुलकर सामने आ जाती है जब हम इस महामारी से लड़ते हैं। देशों के बीच ही नहीं बल्कि देश और समाज के भीतर की असमानता भी महामारी सामने ले आई है। आंकड़े बताते हैं कि गरीब आबादी सबसे ज्यादा प्रभावित है, चाहे वह गरीब देश की हो या अमीर। देश के भीतर विकास में क्षेत्रीय असमानता ने जनसंख्या के कुछ समूहों को अधिक प्रभावित किया है।

महामारी के दौर में असमानता गरीबों और वंचितों को आर्थिक रूप से तोड़ देती है। उदाहरण के लिए भारत में असंगठित क्षेत्र को सबसे अधिक आर्थिक क्षति पहुंची और इसी वर्ग की नौकरियां सबसे ज्यादा गईं। देशों की बात करें तो सबसे कम विकसित देशों को भीषण आर्थिक संकट से जूझना पड़ रहा है, इसलिए ये देश कल्याण कार्यक्रमों पर होने वाले खर्च में कटौती कर रहे हैं। विकसित देशों में भी सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर समझा जाने वाला तबका ही सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है। यानी इसी तबके को जानमाल की सबसे अधिक क्षति पहुंची है। ऐसी स्थिति में दुनिया सतत विकास लक्ष्यों से बुरी तरह पिछड़ जाएगी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि गरीब और गरीब हो रहा है। हालांकि अमीर व्यक्ति अपनी दौलत के बूते महामारी के प्रभावों से बचकर इस संकट की घड़ी को आसानी से पार कर लेगा।

पर्यावरण की नजर से देखें तो जब देशों ने सख्त लॉकडाउन लागू किया तो हमने “नीले आसमान और साफ हवा” का जश्न मनाया। इसने एक बार फिर याद दिलाया कि हमने अपने पर्यावरण के साथ कितना बुरा सलूक किया है। अब एक साल बाद पता चल रहा है कि यह हमारी समृद्धि और उपभोग की अस्थायी झलक भर थी जिसने पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी से हमें विमुख कर दिया है। ऐसा तब है जब हमारी अर्थव्यवस्था प्रकृति पर आधारित है। कार्बन का उत्सर्जन कम जरूर हुआ है लेकिन इतना नहीं कि वैश्विक तापमान कम किया जा सके। यह साल तीन सबसे गर्म सालों में शामिल हो गया है। इससे स्पष्ट है कि दुनिया उत्सर्जन लक्ष्यों को पूरा करने के ठीक रास्ते पर नहीं है।

संक्षेप में कहें तो महामारी में गुजरे साल ने हमें बता दिया है कि हमने धरती और इसमें रहने वाले जीवों को कितना नुकसान पहुंचाया है। इसके गुनहगार हम ही हैं। इसीलिए कहा भी जा रहा है कि महामारी ने धरती से हमारे संबंधों को पुन: परिभाषित किया है। भले ही इस सीख की बड़ी आर्थिक और मानवीय कीमत है। बहरहाल, नया साल के आगमन की तैयारियों में जुट जाइए।

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