नीति आयोग के स्वास्थ्य सूचकांक में क्यों पिछड़ा उत्तराखंड

हाल ही में जारी नीति आयोग के स्वास्थ्य सूचकांक में उत्तराखंड को 21 बड़े राज्यों में 19वां स्थान दिया गया है, जो राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं को आइना दिखा रहा है
उत्तराखंड के सबसे बड़े दून अस्पताल की ओपीडी में हर रोज उमड़ती है ऐसी भीड़। फोटो: त्रिलोचन भट्ट
उत्तराखंड के सबसे बड़े दून अस्पताल की ओपीडी में हर रोज उमड़ती है ऐसी भीड़। फोटो: त्रिलोचन भट्ट
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नीति आयोग द्वारा हाल ही में जारी स्वास्थ्य सूचकांक ने उत्तराखंड राज्य के गठन पर एक बार फिर सवालिया निशान लगा दिया है। यहां के जनमानस ने 90 के दशक में राज्य निर्माण को लेकर जो लड़ाई लड़ी थी, उसमें शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार प्रमुख मुद्दे थे। राज्य गठन के बाद उम्मीद की गई थी कि इन तीनों मोर्चों पर राज्य तरक्की करेगा। लेकिन, नीति आयोग की रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि इन 18 वर्षों में राज्य में कम से कम स्वास्थ्य के क्षेत्र में तो कोई तरक्की नहीं हुई है। हालांकि इस रिपोर्ट में पिछले एक साल का तुलनात्मक अध्ययन है।

वर्ष 2016-17 में हेल्थ सूचकांक में उत्तराखंड को 45.22 अंक हासिल हुए थे और देश के 21 बड़े राज्यों में उत्तराखंड को 17वीं रैंक दी गई थी। लेकिन, 2017-18 के स्वास्थ्य सूचकांक बेहद निराशाजनक है। इस बार उत्तराखंड को 40.20 अंक प्राप्त हुए हैं और राज्य के रैंक दो स्थान नीचे खिसककर 19वें स्थान पर पहुंचे गई है। केवल बिहार और उत्तर प्रदेश ही अब स्वास्थ्य सूचकांक में उत्तराखंड से पीछे रह गये हैं। यानी कि राज्य के स्वास्थ्य सूचकांक में एक वर्ष के दौरान 5.02 अंक की गिरावट आई है। बिहार और उत्तर प्रदेश क्षेत्रफल, जनसंख्या और प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से उत्तराखंड के काफी पीछे हैं, इसके बावजूद स्वास्थ्य सूचकांक में उत्तराखंड का इन राज्य के साथ नजर आना स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति राज्य सरकार की बेरुखी की ओर इशारा करता है। खास बाद यह है कि राज्य पलायन आयोग की रिपोर्ट में राज्य में पर्वतीय क्षेत्रों से 8 प्रतिशत लोगों ने स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में पलायन किया है।

नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि उत्तराखंड के स्वास्थ्य सूचकांक में गिरावट की सबसे बड़ी वजह नवजातों और 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्युदर का बढ़ जाना है। ऐसे समय में जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन और केन्द्र सरकार की अन्य एजेंसियों को पूरा फोकस नवजात और 5 वर्ष तक के बच्चों की मृत्यु दर कम करने पर है, उत्तराखंड में इसमें बढ़ोत्तरी होना चिन्ताजनक है। रिपोर्ट यह भी खुलासा करती है कि वर्ष 2016-17 में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए काम करने वाली एजेंसियों का भुगतान 27 दिन के भीतर कर दिया जाता था, जब वर्ष 2018-19 में यह सीमा 109 दिन हो गई है। इससे स्पष्ट है कि स्वास्थ्य सेवाओं के लिए आवंटित धन को अन्य कार्यों में व्यय किया जा रहा है। यह स्थिति राज्य में बढ़ रही अफसरशाही की तरफ भी इशारा करती है।

यह स्थिति तब है, जबकि इस साल फरवरी में पेश किये गये राज्य के बजट में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए 2427.71 करोड़ रुपये की धनराशि आवंटित की गई थी। इसे एक अच्छी खासी रकम माना जा रहा था। बजट प्रावधानों के लिए इस राशि में से 1013.79 करोड़ रुपये वेतन और भत्तों पर खर्च किया जाना था। 85.05 करोड़ रुपये विशेष सेवाओं पर, 176.21 करोड़ रुपये अस्पतालों के निर्माण पर, 150 करोड़ रुपये अटल आयुष्मान उत्तराखंड योजना पर, 10.58 करोड़ रुपये दवाओं की खरीद पर खर्च किये जाने थे। खास बात यह है कि पांच महीने बाद भी इनमें से कोई काम शुरू नहीं हो पाया है। न तो विशेषज्ञ डाॅक्टरों की भर्ती की गई है और न किसी अस्पताल के निर्माण की शुरुआत हुई है। सरकारी अस्पतालों में दवाओं की कमी संबंधी खबरें आये दिन मीडिया की सुर्खियां बनती रहती हैं।

उत्तराखंड में स्वास्थ्य संबंधी अवस्थापना सुविधाओं पर नजर डालें तो इसमें कहीं कोई कमी नजर आती है। राज्य स्वास्थ्य महानिदेशालय के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में कुल 12 जिला अस्पताल हैं। देहरादून के जिला अस्पताल दून हाॅस्पिटल को मेडिकल काॅलेज बनाये जाने के बाद फिलहाल राजधानी वाले जिले में कोई जिला अस्पताल नहीं है। इसके अलावा राज्य में 15 संयुक्त चिकित्सालय, 6 महिला अस्पताल, 3 बेस अस्पताल, 1 मानसिक चिकित्सालय, 55 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र, 239 जन स्वास्थ्य केन्द्र, 1765 उप स्वास्थ्य केन्द्र, 322 एलोपैथिक डिस्पेंसरी, 543 आयुर्वेदिक डिस्पेंसरी, 107 हाॅम्योपैथिक डिस्पेंसरी, 3 यूनानी अस्पताल और 13 क्षय रोग केन्द्र हैं। इसके अलावा चिकित्सा शिक्षा निदेशालय द्वारा राज्य में तीन सरकारी मेडिकल काॅलेज भी चलाये जा रहे हैं। लेकिन इनमें डाॅक्टर्स की स्थिति क्या है, इस बारे में स्वास्थ्य महानिदेशालय मौन है।

उत्तराखंड स्वास्थ्य और परिवार कल्याण निदेशालय की वेबसाइट पर मानव संसाधन संबंधी एक पेज तो है, लेकिन इस पेज पर कोई जानकारी उपलब्ध ही नहीं है। इस पेज पर सीनियरिटी लिस्ट- पार्ट एक व दो, फाइनल लिस्ट- जनरल ग्रेड व स्पेशलिस्ट ग्रेड और निविदा स्टाफ- एमबीबीएस एंड डेंटल और आयुर्वेदिक के काॅलम बने हुए हैं, लेकिन ये सभी काॅलम रिक्त हैं। सवाल उठना लाजमी है कि क्या ऐसा जान-बूझकर किया गया है?

स्वास्थ्य महानिदेशालय के आधिकारिक सूत्रों के अनुसार राज्य में कुल 2715 से डाॅक्टर्स की पद स्वीकृत हैं। हालांकि राज्य की जनसंख्या और हेल्थ यूनिट्स की तुलना में स्वीकृत पदों की संख्या बहुत कम है, लेकिन इन पदों में से भी 1054 पद रिक्त हैं, यानी कि मात्र 1661 डाॅक्टर्स की राज्य के अस्पतालों में कार्यरत हैं। स्पेशलिस्ट डाॅक्टरों की स्थिति तो राज्य में और में खराब है। राज्य में स्पेशलिस्ट डाॅक्टर्स से आवश्यकता से बहुत कम मात्र 1268 पद स्वीकृत हैं, लेकिन इनमें से मात्र 385 डाॅक्टर ही सेवाएं दे रहे हैं। राज्य के चिकित्सा चयन बोर्ड द्वारा पिछले वर्षों में कई बाद चयन प्रक्रिया शुरू की गई, लेकिन शासन से स्वीकृति न मिलने के कारण यह प्रक्रिया लगातार पीछे खिसकती रही। जिन कुछ डाॅक्टर्स का चयन संविदा के आधार पर किया गया, उनमें से भी ज्यादातर ने ज्वाइनिंग नहीं दी।

राज्य सरकार समय-समय पर स्वास्थ्य सुविधाओं के बेहतरी के लिए घोषणाएं तो करती है, लेकिन ज्यादातर घोषणाओं पर अमल नहीं किया जाता। राज्य के दुर्गम क्षेत्रों से मरीजों को हाॅस्पिटल पहुंचाने के लिए हेली एंबुलेंस की बात सरकार अकसर हवा में उछालती रही है, लेकिन राज्य के लोगों का यह सपना पूरा होने की फिलहाल कोई संभावना नजर नहीं है। 108 इमरजेंसी सेवा कुछ वर्ष पहले तक राज्य की लाइफ लाइन के रूप में काम कर रही थी, लेकिन अब यह सेवा भी बुरी तरह से तहस-नहस हो चुकी है।

लोगों को टेली मेडिसिल सेवाएं देने के लिए राज्य सरकार ने एक कंपनी के साथ एमओयू किया था, लेकिन अब यह सेवा किस स्थिति में है, कोई नहीं जानता। कुछ महीने पर एक बड़े समारोह के साथ शुरू की गई अटल आयुष्मान उत्तराखंड योजना के भी अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आये हैं और आयुष्मान कार्ड होने के बावजूद योजना से संबंद्ध सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों में इलाज न किये जाने के मामले लगभग हर रोज सामने आ रहे हैं।

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