झिझकती नहीं, सवाल पूछती हैं ये बेटियां

राजस्थान की यह लड़कियां अपने स्वास्थ्य से जुड़ी हर जानकारी हासिल करती हैं और उसके बारे में अन्य युवतियों को भी जागरूक करती हैं
मास्क वितरित करती किशोरियां। फोटो: चरखा फीचर्स
मास्क वितरित करती किशोरियां। फोटो: चरखा फीचर्स
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मनोज कुमार जनागल

राजस्थान की बात जब भी की जाती है तो एक ऐसे प्रदेश की छवि उभरती है, जो रेगिस्तान से घिरा हुआ विश्व प्रसिद्ध पर्यटन का केंद्र है। जहां वीरों की अनेकों गाथाएं आज भी सुनाई देती है। लेकिन आजादी के सात दशक बाद भी इस राज्य की साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से भी कम है। 2011 की जनगणना के अनुसार देश की सबसे कम महिला साक्षरता दर इसी राज्य में दर्ज की गई है। हालांकि धार्मिक मान्यताएं और कुरीतियां अब भी यहां हावी हैं। ऐसे में बालिका शिक्षा और महिलाओं के अधिकार तथा स्वास्थ्य संबंधी विषयों पर कितनी गंभीरता दिखाई जाती होगी, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।

लेकिन बदलते वक्त के साथ इस राज्य में महिलाओं से जुड़े विषयों पर लोगों की सोच में बदलाव आया है। बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ और सुकन्या समृद्धि जैसी केंद्र की योजनाओं के साथ-साथ राज्य सरकार की महिला सशक्तिकरण से जुड़ी अनेकों योजनाओं ने यहां की महिलाओं के जीवन स्तर को संवारने का काम किया है। इसके अतिरिक्त इन क्षेत्रों में काम कर रही कई स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रयासों ने भी बालिका शिक्षा और महिला स्वास्थ्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है। इसका सुखद परिणाम यह है कि अब यहां महिला विशेषकर किशोरियां स्वास्थ्य एवं यौन संबंधी विषयों पर मुखर होकर बात करने लगी हैं। सेनेट्री पैड जैसी जरूरी चीजों की आपूर्ति के लिए प्रशासन तक अपनी बात पहुंचाने लगी हैं।

विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल जोधपुर से 70 किमी दूर ओसियां तहसील इसका एक अच्छा उदहारण है। जहां 5 पंचायतों के 13 गांव में उरमूल ट्रस्ट और सेव द चिल्ड्रन द्वारा चलाई जा रही "शादी बच्चों का खेल नहीं" परियोजना के तहत किशोर किशोरियों को यौन एवं प्रजनन तथा स्वास्थ्य संबंधी विषयों के बारे में जागरूक किया जा रहा है। इसके अंतर्गत पूरे ब्लॉक से 224 किशोर-किशोरियों का चयन कर उन्हें लाइफ स्किल और यौन एवं स्वस्थ्य प्रजनन अधिकार संबंधित विषयों की ट्रेनिंग दी गई। जिन्हें चर्चा लीडर का नाम दिया गया। यह सभी चर्चा लीडर ब्लॉक के 3032 किशोर किशोरियों के साथ 2018 से कार्य कर रहे हैं। 

इस पूरी परियोजना के माध्यम से उरमूल ट्रस्ट द्वारा किशोरियों में यौन और प्रजनन स्वास्थ्य के अधिकार के साथ-साथ उन्हें ललिता-बाबू मॉडल के माध्यम से भी सशक्त बनाने का कार्य किया जा रहा है। याद रहे कि ललिता और बाबू चित्रकथा (कॉमिक्स) के दो ऐसे किशोर-किशोरी का चित्रण है, जो युवाओं में होने वाले शारीरिक परिवर्तन, यौन और प्रजनन संबंधी प्रश्नों का सहज संवाद कर उनका उत्तर देते हैं। सेव द चिल्ड्रन द्वारा तैयार इस हैंडबुक में बाल विवाह, लैंगिक समानता और महिला अधिकारों से संबंधित कानूनों की साधारण अर्थों में व्याख्या भी की गई है। 

इस मॉडल के द्वारा बच्चों और युवाओं को उनकी खुद की राय और पहचान तथा अधिकारों पर विचार करने की संभावना प्रदान की जाती है। जिसे बच्चे और युवा गंभीरता से पढ़ते और समझते हैं। इसका उद्देश्य समानता, न्याय और अधिकारों के आधार पर बच्चों को लैंगिक भेदभाव से भी अवगत कराना है। इस मॉडल का लक्ष्य 10 से 19 वर्ष की आयु के लड़के और लड़कियों को न केवल मानसिक रूप से विकसित करना बल्कि उन्हें सशक्त भी बनाना है।

उरमूल ट्रस्ट की सदस्या संतोष ज्याणी बताती हैं कि पहली बार किशोरियां महिला स्वास्थ्य से संबंधित किसी भी समस्या पर महिला सदस्यों से भी बोलने में शर्म और झिझक महसूस करती थीं, लेकिन यौन एवं स्वास्थ्य प्रजनन अधिकार की ट्रेनिंग के बाद यही किशोरियां अब न केवल माहवारी के समय कपड़े के स्थान पर सेनेटरी नेपकिन का उपयोग करने लग गई हैं बल्कि कॉन्डम ओर गर्भनिरोधक साधन के बारे में भी खुल कर बात करने लगी हैं।

इस संबंध में उरमूल ट्रस्ट के सचिव अरविंद ओझा बताते हैं कि संस्था का मुख्य कार्य ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं और किशोरियों को आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त बनाना है, ताकि बिना झिझक वह अपनी बात कह सकें तथा अधिकारों के प्रति जागरूक बन सकें। सदियों से पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं और किशोरियों को आगे बढ़ने से रोका जा रहा था। वह अपनी बात खुलकर नहीं कह पाती थी और न ही उन्हें बाल विवाह निषेध से जुड़े कानून और यौन तथा स्वास्थ्य प्रजनन अधिकारों से संबंधित कोई जानकारी थी। परंतु इस परियोजना से जुड़ने के बाद वह न केवल अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हुई हैं बल्कि स्वयं आगे आकर अपनी बात रखने में भी सक्षम हुई हैं। 

परियोजना से जुड़ने और ललिता बाबू मॉड्यूल के 13 सत्र पूरे करने तथा यौन व स्वास्थ्य प्रजनन अधिकार के 8 सत्र पूरे करने के बाद अब किशोरियां अपनी बात लिख कर प्रशासन तक पहुंचाने लगी हैं। जिसके परिणामस्वरूप गांव में कई बदलाव हुए हैं। जैसे लॉक डाउन के दौरान गांव में सेनेटरी पैड की कमी होने पर बालिकाएं संकोच करने की जगह एसडीएम को ज्ञापन देकर आपूर्ति की मांग करने लगी हैं।

कोविड-19 वैश्विक महामारी संकट में यह बालिकाएं भी अपनी भूमिका बखूबी निभा रही हैं। ओसिया ब्लॉक के चाइल्ड चैंपियन पोस्टर और चित्रकला के माध्यम से जहां लोगों को जागरूक कर सुरक्षा का संदेश दे रहे हैं वहीं स्टार्टअप सपोर्ट की बालिकाएं घर के पुराने कपड़ों से मास्क बनाकर लोगों को निशुल्क वितरण कर रही हैं। अभी तक बालिकाओं ने 1800 लोगों को घर पर कपड़े के मास्क बनाकर वितरित किए हैं। वहीं उरमूल ट्रस्ट की सदस्या रेणु गॉड स्वयं लॉकडाउन में किशोरियों के बीच सेनेट्री नैपकिन बांट कर ग्रुप का हौसला बढ़ा रही हैं। ताकि समेकित प्रयास से सेनेट्री नैपकिन्स की बाधित सप्लाई सुचारू रूप से शुरू हो सके।

राजस्थान जैसे राज्य जहां महिलाओं को समाज में कमतर आंका जाता है, ऐसे में नई पीढ़ी की किशोरियों का अपने अधिकारों के प्रति आवाज बुलंद करना और यौन तथा प्रजनन संबंधी विषयों पर खुल कर बात करना स्वस्थ्य समाज के निर्माण की दिशा में सकारात्मक कदम माना जा सकता है। वास्तव में स्वस्थ्य और सभ्य समाज की कल्पना तब तक सार्थक नहीं कही जा सकती है, जबतक महिलाओं को भी सभी क्षेत्रों में बराबरी का दर्जा नहीं दिया जाता है। ओसिया ब्लॉक की बेटियों ने अपनी आवाज बुलंद कर इस दिशा में पहल शुरू कर दिया है।

(चरखा फीचर्स)

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