अमलेन्दु उपाध्याय
जिंक सूक्ष्म पोषक तत्वों में शामिल एक प्रमुख घटक है जो मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद जरूरी है। लेकिन, कुपोषण दूर करने के प्रयासों के बावजूद भारतीय आबादी के भोजन में जिंक की मात्रा लगातार कम हो रही है। भारतीय और अमेरिकी शोधकर्ताओं के एक नए अध्ययन में यह बात उभरकर आयी है।
वर्ष 1983 में भारतीय लोगों के आहार में अपर्याप्त जिंक के सेवन की दर 17 प्रतिशत थी जो वर्ष 2012 में बढ़कर 25 प्रतिशत हो गई। इसका अर्थ है कि 1983 की तुलना में वर्ष 2012 में 8.2 करोड़ लोग जिंक की कमी का शिकार हुए हैं।
जिंक के अपर्याप्त सेवन की दर चावल का ज्यादा उपभोग करने वाले दक्षिण भारतीय और पूर्वोत्तर राज्यों, जैसे- केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, मणिपुर और मेघालय में अधिक देखी गई है। इसके पीछे चावल में जिंक की कम मात्रा को जिम्मेदार बताया जा रहा है।
जिंक शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसीलिए, जिंक के अपर्याप्त सेवन से स्वास्थ्य पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ सकते हैं। इसकी कमी से छोटे बच्चों के मलेरिया, निमोनिया और दस्त संबंधी बीमारियों से पीड़ित होने का खतरा रहता है।
जिंक उपभोग में यह गिरावट अस्सी के दशक से कुपोषण समाप्त करने के प्रयासों के बावजूद देखी गई है जो चिंताजनक है। इन प्रयासों में बच्चो में कुपोषण और एनिमिया की रोकथाम और बच्चों तथा माताओं में विटामिन-ए की कमी की दर को नियंत्रित करना शामिल है।
शोधकर्ताओं ने भारतीय आहार पैटर्न पर आधारित विस्तृत सर्वेक्षण आंकड़ों का उपयोग किया है ताकि यह अनुमान लगाया जा सके कि बदलते वातावरण में अपर्याप्त जिंक सेवन की दर कैसे बदल सकती है।
भोजन में जिंक की मात्रा कम होने का कारण भारतीय लोगों के आहार से जौ, बाजरा, चना जैसे मोटे अनाजों का गायब होना भी जिम्मेदार है। इसके अलावा, पैकेजिंग में मिलने वाले चोकर रहित आटे का उपयोग भी जिंक के अपर्याप्त सेवन से जुड़ा एक प्रमुख कारक है।
यह अध्ययन इंडियन इंस्टीट्यूट ऑप पब्लिक हेल्थ, नई दिल्ली, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ बिजनेस, हैदराबाद और अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय एवं हार्वर्ड टीएच चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के शोधकर्ताओं ने मिलकर किया है। अध्ययन शोध पत्रिका फूड ऐंड न्यूट्रिशन बुलेटिन में प्रकाशित किया गया है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि अत्यधिक मात्रा में कार्बन उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग फसलों में जिंक की मात्रा को प्रभावित कर सकती है। कार्बन डाइऑक्साइड का लगातार बढ़ता स्तर कुछ दशकों में 550 पीपीएम तक पहुंच सकता है, जिससे फसलों में जिंक की कमी हो सकती है। इसके साथ ही, खाद्य पदार्थों से कई महत्वपूर्ण पोषक तत्व और रेशे गायब हो सकते हैं।
कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर स्टीवन डेविस, जो इस अध्ययन में शामिल नहीं थे, ने हाल में अपने अध्ययन में पाया है कि जीवाश्म ईंधन का दहन और कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन ऐसे ही जारी रहा तो मानव जनित ग्लोबल वार्मिंग से पैदा भीषण सूखे और गर्मी के कारण जौ की फसल की पैदावार में तेजी से गिरावट हो सकती है।
इस शोध में यह भी रेखांकित किया गया है कि प्रजनन क्षमता में कमी के चलते भारत में जनसांख्यिकी बदलाव होने से बच्चों की अपेक्षा वयस्कों का अनुपात बढ़ा है। वयस्कों की जनसंख्या बढ़ने से औसत भारतीय के लिए जिंक की आवश्यकता पांच प्रतिशत बढ़ गई है क्योंकि वयस्कों को बच्चों की तुलना में अधिक जिंक की आवश्यकता होती है।
इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता स्मिथ एम.आर.के मुताबिक “भारत पोषण और स्वास्थ्य के क्षेत्र में व्यापक सुधार की दिशा में निरंतर प्रयास कर रहा है। लेकिन, भोजन में जिंक की मात्रा बढ़ाने की तरफ ध्यान देना पहले से ज्यादा जरूरी हो गया है।”
इस अध्ययन में स्मिथ एम.आर. के अलावा कोलंबिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ता रूथ डेफ्रीज, इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के अश्विनी छत्रे और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ के मेयर्स एस.एस. शामिल हैं। (इंडिया साइंस वायर)