कोरोना के दौर में घुमंतू समुदाय

मार्च और अप्रैल में राजस्थान के घुमंतू चारे और संसाधन की तलाश में प्रदेश की सीमा को पार करते हैं लेकिन इस बार ऐसा नहीं हो पाया
घुमंतू समुदाय अपने पशुओं को लेकर नहीं निकल पाए हैं। फोटो: उरमूल ट्रस्ट
घुमंतू समुदाय अपने पशुओं को लेकर नहीं निकल पाए हैं। फोटो: उरमूल ट्रस्ट
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संध्या झा

कोरोनावायरस के फैलाव को कम करने के लिए लगाए गए लॉकडाउन ने पहले से बदहाल घुमंतू समुदाय की कमर तोड़कर रख दी है। पशुधन पर आश्रित ये समुदाय अब अपने पशुओं को खिलाने की स्थिति में नहीं है। राइका रैबारी समुदाय ने अपने ऊंटों को खुला छोड़ दिया है। भेड़-बकरी पालक भी हताश हैं। मार्च और अप्रैल में लगे लॉकडाउन ने इन घुमंतुओं को एक स्थान रुकने को मजबूर कर दिया जिससे इनकी सदियों से चली आ रही घूमने की परंपरा पर अचानक विराम लग गया। इस समुदाय पर किसी का ध्यान नहीं है।

घुमंतू कौन हैं?

घुमंतू ऐसे लोग होते हैं जो किसी एक जगह टिककर नहीं रहते बल्कि रोजी-रोटी की तलाश में यहां से वहां घूमते रहते हैं। देश के कई हिस्सों में हम घुमंतुओं को अपने जानवरों के साथ आते-जाते देख सकते हैं। घुमंतू की किसी टोली के पास भेड़-बकरियों का झुंड होता है तो किसी के पास ऊंट या अन्य मवेशी रहते हैं। क्या उन्हें देखकर आपने कभी सोचा है कि वे कहां से आए हैं और कहां जा रहे हैं? क्या आपको पता है कि वे कैसे रहते हैं, उनकी आमदनी के साधन क्या है और उनका अतीत क्या था? अक्सर मान लिया जाता है कि ये ऐसे लोग हैं जिनके लिए आज आज के दौर में कोई जगह नहीं है। जब समय कोरोना महामारी का हो तब शायद ही किसी का ध्यान इस समुदाय की ओर गया हो।  

राजस्थान के घुमंतू

मार्च और अप्रैल में राजस्थान के घुमंतू चारे और संसाधन की तलाश में प्रदेश की सीमा को पार करते हैं। इस बार ऐसा नहीं हो पाया जिससे घुमंतुओं की पूरी व्यवस्था चरमरा सी गई है। घुमंतू कोई अलग समाज नहीं है। इनके और स्थायी निवासियों के बीच आदान-प्रदान के गहरे संबंध चले आए हैं। राजस्थान के सूखे इलाके के घुमंतू राइका, सिंधी, पडिहार, बिलोच आदि चराई के काम में लगते हैं। इनमें से राइका एक अति प्राचीन क्षत्रिय जाति है जिसके मूल सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़े हुए हैं। इस जाति के लोग खेती और ऊंट पशुपालन व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। इनको अलग-अलग नामों से जाना जाता है। राजस्थान के पाली, सिरोही ,जालोर जिलों में रैबारी दैवासी के नाम से जाने जाते हैं। उत्तरी राजस्थान जयपुर और जोधपुर संभाग में इन्हें राइका नाम से जाना जाता है। हरियाणा और पंजाब में भी इस समुदाय  को राइका ही कहा जाता है। गुजरात और मध्य राजस्थान में इन्हें रैबारी, रबारी देसाई गोपालक और हीरावंशी नाम से भी पुकारा जाता है।

राजस्थान के हालात और घुमंतू

कोरोना से प्रभावित राजस्थान के घुमंतू समुदाय के सदस्य महादान राइका का कहना हैं, “पिछले 30 सालों में बड़ी तेजी से परिवर्तन आया है। पहले गांव के किसान खुद कहते थे कि हमारे खेतों में मवेशी को बिठाओ, क्योंकि उससे उन्हें खाद मिलती थी। हर रात के हिसाब से कुछ पैसे भी देते थे। कभी-कभी खाद के बदले में किसान अनाज भी देते थे लेकिन वह प्रथा अब टूटने लगी है।” हाल के वर्षों में गांव के स्थायी निवासी इन घुमंतुओं को मुसीबत मानने लगे हैं। ये घुमंतू पहले जो चीजें बनाते थे, उनके लिए अब गांव वाले इन पर निर्भर नहीं हैं।

राजस्थान के इलाकों में बारिश का कोई भरोसा नहीं होता। होती भी थी तो बहुत कम, इसीलिए खेती की उपज हर साल घटती-बढ़ती रहती थी। बहुत सारे इलाकों में तो दूर-दूर तक कोई फसल होती ही नहीं होती। इसके चलते राइका खेती के साथ-साथ चरवाही का भी काम करते थे। बरसात में तो बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर और बीकानेर के राइका अपने गांवों में ही रहते थे क्योंकि इस दौरान उन्हें वहीं चारा मिल जाता था। अक्तूबर आते-आते ये चारागाह सूखने लगते थे। नतीजतन ये लोग नए चरागाहों की तलाश में दूसरे इलाकों की  निकल जाते थे और अगली बरसात में ही लौटते थे। राइकाओं का एक तबका ऊंट पालता था जबकि कुछ भेड़-बकरियां पालते थे।

क्यों रहे उपेक्षित

घुमंतू  समुदाय आज से नहीं बल्कि अंग्रेजों के जमाने से उपेक्षा का दंश झेल रहे हैं। अंग्रेज सरकार चारागाहों को खेती की भूमि में तब्दील कर देना चाहती थी। भूमि से मिलने वाला लगान से उसकी आमदनी में बढ़ोतरी हो। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक आते-आते देश के विभिन्न प्रांतों में वन अधिनियम भी पारित किए जाने लगे थे। इन कानूनों की आड़ में सरकार ने ऐसे कई जंगलों को आरक्षित वन घोषित कर दिया जहां देवदार या साल जैसी कीमती लकड़ी पैदा होती थी। इन जंगलों में चरवाहों के घुसने पर पाबंदी लगा दी गई। कई जंगलों को संरक्षित घोषित कर दिया गया।

इसके अलावा आज के दौर में हम देखते हैं कि दुनिया के घुमंतू समुदायों पर अलग-अलग तरह के असर पड़े हैं। नए कानूनों और सीमाओं ने उनकी आवाजाही का ढर्रा बदल दिया है। जैसे-जैसे चारागाह खत्म होते गए, जानवरों को चराना एक मुश्किल काम होता चला गया और जो चारागाह बचे थे वे भी अत्यधिक इस्तेमाल की वजह से बेकार हो गए। सूखे के समय उनकी समस्याएं पहले से भी ज्यादा  बढ़ गईं और जानवर बड़ी तादाद में दम तोड़ने लगे। अब उनके आने-जाने पर बहुत सारी बंदिशें थोप दी गई हैं, इसलिए वे नए चारागाहों की तलाश भी नहीं कर सकते।

समय से संघर्ष

परिवर्तन प्रकृति का नियम है, इस बात को चरवाहों से ज्यादा शायद ही कोई समझता हो। ये बदलते वक्त के हिसाब से खुद को ढालते हैं। वे अपनी सालाना आवाजाही का रास्ता बदल लेते हैं, जानवरों की संख्या कम कर लेते हैं, नए इलाकों में दाखिल होने के लिए हर संभव लेन-देन करते हैं और राहत, रियायत व मदद के लिए सरकार पर राजनीतिक दबाव डालते हैं। वे उन इलाकों में अपने अधिकारों को बचाए रखने के लिए अपना संघर्ष जारी रखते हैं जहां से उन्हें खदेड़ने की कोशिश की जाती है।

उम्मीद की किरण

घुमंतू अतीत के अवशेष नहीं हैं। वे ऐसे लोग नहीं हैं जिनके लिए आज के दौर में कोई जगह नहीं है। पर्यावरणवादी और अर्थशास्त्री अब इस बात को काफी  गंभीरता से मानने लगे हैं कि घुमंतू की जीवनशैली दुनिया के बहुत सारे पहाड़ी और सूखे इलाकों में जीवनयापन के लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त है। इसी दिशा में यूनाइटेड नेशन का फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन, नेशनल रेनफेड एरिया अथॉरिटी, भारत सरकार और उरमूल ट्रस्ट के सहयोग से बीकानेर जिला के लुनकरांसर तहसील में चल रहे चारागाह के प्रोजेक्ट के लिए 1 करोड़ 56 लाख की धनराशि स्वीकृत की गई है। वर्तमान में यह प्रोजेक्ट धनिभोपालाराम, कालू, केलान गांव में चल रहा है। इस प्रोजेक्ट के माध्यम से मनरेगा के तहत अधिक से अधिक मजदूरों को रोजगार उपलब्ध हो पाया। चारागाह बनाने में भूमि समतल करना, सहजन, खेजड़ी आडू के पौधे लगाने का कार्य किया जा रहा है। उम्मीद है इसका फायदा घुमंतू समुदाय को मिलेगा।

(लेखिका शोधार्थी उरमूल ट्रस्ट, बीकानेर के साथ द केमल पार्टनरशिप परियोजना के अंतर्गत मीडिया फेलो हैं)

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