कोरोनाकाल में ट्विटर के बाहर की दुनिया की बेबसी

कोविड की तीसरी लहर आने से पहले उम्मीद है सभी लोग मिलकर हमारे समाज से इस 'डिजिटल विभाजन' अथवा इंटरनेट पर पनपने वाली इस असमानता को हटाने का प्रयास करेंगे।
लखनऊ के शवदाह गृह के बाहर खड़े कर्मचारी, जो अपने साथ लाए गए शव को जलाने के लिए बारी का इंतजार कर रहे हैं। फोटो: रणविजय सिंह
लखनऊ के शवदाह गृह के बाहर खड़े कर्मचारी, जो अपने साथ लाए गए शव को जलाने के लिए बारी का इंतजार कर रहे हैं। फोटो: रणविजय सिंह
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देशभर में कोरोना का कहर मचा हुआ है।  होली के तुरंत बाद ही कोरोना के संक्रमण के मामले तेजी से बढ़ने लगे। दिल्ली एवं अन्य राज्यों में आंकड़ों का सिलसिला बढ़ता ही चला गया। डॉक्टर एवं विशेषज्ञ बताते हैं की सेकंड वेव के बाद थर्ड वेव भी आ सकती है यदि ठीक प्रकार से कोरोना से निपटने की रणनीति लागू न की गयी।

हर तरह की किल्लत सड़कों पर देखने को मिली। कई फील्ड एवं स्थानीय पत्रकारों ने अपनी जान जोखिम में डालकर हम तक सोशल मीडिया के द्वारा ज़मीनी हकीकत हम से रूबरू करवाई। अस्पतालों के बाहर बेबसी, सड़कों पर लाचारी। एकाएक पिछले साल मज़दूरों की बेहाल स्थिति याद आने लगी। इस बार मायूसी और तबाही के ऐसे दृश्य देखने को मिले जो शायद एक लम्बे समय तक हम भुला न पाएं।

इस बीच ट्विटर एवं अन्य सोशल मीडिया माध्यमों पर अंग्रेजी भाषा के कुछ शब्द भी बखूबी सुनने को मिले - " please amplify", "leads", "verified  "। कारण यह था की तमाम ऑक्सीजन, प्लाज्मा, दवाई, रेमडेसिविर के इंजेक्शन, अस्पतालों के लिए एम्बुलेंस और बेड तक की गुहार सोशल मीडिया पर लगाई जा रही थी। ज़ाहिर सी बात है यह गुहार वही लोग लगा सकते थे जिनके पास ट्विटर इस्तेमाल करने के साधन अथवा माध्यम रहे होंगे जैसे की इंटरनेट, स्मार्ट फ़ोन और सबसे न्यूनतम - ट्विटर अकॉउंट। जिन लोगों के पास यह समझने की सक्षमता रही होगी की एक ऑनलाइन अकाउंट कैसे बनता है, टैगिंग के विभिन्न मायने क्या हैं ? आखिर टैगिंग होती है तो क्या और कैसे ? टैग करें तो किसे करें? ट्विटर पर अकाउंट कैसे बनता है, वगैरह-वगैरह।

यह कहना गलत नहीं होगा की ऐसे बहुत से लोग जिन्होंने अनजान लोगों से ट्विटर पर चीख कर मदद मांगी अपनी अपनी विकट परिस्थितयों के बीच, उनको सहायता उपलभ्ध करायी गयी। आम लोगों ने, ऑटो ड्राइवर्स, पुलिस वालों ने, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, भाजपा, एवं सभी दलों के युवा नेता, कई सांसद, विधायक, सिविल सेवा के अधिकारी - जिससे जो बन पड़ा उन सब ने एकजुट होकर, राजनैतिक विचारधारा को किनारे कर, हर किसी ज़रुरतमंद तक पहुँचने का प्रयास किया और उनकी मदद करने में सफल भी हुए।

कई पत्रकारों ने भी लोगों की सड़क पर भागते-दौड़ते मदद की और वीडियो के माध्यम से अस्पतालों, जिला प्रशाशनों तक उनकी आवाज़ पहुंचाई। अभिनेता सोनू सूद तो पिछले साल से ही बस, ट्रैन से लेकर खाना, पानी, और इस साल ऑक्सीजन तक हर संभव मदद कर रहे हैं।

लेकिन प्रश्न ये उठता है की उन लोगों का क्या जिनके पास ट्विटर पर गुहार लगाने का विकल्प नहीं है? जिनको पता ही नहीं है की मदद यदि मांगी भी जाए तो किस्से? जिनको ट्विटर का आशय भी ना मालूम हो? आखिर क्यों साल दर साल ऐसा होता आ रहा है की हमारी सारी नीतियां सोशल मीडिया पर ही पनपती नज़र आती हैं? कई ट्वीट्स और पोस्ट्स तो केवल अंग्रेजी में ही होते हैं। शहरी गरीब या गाँव में रहने वाले ऐसे में कहाँ जाएँ, और किस्से उम्मीद रखें? आंकड़ों की माने तो डिजिटल इंडिया ड्रीम जितना भी हमें बेच दिया जाए, ग्रामीण भारत में आज भी ७० प्रतिशत लोग ब्रॉडबैंड इंटरनेट से वंचित है।

बीते वर्षों में अपने खुद के के सोशल सेक्टर के काम में मैंने यह अनुभव किया है की कई लोग स्मार्ट फ़ोन का इस्तेमाल नहीं करते। और जिनके पास वह होता भी है, उन्हें वो इस्तेमाल करना आता नहीं। अगर हम ज़रा अपनी नज़रें ही घुमा के देखें तो आस पड़ोस में ऑटो रिक्शा वाले, घर के काम काज में हमारी मदद करती महिलाएं, मज़दूर, रेहड़ी पर चाय बेचता कोई छोटा दुकानदार, ड्राइवर, सब्जी, फल बेचते हमारे भाई-बहन, सड़क पर बैठा राजस्थान से आया कोई गर्मी के मौसम में हम तक मटका  पहुंचाने वाला, चौकीदार, सफाई करते कर्मचारी - इनमे से अधिकतर लोगों के पास स्मार्ट फ़ोन्स शायद नहीं पाए जाएंगे।

इनमें से अधिक्तर लोगों के पास एक बुनियादी स्तर पर इस्तेमाल किये जाने वाला फ़ोन मिलेगा जिसमे कीपैड होगा, सन्देश भेजने एवं कॉल्स उठाने और करने की सुविधा होगी। लेकिन इंटरनेट की 2G  3G एवं एप्प वाली दुनिया से वे कोसों दूर होंगे। यदि गलती से स्मार्ट फ़ोन या कंप्यूटर मिल भी जाए तो लोगों को उन्हेंठीक प्रकार से  इस्तेमाल करना नहीं आता होगा और वो आत्मनिर्भर नहीं बल्कि अपने आस-पास अंग्रेजी बोलते हुए नौजवानों पर निर्भर मिलेंगे। कई लोगों से जिनसे बीते कई वर्षों में मिली हूँ, उनको तो अपना फ़ोन नंबर भी याद नहीं था। अपने आप को मिस्ड कॉल देकर फिर उनका नंबर पता चल पाता था।

ऐसा तो है नहीं की यह सब हमसे अनदेखा रहा है। खासतौर पर पिछले लॉकडाउन में जिस प्रकार गरीबी और बेबसी का सैलाब हमारी आँखों के सामने उमड़ा। फिर क्यों हम आँखें होते हुए भी संवेदनहीन और दृष्टि विहीन बने हुए हैं?

पिछले साल भी जब सरकार ने प्रवासी मज़दूरों के लिए ट्रैनें  चलवाई थीं तब भी कई लोगों को अपना फॉर्म भरने में मुश्किल हो रही थी। आमतौर पर भी कई योजनाएं जो वन टाइम पासवर्ड (ओटीपी)  मांगती हैं वहां भी एक कम पढ़े लिखे व्यक्ति को परेशानी होती है। याद करिये की आपके और हमारे परिवार में जब पहली बार कोई बड़े-बूढ़े विदेश गए हों, जहाँ अपनी भाषा नहीं बोली जाती, और जहाँ कुछ भी समझने में परेशानी होती है। श्रीदेवी की फिल्म 'इंग्लिश विंग्लिश' में इस विडम्बना को बखूबी  और  बेहद पारदर्शिता के साथ दर्शाया गया है।

हम तो कह देते हैं ऑनलाइन फॉर्म भर लीजिये, लेकिन पिछले साल ऐसे कई लोगों की परेशानी सामने आयी जिन्हे समझ ही नहीं आया की फॉर्म कैसे भरना है शुरूआती दिनों में। पैदल चलते ऐसे कई मज़दूर थे जो वर्षों से छोटा रिचार्ज ही कराते आये हैं, क्योंकि उनके पास इतने पैसे ही नहीं होते, देहाड़ी पर काम करने के कारण। प्रवासी होने के नाते यह छोटे-छोटे रिचार्ज कराकर अपने गांव में रहते अपने परिजनों से बात करते हैं। अब जब एक दम से लॉकडाउन जारी किया गया, तो इनमे से कई लोगों के पास फ़ोन में रिचार्ज नहीं था, रिचार्ज हो तो बैटरी नहीं थी, बैटरी हो तो पैदल चलते-चलते सड़कों पर चार्ज करने का प्लगपोइन्ट नहीं था। 

टीकाकरण अभियान भी ऑनलाइन रजिस्ट्रशन के तहत शुरू किया गया है। हालांकि जिनके पास ऑनलाइन माध्यम नहीं है वो स्वास्थ्य कार्यकताओं की मदद से स्वयं सेंटर पर जाकर टीका लगवा सकता है, लेकिन ऑनलाइन ग्रुप्स एवं "बोट्स" के चलते कई ऐसे लोग भी जिनके पास दुनियाभर का इंटरनेट है वे भी तत्काल  पंजीकरण नहीं करा पा रहे हैं।

तमाम ऐसे वाकये समाज में होने वाले एक बहुत ही जटिल डिजिटल विभाजन की और हमारा ध्यान खींचते हैं। ऐसे में उन लोगों को क्या करना चाहिए जिनके पास यह माध्यम नहीं हैं? क्या हम महात्मा गाँधी का कहा भूल गए की भारत अपने गांवों में बसता है? क्या हम साल दर साल आने वाले आकंड़े भूल गए की भारत में 90 प्रतिशत लोग से ज़्यादा आज भी इनफॉर्मल सेक्टर के ही मोहताज हैं?

काम-काज के दौरान ऐसे कई शहर में रहते लोगों से मिली हूँ जिन्हें आज भी पूरी तरह लिखना या पढ़ना नहीं आता और गली-गली धक्के खाते, बिचौलियों को पैसे देते हुए अपना काम करवाते हैं। अब ऐसे में मान लीजिये ऐसा व्यक्ति जिसके पास सूचना, साधन, भाषा एवं माध्यम नहीं हैं और उसको तत्काल प्रभाव से किसी मदद की आवशयकता हो वह क्या करेगा या करेगी?

ट्वीट ? या पोस्ट? व्हाट्सप्प शेयर ? और वो जिसको ट्वीट नहीं करना आता हो, वो ? जिसके पास कम फॉलोवर है या जिसके पास "ब्लू टिक" नहीं है वो ?

यह सवाल कोई पूछता ही नहीं क्योंकि हम मान के बैठ चुके हैं की सभी के पास ट्विटर, इंस्टाग्राम, और फेस बुक है। और अगर है भी तो हम यह मान बैठे हैं की वे हमारी तरह चौबीस घंटे कहीं से भी कुछ भी 'एक्सेस' कर सकते हैं।  ऐसा इसलिए क्योंकि काफी हद तक 'गवर्ननेंस' सोशल मीडिया पर आउटसोर्स की जा चुकी है। क्या हमारे पॉलिसी मेकर्स को यह समझ  नहीं आता की एक दुनिया ट्विटर के उस पार भी है? जहाँ बिजली नहीं आती, जहाँ पीने और खाने के लाले पड़े होते हैं, लोग देहाड़ी पर हाशिये पर जीवित रहते हैं, जहाँ महिलाएं अपनी पायी-पायी बचा कर अपना घर चलाती हैं, और जहाँ सोशल मीडिया पर नीति-निर्माण क्या होता है यह जानने के लिए हर समय इंटरनेट से जुड़े होना आवश्यक होता है?

आखिर क्यों सारे संवाद सोशल मीडिया पर हो रहे हैं?

कोरोना गरीब -अमीर में फर्क नहीं करता। लेकिन कोरोना से लड़ने की तैयारी ज़रूर करती है।  क्या हर किसी के पास सैनिटाइज़र या स्प्रे खरीदने के ज़रिये हैं ? हैं भी तो क्या हर किसी के पास सूचना हर समय परस्पर उपलब्ध है? क्या हर एक के पास हर रोज़ एक नया मास्क खरीदने की सक्ष्मता है? लुटियन जोन के कई अमीरत तो गरीबी पर बात करते करते हैंडलूम के मास्क भी पहने दीखते हैं। खैर यह और बात है इसके जरिये वे शायद किसी ग्रीन हस्तशिल्प कलाकार का पेट भर रहे हों।

लेकिन मूल मुद्दे की बात की जाए तो 'इनफोडेमिक' गरीब के लिए तब होगा जब गरीब के पास उस सूचना से चौबीस घंटे जुड़े रहने के जरिये हों। और यह तब संभव होगा जब उसके पास रोटी कमाने के अलावा कुछ और सोचने या करने का समय हो? जैसे की ट्वीट करने का समय और साधन।

नीति निर्माताओं या पॉलिसी मेकर्स के पास इन सवालों के जवाब कब आएंगे? आखिर क्यों ऐसी आपातकालीन स्थिति में पॉलिसी जो एक मुफ्त पब्लिक गुड की तरह होनी चाहिए, वह इतनी चयनात्मक ढंग से चल रही है ? शीशों के महलों में रहने वालों तक बेबसों की पीड़ा और अभाव  के आशय आखिर क्यों नहीं पहुंचा करते?

आखिर क्यों सारे संवाद, संवेदनाएं, सांत्वनाएं केवल एक ही भाषा में हो रही हैं जिसके मायने एक गरीब तक समय रहते नहीं पहुँच सकते? सोशल मीडिया के कांच के महलों से कोसों दूर बाकी भाषाओँ और उनमें महसूस होने वाली पीड़ाओं का क्या ?

तीसरी लहर आने से पहले उम्मीद है सभी लोग मिलकर हमारे समाज से इस 'डिजिटल विभाजन' अथवा इंटरनेट पर पनपने वाली इस असमानता को हटाने का प्रयास करेंगे। सोशल पॉलिसी को जल्द ही इन भेदभावों को मिटाने की ज़रुरत है। यह एक कटु सत्य है की सोशल मीडिया के बिना अब हम रह नहीं  सकते क्योंकि वह हमारे वातावरण का एक अपरिहार्य हिस्सा है। इसीलिए यह आवश्यक है की सभी लोगों को इसका इस्तेमाल करना आना चाहिये उनकी अपनी भाषा में।

इक तरफ़ा संवाद हमेशा संवेदनाओं से परे होता है। विकास एवं लोकतंत्र के लिए सुनना आवशयक है। हाशिये पर रहने वालों के साथ एक 'डायलाग' आवश्यक होता है ताकि वो अपने आप को अनाथ महसूस न करें, ताकि वे भी अपने आपको उस समाज का हिस्सा समझें जो ट्विटर के उस पार रहता है।

(ब्लॉग में लेखक के निजी विचार हैं।)

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