फोटो: आईस्टॉक
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‘वीकेंड’ की संस्कृति या पूंजीवाद का तर्कसंगत उपाय

पूंजीवाद केवल आर्थिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक और सामाजिक तंत्र भी है
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क्या हमारे दादाजी ‘वीकेंड’ पर मस्ती करते थे? क्या हमारी दादी मां रविवार को कुछ अधिक देर तक सोती रहती थी? क्या वे कभी कहते थे कि आज कुछ नहीं करूंगा/करुंगी और बस बिछावन पर ही रहूंगा/रहूंगी? क्या वे  किसी दिन खेतों पर जाने से मना कर देते थे? क्या वे किसी रविवार सूरज को देखना पसंद नहीं करते थे?

क्या किसी खास दिन वे सुबह की ताजी हवा लेने से परहेज करते थे? क्या वे कभी कहते थे कि आज हम अपनी दिनचर्या को निष्क्रिय कर देते हैं- कोई काम नहीं, बस आराम और आराम? जवाब होगा- नहीं I

उनकी दिनचर्या आमतौर पर नहीं बदलती थी I वे हर दिन सुबह उठते थे, और फिर खेतों पर जाते रहे होंगे, या फिर और जो कोई भी कार्य रहा हो करते रहे होंगे I फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि हमने रविवार को सूरज देखने से मना कर दिया? जब कभी मौका मिला अपने कार्यों से मुक्त होने का बहाना हमने ढूंंढ़ लियाI

हमने बस बिछावन पर पड़े रहने का तय किया, या फिर और भी अनेक ऐसे मौके तलाशें जब हम अपने दायित्वों से बच निकलने का बहाना ढूंढ़ सके I यह आलस, यह टालमटोल, यह अनुत्पादकता से भरी दिनचर्या, यह बिना कुछ कार्य किये समय को बस बर्बाद कर देने की प्रेरणा आखिर हमारे समाज की चेतना में पनपी कैसे? समाज की यह प्रवृति शुरू होती है पूंजीवाद के उदय के साथ I

समाजशास्त्री जिग्मंड बोमेन लिखते हैं- ‘प्रोक्रासटिनेशन इज दी प्रोडक्ट ऑफ दी केप्टिलिज्म’; यानि ये आलस, और टाल-मटोल की प्रवृति पूंजीवाद की उपज है I इससे पहले इस स्तर पर आलस का उत्सव नहीं मनाया जाता था I यह पहली बार है जब अनुत्पादकता और निष्क्रियता विधिसम्मत घोषित की गई है- और आराम का दिन निर्धारित किया गया है I

हमारे पूर्वजों के लिए सारे दिन समान थे I सारे दिन आनंद के थे- आराम के थे I सारे दिन उत्पादन के थे I इसलिए आनंद के दिन ‘वीकेंड’ या रविवार या कोई अन्य बंदी का दिन नहीं हुआ करता था I यह तो हमारे अतीत का हिस्सा शायद ही रहा हो I वे खेतों में काम करते हुए भी सामाजिक जीवन का सुख ले रहे होते थेI अर्थ-व्यवस्था उनके जीवन के अन्य आयामों से अलग नहीं थी I

कार्ल-पोल्यानी के शब्दों में कहें तो उनकी संस्कृति ही उनकी अर्थव्यस्था थी I इसलिए ‘अलगाव’, ‘कार्यों से विरक्ति’ आदि का भाव ही विकसित नहीं हो पाता था I एक लोहार को अपने व्यवसाय से प्रेम था, एक बढई भी अपने कार्य के प्रति समर्पित था, एक किसान के लिए खेत और फसले उनकी संताने थी- लोगों का कार्य उनका अस्तित्व था I आज पूंजीवाद के इस दौर में हममे से शायद ही कोई अपने कार्यों से खुश हैI

उसका कार्य उसकी आजीविका मात्र है I कार्यों के दौरान वह अपने व्यक्तिगत या समाजिक-संसार से अलग-थलग हो जाता है, क्योंकि अब अर्थव्यवस्था और समाज-संस्कृति अलग-अलग और विरोधी इकाई की तरह है I इसके आलावा पूंजीवादी आर्थिक संरचना के कई अन्तर्निहित दोष हैं जिस कारण कार्यों से बचने की ऐसी प्रवृति या उससे विरक्ति पैदा हुई है I  

पूंजीवाद केवल आर्थिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक और सामाजिक तंत्र भी है, जो व्यक्तियों के जीवन, मूल्य प्रणाली और व्यवहार को प्रभावित करता है I ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो ‘प्रोकास्टिनेशन’ को नैतिक दोष और पाप माना गया है I 1700 के दशक में जोनाथन एडवर्ड्स ने इसे ‘आत्मिक-पतन’ और ‘नर्क का मार्ग’ बताया, जबकि औद्योगिक युग में बुकर ट. वाशिंगटन ने इसे ‘आर्थिक और नैतिक विकास की बाधा’ माना I उस समय इसे केवल व्यक्तिगत दोष या आलस्य माना जाता था I

वेबर ने अपनी पुस्तक दी प्रोटेस्टेंट एथिक्स एंड दी स्पिरिट ऑफ केप्टिलिज्म में इस विचार को आगे बढ़ायाI उन्होंने कहा कि ‘प्यूरीटन धर्म’ में “कॉलिंग” या ‘ धार्मिक  वोकेशन ‘ का विचार व्यक्ति को लगातार मेहनत करने और अपने कार्य को ईश्वर की सेवा के रूप में देखने के लिए प्रेरित करता है I

इस दृष्टिकोण से न केवल नैतिक और धार्मिक अनुशासन की संस्कृति विकसित हुई, बल्कि यह पूंजीवादी कार्य नैतिकता का भी आधार बनी I इसी कारण ‘प्रोकास्टिनेशन’ को नैतिक दोष और आत्म-संयम की कमी के रूप में देखा गया, जबकि नियमित और परिश्रमी जीवन को आध्यात्मिक सफलता और ईश्वर की कृपा से जोड़ा गया I

आज के सामाजिक और ऐतिहासिक संदर्भ में अगर इसे समझाने का प्रयास किया जाये तो कि ‘प्रोकास्टिनेशन’ केवल व्यक्तिगत कमजोरी नहीं है, बल्कि पूंजीवादी संरचना और सामाजिक परिस्थितियों का परिणाम है I उत्तर-औद्योगिक युग में कार्य अधिक असंरचित और आत्म-निर्मित हो गया है I कार्य के परिणाम का अस्पष्ट होना हमेशा अतिरिक्त मेहनत की कार्य संस्कृति की तरफ ले जाती है I ऐसे हालात में व्यक्ति मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए भी कार्य से टालमटोल करता है I यह आलस्य सहज और तर्कसंगत प्रतिक्रिया बन जाती है, न कि व्यक्तिगत दोष I

इसे अगर सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाये तो पूंजीवाद व्यक्तियों को लगातार उत्पादन और प्रतिस्पर्धा के चक्र में फंसाता है I “हसल कल्चर” में सफलता लंबे कार्य घंटों और निरंतर उपलब्धता से जोड़ी जाती है, जबकि विनोद और मानसिक विश्राम को समय की बर्बादी माना जाता है I यहां ये भी समझाना जरुरी है कि भारतीय अर्थ में विनोद और आंग्ल अर्थ विलास में काफी बुनियादी अंतर है I   

प्रारंभ में ‘प्रोकास्टिनेशन’ एक सांस्कृतिक विरोध और मानसिक संरक्षण के रूप में प्रकट होता है, लेकिन समय के साथ, यह धीरे-धीरे आदत, अनिवार्य व्यवहार और आत्मगत अवस्था बन जाता है I व्यक्ति का मन लगातार तनाव और दबाव के बीच उलझा रहता है I आलस्य केवल बचाव तंत्र नहीं रह जाता, बल्कि मानसिक जीवन का स्थायी हिस्सा बन जाता है I

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ‘प्रोकास्टिनेशन’ आत्म-संदेह, असफलता के डर और आंतरिक संघर्ष का परिणाम है I जोसेफ फेरारी  के अनुसार, यह आत्म-विनाशकार प्रवृति व्यक्ति की पूरी क्षमता को प्रभावित कर सकती हैं I इस प्रवृति के माध्यम से व्यक्ति की पूरी क्षमता को प्रभावित कर सकता है I पूंजीवादी दबाव, असमानता और कार्य के परिणाम का अस्पष्ट होना मनोवैज्ञानिक तनाव बढ़ाता है I इस प्रक्रिया में, ‘प्रोकास्टिनेशन’ मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बनाए रखने का एक तर्कसंगत उपाय बन जाता है I अन्य शब्द में कहे तो यह ‘कोपिंग-मेकनिज्म’ की तरह कार्य करता है I

परम्परागत मार्क्सवादी दृष्टि से अगर इसे समझने की कोशिश की जाए तो पूंजीवाद श्रमिकों को उनके श्रम से अलग करता हैI लाभ असमान रूप से वितरित करता है, और वर्ग संघर्ष एवं आदर्श हीनता  उत्पन्न करता हैI असमानता और सामाजिक शोषण अनुत्पादकता और आलस्य को सामाजिक रूप से निर्धारित करते हैंI

आधुनिक भारत में, पूंजीवादी उदारीकरण और वैश्वीकरण ने ‘विनाशक-उत्पादकता’ को बढ़ावा दिया है, जिससे युवा वर्ग मानसिक थकान, ‘बर्नआउट’ और असंतोष का शिकार हो जाता है, जबकि हाशिए वाले समूहों में आलस्य और अनुत्पादकता सामाजिक शोषण का परिणाम बनती है I

सामान्य तौर पर अगर पूंजीवाद के सन्दर्भ में इसे विश्लेषित किया जाये तो  एक सामाजिक सांस्कृतिक उत्पादकीय व्यवस्था के रूप में पूंजीवाद व्यक्तियों में आलस्य सामाजिक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं  मनोवैज्ञानिक दृष्टि  से उत्पन्न करता है, जहां सामाजिक-ऐतिहासिक दृष्टि से श्रमिकों को उनके श्रम से अलग कर लाभ का असमान वितरण करता है वही सांस्कृतिक दृष्टि से ‘हसल-कल्चर’, उपभोक्तावाद और विनोद की उपेक्षा के माध्यम से मानसिक और सांस्कृतिक दबाव डालता हैI

इसके साथ ही मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अगर देखा जाये तो पूंजीवादी व्यवस्था आत्म-संदेह, असफलता का डर और तनाव  को उत्पादित करती है जिससे  ‘प्रोकास्टिनेशन’ एक तर्कसंगत मानसिक प्रतिक्रिया के रूप में फलता फुलता हैI

उपरोक्त संदर्भो की सामान्य समन्वित समझ ‘प्रोकास्टिनेशन’ को केवल व्यक्तिगत दोष या आलस्य नहीं मानती है; बल्कि इसे पूंजीवादी दबाव, सामाजिक-संरचना और सांस्कृतिक मानदंडों के प्रति सहज, मानसिक और सांस्कृतिक संरक्षण की प्रतिक्रिया के रूप में देखने की वकालत करती है I प्रारंभ में यह केवल विरोध और सुरक्षा का साधन था, लेकिन समय के साथ यह अनिवार्य और आत्मगत अवस्था बन जाती है, जो आधुनिक या उत्तर आधुनिक जीवन में व्यक्तियों की मानसिक और सांस्कृतिक स्थिति को परिभाषित करता है I

यही कारण है कि आज भी ‘प्रोकास्टिनेशन’ की प्रवृति गांवों में कम है, और नगरों में अधिक I गांवों में पूंजीवाद जैसे-जैसे फैल रहा है वैसे-वैसे यह चरित्र उसके भीतर भी तेजी से विकसित होता जा रहा है I

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