महिला दिवस पर विशेष: रेशों से बुन रहीं जिंदगी

केले के 80 फीसदी बेकार समझे जाने वाले हिस्से से महिलाएं रेशा निकालकर आकर्षक उत्पाद तैयार कर रहीं
उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जिले में केले के रेशे से तैयार ज्वैलरी और हैंडीक्राफ्ट उत्पादों की प्रदर्शनी व बिक्री (फोटो: विवेक मिश्रा \ सीएसई)
उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जिले में केले के रेशे से तैयार ज्वैलरी और हैंडीक्राफ्ट उत्पादों की प्रदर्शनी व बिक्री (फोटो: विवेक मिश्रा \ सीएसई)
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नजदीक के केले के खेत से एक ट्रैक्टर में पेड़ के तने लदकर श्रावस्ती के मोहम्मदपुर गांव में पहुंच गए हैं। बौद्धांचल स्वयं सहायता समूह की महिलाओं के बीच हलचल तेज हो गई हैं। अब समूह की कुछ महिलाओं का काम इन तनों को बीच से काटकर एक बिजली चालित मशीन में डालकर रेशों को निकालना होगा। वहीं, समूह की कुछ महिलाएं इन रेशों को सुखाएंगी और कुछको इन रेशों को रंगना होगा।

अंत में ग्रामीण हस्त उत्पाद बनाने वाली कुशल महिलाएं इन रेशों से टिकाऊ उत्पाद तैयार करेंगी। यह सारा काम अब इन स्वयं सहायता समूह की महिलाओं के लिए रोजमर्रा के आजीविका का काम हो गया है। वह केले के पेड़ में बेकार समझे जाने वाले कृषि अवशेष से ऐसे पर्यावरण हितैषी उत्पाद तैयार कर रही हैं जो श्रावस्ती आने वाले पर्यटकों और आस-पास के शहरों में न सिर्फ काफी पसंद किया जा रहा है बल्कि उनकी आजीविका के लिए एक प्रमुख औजार बन गया है।

बौद्धांचल स्वयं सहायता समूह की नींव रखने वाली तेजस्वी पाठक बताती हैं, “गांव में लोग पहले से ही टिकाऊ जीवनशैली जी रहे हैं। उन्हें पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचाने वाले उत्पादों का महत्व बताने पर बात ज्यादा जम नहीं रही थी। हम स्वयं सहायता समूह के जरिए पर्यावरण हितैषी काम करना चाहते थे। जब हमारे दैनिक और फैशन संबंधी उत्पादों के खरीददार मिलने शुरू हुए तो गांव की महिलाओं ने भी इसमें दिलचस्पी दिखाई। अब गांव में 50 महिलाएं स्वयं सहायता समूह से जुड़ी हैं जिन्हें पर्यावरण हितैषी और टिकाऊ जीवनशैली वाले उत्पाद बनाने में महारथ हासिल हो गई है।”

तेजस्वी ने कर्नाटक के बंग्लुरू में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी से कोर्स किया और कोरोना संकट के वक्त देश के सबसे गरीब माने जाने वाले जिले श्रावस्ती को मोहम्मदपुर गांव में महिलाओं के बीच काम करने का निर्णय लिया। कोरोना संकट के वक्त वह बंग्लुरू की एक निजी कंपनी के लिए घर से काम कर रही थीं। इस दौरान उन्हें केले और जूट से उत्पाद तैयार करने वाली एसएचजी बनाने का ख्याल आया और वह इस काम में लग गईं। फरवरी से मार्च, 2022 के बीच गांव की महिलाओं को जुटाया और उन्हें क्राफ्ट का प्रशिक्षण देकर सक्षम बनाया। वह बताती हैं बौद्धांचल समूह जूट और केले के रेशों से बैग, टोकरी, ज्वैलरी, चप्पल और अन्य दैनिक उत्पाद तैयार करके बिक्री करती है।

बौद्धांचल स्वयं सहायता समूह जनवरी, 2022 से काम कर रहा है लेकिन इसने रफ्तार तब पकड़ी जब जिले के भूमि संरक्षण अधिकारी डॉक्टर शिशिर वर्मा ने महिलाओं को अक्तूबर, 2022 में केले के रेशे निकालने वाली मशीन दी। शिशिर वर्मा के मुताबिक केले के खेतों में पेड़ का 80 फीसदी भाग कचरे के रूप में फेंक दिया जाता था। जबकि इसके तने से रेशे निकालकर उनका उपयोग किया जा सकता है।

स्वयं सहायता समूह को शुरुआत में पश्चिम बंगाल से जूट और गोरखपुर से केले के रेशे मंगाने पड़ते थे। लेकिन मशीन आने के बाद महिलाओं ने पास में ही केला किसानों से कृषि अवशेष के लिए करार कर लिया है। समूह की प्रमुख आर्टिसन अरुणिमा पांडेय बताती हैं कि अब वह कई अन्य समूहों को इसका प्रशिक्षण दे रही हैं। गांव में क्राफ्ट सीखने के लिए महिलाएं लगातार आगे आ रही हैं।

समूह की सदस्य माधुरी कुमारी बताती हैं कि उनके पति ने शराब के चक्कर में समूचे खेत बेच दिए। घर में जो सरकारी अनाज आता था, उसका कुछ हिस्सा ताजी सब्जी खरीदने के लिए बेचना भी पड़ता था। चार बच्चे हैं जिनकी पढ़ाई-लिखाई ठप हो गई थी। समूह में क्राफ्ट प्रशिक्षण लेने के बाद से अब वह प्रतिमाह से 7 से 10 हजार रुपए कमा लेती हैं। वह बताती हंै कि एक किलो केले के रेशे की लागत 150 रुपए के आसपास आती है और इससे 500 रुपए की कीमत का उत्पाद वह तैयार कर लेती हैं। करीब 350 रुपए उनके पास आ जाते हैं।

बौद्धांचल समूह पर्यावरण हितैषी उत्पाद तैयार करके महीने में 1 से 1.5 लाख रुपए तक अर्जित कर रहा है। श्रावस्ती का मोहम्दपुर गांव राप्ती नदी के बाढ़ से प्रभावित है। यहां का मूल पेशा कृषि और रोजगार है। महिलाएं ज्यादातर खेती-किसनी के काम में लिप्त रहती हैं। लेकिन महिलाओं के बीच क्राफ्ट के हुनर ने उम्मीद की एक नई रोशनी पैदा कर दी है।

समूह की सदस्य माधुरी कुमारी बताती हैं कि उनके पति ने शराब के चक्कर में समूचे खेत बेच दिए। घर में जो सरकारी अनाज आता था, उसका कुछ हिस्सा बेचना भी पड़ता था। चार बच्चे हैं जिनकी पढ़ाई-लिखाई ठप हो गई थी। समूह में क्राफ्ट प्रशिक्षण लेने के बाद से अब वह प्रतिमाह से 7 से 10 हजार रुपए कमा लेती हैं। वह बताती हं कि एक किलो केले के रेशे की लागत 150 रुपए के आसपास आती है और इससे 500 रुपए की कीमत का उत्पाद वह तैयार कर लेती हैं। करीब 350 रुपए उनके पास आ जाते हैं।

उत्तर प्रदेश में केंद्र की योजनाओं के अलावा राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन के जरिए कई महिला समूहों को गैर कृषि कार्यों के उद्यम से भी जोड़ा जा रहा है। मिसाल के तौर पर घर-घर पोषण पहुंचाने का काम हो या फिर सस्ती दर पर ऋण मुहैया कराने की बात हो। खासतौर से कोविड के बाद राज्य सरकार ने कई कृषि उद्यमों से महिलाओं को जोड़ा है। इस वक्त राज्य में करीब 6.90 लाख पंजीकृत एसएचजी है।

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