तफ्तीश: कोविड-19 की दूसरी लहर के लिए दोषी कौन?

भारत में कहर बरपाने वाली कोविड-19 की दूसरी लहर के क्या कारण रहे? हमने शुरुआती संकेतों को कैसे नजरअंदाज कर दिया? और हम अब भी सबक सीखने को तैयार क्यों नहीं हैं?
फोटो: रॉयटर्स
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भारत में कोविड-19 की दूसरी लहर के लिए आखिर जिम्मेवार कौन हैं। यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने एक व्यापक तफ्तीश की। इसमें दिल्ली से रिचर्ड महापात्रा, बनजोत कौर, विभा वार्ष्णेय, शगुन कपिल, किरण पांडे, विवेक मिश्रा और रजित सेनगुप्ता के साथ वाराणसी से ऋतुपर्णा पालित, भोपाल से राकेश कुमार मालवीय, नुआपाड़ा से अजीत पांडा, तिरुवनंतपुरम से केए शाजी, कोलकाता से जयंत बसु, अहमदाबाद से जुमाना शाह, बंगलुरु से तमन्ना नसीर और चेन्नई से ऐश्वर्या सुधा गोविंदराजन ने रिपोर्ट की। पढ़िए, एक सारगर्भित रिपोर्ट-

100 घंटे। उत्तर-पूर्वी दिल्ली के भजनपुरा के रहने वाले सुधीर महाजन के लिए ये 100 घंटे उनकी जिन्दगी के सबसे खौफनाक क्षण थे। इन 100 घंटों में उन्होंने अपने माता-पिता और छोटे भाई को कोविड-19 की वजह से खो दिया था। वह कहते हैं, “मेरे माता-पिता ऑक्सीजन की कमी के कारण बिना अस्पताल गए ही मर गए। जब मैं उनके दाह संस्कार की व्यवस्था कर रहा था, मेरे पड़ोसी ने मुझे बताया कि मेरे भाई को सांस लेने में तकलीफ हो रही है।” महाजन कहते हैं कि मुझे अपने भाई को लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल में भर्ती कराने में लगभग एक दिन लग गया। अस्पताल के बाहर ही वॉलंटियर्स ने उन्हें ऑक्सीजन सहायता दी।

अस्पताल में भर्ती होने के कुछ घंटे बाद ही डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। 24 अप्रैल को यमुना तट पर बने एक अस्थायी श्मशान घाट में अपने भाई के अंतिम संस्कार की प्रतीक्षा कर रहे महाजन कहते हैं, “वह सिर्फ 29 साल का था। ये तीन मौतें 19 अप्रैल से 22 अप्रैल के बीच हुईं। पहले आप अस्पताल में भर्ती होने की प्रतीक्षा करें, फिर उपचार, फिर ऑक्सीजन के लिए और जब मौत हो जाए, तब दाह संस्कार के लिए भी प्रतीक्षा।” महाजन ने डाउन टू अर्थ (डीटीई) को बताया कि मेरा नाम और फोन नंबर लिए बिना ही मुझे शव को श्मशान में छोड़ने के लिए कहा गया था। मैंने दो दिन इंतजार किया। जब किसी ने फोन नहीं किया, तो मैंने श्मशान में आकर इंतजार करने का फैसला किया। मैं यहां लगभग 10 घंटे से हूं। अगर हमें ऑक्सीजन नहीं मिल सकता तो हम और क्या उम्मीद कर सकते हैं?

दिल्ली पूरे अप्रैल ऑक्सीजन के लिए तरसती रही। जैसे-जैसे कोविड-19 के मामले बढ़े, वैसे-वैसे अस्पताल में भर्ती होने वालों की संख्या भी बढ़ी। डॉक्टरों का कहना है कि पिछले साल के उलट, दूसरी लहर में कोविड-19 रोगियों में फेफड़ों की गंभीर सूजन होती है, जो नए वायरल सार्स-सीओवी-2 वेरिएंट के कारण हो सकता है। ऐसा लगता है कि म्यूटेंट स्ट्रेन संक्रमण के पहले दिन ही फेफड़ों में सूजन का कारण बन जाते हैं और तीसरे दिन तक, शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली साइटोकिंस स्टॉर्म पैदा करती है। साइटोकिंस ऐसे प्रोटीन हैं, जो शरीर की अपनी ही कोशिकाओं और ऊतकों को मारने के लिए प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा तैनात की जाती है। साइटोकिंस स्टॉर्म के परिणामस्वरूप फेफड़े में सूजन हो जाती है, फेफड़ों को गंभीर नुकसान होता है और अंततः हाइपोक्सिया हो जाता है।

यह एक ऐसी स्थिति है, जिसमें शरीर या शरीर का एक क्षेत्र पर्याप्त ऑक्सीजन आपूर्ति से वंचित हो जाता है। ऐसे में रोगी को सांस लेने में मदद करने के लिए मेडिकल ऑक्सीजन (विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार कम से कम 82 प्रतिशत शुद्ध ऑक्सीजन) महत्वपूर्ण है। कोलकाता के पीयरलेस अस्पताल के क्रिटिकल केयर विशेषज्ञ अजय सरकार का कहना है कि दूसरी लहर कई मायनों में पहली से अलग है। वह कहते हैं, “संक्रमण बहुत अधिक है, जिसके कारण पहली लहर की तुलना में संक्रमण में इतनी अधिक वृद्धि हुई है। ऐसा लगता है कि वायरस पहले की तुलना में बहुत तेजी से फेफड़ों पर आक्रमण कर रहा है, जिससे ऑक्सीजन की आवश्यकता बढ़ रही है।” कोलकाता के ही पल्मोनोलॉजिस्ट अरूप हलदर सरकार से सहमत होते हुए कहते हैं कि पहले की तुलना में, अस्पतालों में ऑक्सीजन पर निर्भर गंभीर रोगियों की संख्या बहुत अधिक है।

अमेरिका के जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सिस्टम साइंस एंड इंजीनियरिंग के अनुसार, इस तरह की स्थिति वाले मरीजों की संख्या पूरे अप्रैल भर बढ़ती रही। दिल्ली के अस्पतालों में हर रोज हजारों की संख्या में ऐसे रोगी आते रहे। 5 अप्रैल को जहां ये संख्या 3,548 थी, वहीं 20 अप्रैल को 28,395 तक नए मामले आए। अप्रैल के दूसरे सप्ताह तक, अस्पतालों ने बेड और ऑक्सीजन की कमी की सूचना देनी शुरू कर दी। अस्पताल ऑक्सीजन आपूर्ति के लिए एसओएस कॉल करने लगे। आखिरकार, दिल्ली उच्च न्यायालय और भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने राजधानी दिल्ली की आपातकालीन स्थिति पर ध्यान दिया, जहां अन्य कोविड संबंधित जटिलताओं की तुलना में ऑक्सीजन न मिलने के कारण ज्यादा लोग मर रहे थे।



शनिवार, 1 मई को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को दो दिनों के भीतर शहर के अस्पतालों में ऑक्सीजन की आपूर्ति सुनिश्चित करने का आदेश दिया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने उसी दिन आदेश पारित किया, “बस बहुत हो गया। आवंटित मात्रा से अधिक की मांग कोई नहीं कर रहा है। यदि आप आज आवंटित ऑक्सीजन की आपूर्ति नहीं कर सकते हैं, तो हम सोमवार (3 मई) को आपका स्पष्टीकरण देखना चाहेंगे।”

हाईकोर्ट ने केंद्र को दिल्ली को प्रतिदिन 700 टन ऑक्सीजन आपूर्ति करने का आदेश दिया था। केंद्र ने प्रतिदिन 590 टन ऑक्सीजन आवंटित की थी, जबकि दिल्ली सरकार ने 970 टन ऑक्सीजन की मांग की थी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने 3 मई को अपने आदेशों की अवहेलना और साथ ही राजधानी को ऑक्सीजन आपूर्ति करने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करने में विफल रहने पर केंद्र के खिलाफ अवमानना ​​की कार्यवाही शुरू की। केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया, जिसने 5 मई को आदेश पर रोक लगा दी, लेकिन स्पष्टीकरण मांगा। केंद्र ने जवाब दिया कि उसने उस दिन दिल्ली को 730 टन ऑक्सीजन दी थी।

विडंबना यह है कि पिछले साल 18 अगस्त को भारत के सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि इस स्थिति के लिए “विशेष प्लान की कोई आवश्यकता नहीं थी।” आईआईटी बॉम्बे के मिलिंद सोहोनी और स्वतंत्र शोधकर्ता अलख्य देशमुख की गणना के अनुसार, भारत को प्रतिदिन प्रति मिलियन लोगों पर पांच मौत के हिसाब से योजना बनानी चाहिए थी, जबकि वर्तमान में सभी चिकित्सा आपातस्थिति और ऑक्सीजन स्टॉक प्रतिदिन प्रति मिलियन दो मौतों पर आधारित है, जो पहली लहर के दौरान देखी गई मृत्यु दर है। साथ ही, प्रतिदिन 7,000 टन ऑक्सीजन की राष्ट्रीय क्षमता पर्याप्त नहीं थी और तत्काल उपाय जरूरी थे। वर्तमान में, भारत की ऑक्सीजन की अनुमानित मांग प्रतिदिन 4,000 टन है। 2 मई को, कम से कम 15 राज्यों ने ऑक्सीजन आपूर्ति में 10-50 प्रतिशत की कमी की सूचना दी।

अप्रैल के अंतिम दो सप्ताह और मई के पहले सप्ताह में, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में श्मशान घाट लगातार आने वाले शवों से भरे थे। दिल्ली में अंत्येष्टि के लिए अतिरिक्त जगहों की व्यवस्था की गई। सरकार ने गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश में फुटपाथ पर दाह संस्कार की अनुमति दी। दक्षिण-पश्चिम दिल्ली के द्वारका में कुत्तों के लिए बनाए गए श्मशान घाट को मानव उपयोग के लिए खोला गया। प्रतीक्षा अवधि कम करने के लिए एक साथ कई शवों का अंतिम संस्कार किया गया। अधिकांश श्मशान घाटों में सुरक्षात्मक कपड़ों के साथ उन स्थानों पर शवों को जला दिया गया था, जहां शव नहीं जलाए जाते। अधजले शवों को देखना बहुत ही आम बात हो गई थी।

दिल्ली विश्वविद्यालय के एक छात्र और एक स्वयंसेवी समूह के सदस्य ऋषभ गुप्ता, जो कोविड-19 परिवारों को बुनियादी सुविधा पहुंचा रहे थे, कहते हैं, “मैंने कभी युद्ध नहीं देखा, लेकिन वह दिल्ली की स्थिति जैसी ही होना चाहिए। मैंने कभी नहीं सोचा था कि हेल्थ इमर्जेंसी (स्वास्थ्य आपातस्थिति) में, मैं दवा की व्यवस्था करने की जगह दाह संस्कार की व्यवस्था में शामिल रहूंगा।”

ऋषभ की तरह दुनिया ने भारत में आई महामारी की दूसरी लहर को अविश्वास और सदमे के साथ देखा। 26 अप्रैल और 2 मई के बीच, भारत ने दुनिया भर के बीच सर्वाधिक कोविड-19 के नए मामले दर्ज किए। करीब 2.6 मिलियन नए केस और 23,800 मौत (देखें, अनचाहा उछाल, पेज 13)। यह लगातार दूसरा सप्ताह था जब भारत ने यह दुर्भाग्यपूर्ण रिकॉर्ड बनाया। इससे पहले सप्ताह में 2.25 मिलियन नए मामले सामने आए थे। अगर हम तुलना करें तो दुनिया के सबसे अधिक कोविड-19 प्रभावित देश अमेरिका ने 4 से 10 जनवरी के बीच सबसे खराब समय देखा था। तब उसने 1.77 मिलियन नए मामले दर्ज किए थे। 11 मई को भारत में बाकी दुनिया (एक साथ) के मुकाबले अधिक नए कोविड-19 मामले थे।



मौत का प्रमुख कारण

26 अप्रैल से पहले केवल नौ सप्ताह के दौरान कोविड-19 भारत में मृत्यु के सबसे बड़े कारण के रूप में उभरा है (पहले, यह इस्केमिक हृदय रोग था)। ये अनुमान अमेरिका के वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (आईएचएमई ) का है। 22 फरवरी को यह मृत्यु का 26वां मुख्य कारण था, जो प्रतिदिन औसतन 180 मौतों का कारण था। 26 अप्रैल तक यह एक दिन में औसतन 4,800 मौतों का कारण बन रहा था। आईएचएमई के ​​नवीनतम आकलन के अनुसार, 1 अगस्त 2021 तक भारत में कोविड-19 से मरने वालों की संख्या 0.96 मिलियन हो जाएगी। पांच मिलियन से अधिक के अनुमानित वैश्विक मौतों के बीच, भारत कुल मौतों के लगभग पांचवे हिस्से का केन्द्र बनेगा।

27 अप्रैल 2021 के अपने एक विश्लेषण में आईएचएमई के प्रोफेसर क्रिस्टोफर जेएल मरे कहते हैं, “भारत सरकार द्वारा घोषित संख्या की तुलना में भारत में कहीं अधिक कोविड​​​​-19 मामले थे। सीरो प्रेवलेंस सर्वे के हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि संक्रमण का पता लगाने का दर 5 प्रतिशत से कम है। शायद 3-4 प्रतिशत के आसपास। इसका मतलब यह है कि भारत में होने वाले संक्रमणों की संख्या जानने के लिए जिन पॉजिटिव मामलों का पता लग रहा है, उनकी संख्या को 20 या अधिक से गुणा करने की आवश्यकता है। अभी संक्रमण की संख्या असाधारण रूप से बहुत अधिक है। हमारे नवीनतम अनुमानों से पता चलता है कि भारत में संक्रमण की संख्या में हो रही वृद्धि (और शायद बांग्लादेश और पाकिस्तान के कारण भी) के कारण संक्रमण की संख्या विश्व स्तर पर एक दिन में 15 मिलियन तक पहुंच जाएगी।”

मरे का तर्क है कि भारत में संक्रमण इतना अधिक है कि कोविड-19 से संक्रमित लोगों की संख्या बहुत जल्द समाप्त हो सकती है। इसका मतलब है कि मध्य मई के बाद भारत में संचरण में गिरावट शुरू हो जाएगी। आईएचएमई ने अनुमान लगाया है कि 15 मई तक भारत में प्रतिदिन मरने वालों की संख्या 13,050 हो सकती है।

मामलों में उछाल

महामारी के अब तक के 15 महीनों में अप्रैल, भारत के लिए सबसे क्रूर महीना साबित हुआ। देश ने अभूतपूर्व मामले दर्ज किए। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, 46,000 मौतों के साथ 6.6 मिलियन नए मामले सामने आए हैं। महीने के आखिरी दिन भारत एक ही दिन में 400,000 से अधिक नए मामले दर्ज करने वाला एकमात्र देश बन गया। यह बताता है कि स्थिति के जल्द ही सामान्य होने की संभावना नहीं है। अप्रैल के अंतिम सप्ताह तक, देशभर में मेडिकल ऑक्सीजन की मांग आठ गुना बढ़ गई। ये मांग एक दिन में 700 टन से बढ़कर 6,000 टन प्रतिदिन हो गई।

अपने खराब बुनियादी स्वास्थ्य ढांचे और उच्च जनसंख्या घनत्व को देखते हुए उत्तर प्रदेश महामारी की दूसरी लहर में कोविड-19 का नरक बन गया। 30 अप्रैल, 2021 तक राज्य में करीब 12,238 लोगों ने इस बीमारी के कारण दम तोड़ दिया, जबकि 1.2 मिलियन लोग कोरोना पॉजिटिव पाए गए, जिससे यह भारत का चौथा सबसे अधिक कोरोना प्रभावित राज्य बन गया है। अस्पतालों में ऑक्सीजन और बिस्तर खत्म हो गए और श्मशान घाट में जगह की कमी हो रही। जहां स्थिति नियंत्रण से बाहर है, वहीं मुख्यमंत्री दावा करते रहे कि संख्या बहुत अधिक नहीं थी और ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं थी। सरकार ने “कोविड-19 से हुई मौतों के लिए मुफ्त दाह संस्कार” का भी वादा किया।

19 अप्रैल से 3 मई के बीच, राज्य में ऑक्सीजन की मांग में 300 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई। 5 मई को राज्य के 0.28 मिलियन सक्रिय मामलों में से 82 प्रतिशत लोग होम आइसोलेशन में थे और जैसा कि स्वास्थ्य अधिकारियों का कहना है, उचित देखभाल न होने की दशा में ही अस्पताल में भर्ती होने की आवश्यकता हो सकती है। यह पहले से ही ध्वस्त स्वास्थ्य प्रणाली की कहानी को पुष्ट करता है। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पब्लिक-प्राइवेट इनिशिएटिव) के प्रोफेसर और लाइफ कोर्स एपिडेमियोलॉजी प्रमुख गिरिधर आर बाबू कहते हैं, “उत्तर प्रदेश और बिहार में स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा खराब है और मानव संसाधन क्षेत्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण देखभाल प्रदान करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। पहले से ही कमजोर इन राज्यों की स्वास्थ्य प्रणालियों के पास इस तरह के स्वास्थ्य संकट के दौरान महानगरीय शहरों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद करना बेमानी है।”

5 मई को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने लखनऊ और मेरठ के जिलाधिकारियों को ऑक्सीजन की कमी के कारण मरने वाले कोविड-19 रोगियों की खबर को सत्यापित करने का निर्देश दिया और कहा, “अस्पतालों में ऑक्सीजन की आपूर्ति न करने की वजह से कोविड रोगियों की मृत्यु एक आपराधिक कृत्य है और नरसंहार से कम नहीं है।” संसाधन कम होने से चिकित्सक असमंजस में हैं। बंगलुरू देश के सर्वाधिक प्रभावित शहरों में से एक है। राजराजेश्वरी मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल, बंगलुरु के डिप्टी मेडिकल सुपरिंटेंडेंट और पल्मोनोलॉजी के सहायक प्रोफेसर विवेक गुंडप्पा कहते हैं, “मैंने ऐसी स्थिति सिर्फ साइंस फिक्शन मूवीज में ही देखी है।

ये देखना काफी दुखद होता है कि एक ही समय में 15-20 रोगियों का एक समूह अस्पताल आता है, जिनका ऑक्सीजन लेवल 30 प्रतिशत से 40 प्रतिशत (सामान्य स्तर 95-100 प्रतिशत) है और हर एक मरीज को वेंटिलेटर सपोर्ट की आवश्यकता होती है। हमें ये सपोर्ट किसे देना चाहिए? क्या यह पहले आओ-पहले पाओ के आधार पर होना चाहिए? जब मैंने पहली बार ऐसा किया था, तो मुझे 73 वर्षीय रोगी के मुकाबले 30 वर्षीय व्यक्ति को वेंटिलेटर सपोर्ट देने से इनकार करना पड़ा था। उस 73 साल के मरीज का कुछ ही घंटों में निधन हो गया। बाद में 30 वर्षीय व्यक्ति की भी मौत हो गई। मैंने सोचा कि क्या मुझे 30 वर्षीय व्यक्ति को पहले सपोर्ट देना चाहिए था। लेकिन मैं कौन हूं निर्णय करने वाला? सभी को जीने का समान अधिकार है। मैं हमेशा खुद को दोषी महसूस करूंगा कि मैं उनमें से किसी को भी नहीं बचा सका।”



ग्रामीण प्रसार

अप्रैल में स्वास्थ्य विशेषज्ञों की सबसे बुरी आशंका भी सच हुई। पहली लहर के विपरीत, वायरस ग्रामीण इलाकों में फैल गया, जिससे बहुत अधिक मौतें हुईं। वास्तव में, अप्रैल में शहरी क्षेत्र की तुलना में ग्रामीण इलाकों में अधिक मौतें हुईं, भले ही ग्रामीण क्षेत्रों में कुल केस लोड कम था। डीटीई के एक विश्लेषण से पता चलता है कि अप्रैल 2021 के नए मामलों (3.1 मिलियन) में ग्रामीण इलाकों का हिस्सा 45.4 प्रतिशत था, लेकिन कोविड-19 मौतों का 50.8 प्रतिशत (24,000) हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों का था (देखें, ग्रामीण भारत पर चोट, पेज 18)। यह समग्र रुझान (मार्च 2020-अप्रैल 2021) से अलग है, जहां शहरी इलाकों में 54 प्रतिशत मामले और 56 प्रतिशत मौतें हुईं। सितंबर 2020 एकमात्र ऐसा महीना है, जब ग्रामीण भारत में 50 प्रतिशत से अधिक मौतें दर्ज की गईं। लेकिन उस समय, शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण केस लोड भी अधिक था।

अप्रैल में शुरू हुआ ग्रामीण क्षेत्रों में संक्रमण का प्रसार दो कारणों से आने वाले महीनों में और खराब होने की संभावना है। पहला, भारत में दूसरी लहर अभी चरम पर है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने कम से कम एक और महीने के लिए इसके ऊपर जाने की भविष्यवाणी की है। दूसरा, दिल्ली, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य लॉकडाउन लगा रहे हैं, जिससे रिवर्स माइग्रेशन शुरू हो रहा है। इससे ग्रामीण इलाकों में मौतें हो रही हैं। ऐसा ही पिछले साल भी देखा गया था, जब 24 मार्च और 30 मई 2020 के बीच देशव्यापी तालाबंदी के बाद केंद्र ने चरणबद्ध तरीके से अनलॉक प्रक्रिया शुरू की थी। यह सितंबर 2020 तक जारी रही, जब देश में पहली लहर चरम पर थी। ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य ढांचा शहरों की तुलना में काफी कमजोर है। विश्व बैंक के अनुसार, भारत की 65 प्रतिशत से अधिक आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है, फिर भी केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 के अनुसार, सरकारी अस्पतालों के केवल 37 प्रतिशत बेड ग्रामीण भारत में हैं। जागरुकता की कमी, परीक्षण करवाने में झिझक और उपचार लेने की अनिच्छा ग्रामीण आबादी को कोविड-19 के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती है। सीमित परीक्षण और देर से नतीजे आने के कारण, आधिकारिक कोविड-19 संख्या विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में भ्रामक है।

नुआपाड़ा, ओडिशा का एक ग्रामीण जिला और भारत के सबसे गरीब इलाके में से है। इस तरह के क्षेत्रों में महामारी कहर बरपा सकती है। यहां सबसे बड़ी समस्या ऑक्सीजन की कमी है, जिससे मौतें होती हैं। जिले के सिल्वा ग्राम पंचायत के सदस्य दुर्योधन मांझी को कोविड​​​​-19 था और 24 अप्रैल को उनकी मृत्यु हो गई। उनके भाई साधुराम कहते हैं कि उस वक्त जिला कोविड​​​​-19 अस्पताल में ऑक्सीजन आपूर्ति समाप्त हो गई थी। भुवनेश्वर की रहने वाली डॉली होता ने 24 अप्रैल को खरियार के कोविड अस्पताल में अपने पिता जन्मेजय जोशी की मृत्यु के बाद नुआपाड़ा के मुख्य जिला चिकित्सा अधिकारी (सीडीएमओ) को एक पत्र भेजा। उनका दावा है कि उनके पिता की मृत्यु ऑक्सीजन की कमी के कारण हुई थी।



एक स्थानीय पत्रकार नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, “महामारी की पहली लहर के दौरान नुआपाड़ा में कोविड ​​​​अस्पताल की स्थिति अच्छी थी। लेकिन अब स्थिति खराब है। कर्मचारियों द्वारा समय पर दौरा नहीं किया जाता। मरीजों को अपनी समस्याओं की शिकायत करने के लिए बार-बार आपातकालीन सेक्शन में भागना पड़ता है।” इस पत्रकार की पत्नी की भी अस्पताल में कोविड​​​​-19 से मृत्यु हो गई थी। नुआपाड़ा के सीडीएमओ काली प्रसाद बेहरा ने डीटीई को बताया कि अस्पताल में लापरवाही का कोई सवाल ही नहीं था, न ही ऑक्सीजन की कमी थी और अस्पताल को हर दिन 250 सिलेंडर मिल रहे थे।

हाल के सप्ताहों में जिले में रोज के नए कोविड​​​​-19 पॉजिटिव मामलों की संख्या में कोई गिरावट नहीं आई है। यह बताता है कि संक्रमण का प्रसार न केवल जारी है बल्कि अस्पताल में भर्ती होने की मांग भी बढ़ रही है। 1 मार्च से 25 अप्रैल तक पॉजिटिव मामलों की कुल संख्या 5,399 थी, जो कुल टेस्ट किए गए लोगों का 10.16 प्रतिशत थी। 25 अप्रैल को जिले में पॉजिटिव पाए गए लोगों की संख्या 300 थी, जो कुल 1,003 लोगों की जांच की गई का लगभग 30 प्रतिशत है। नुआपाड़ा में कोविड-19 के कारण होने वाली मौतों में भी अप्रैल में काफी वृद्धि हुई है। प्रतिदिन औसतन पांच मौतें हुई हैं। कोविड-19 की दूसरी लहर में नुआपाड़ा में पहले ही 87 मौतें हो चुकी हैं, जिसमें हर दिन चार से छह मौतों की संख्या बढ़ रही है।

जिले के गांवों में ज्यादातर लोग टेस्टिंग से कतराते हैं। सरगीमुंडा गांव के राधेश्याम बेहरा का कहना है कि उनके गांव के ज्यादातर लोगों में कोविड​​​​-19 के लक्षण थे। इसलिए, उन्होंने सीडीएमओ से एंटीजन टेस्ट करने के लिए एक टीम नियुक्त करने का अनुरोध किया। वह कहते हैं, “जब एक टीम अगले दिन गांव पहुंची, तो केवल तीन परिवारों ने स्वेच्छा से टेस्ट कराया। टेस्ट किए गए 20 लोगों में से छह को कोविड​​​​-19 पॉजिटिव पाया गया।” गांवों के अधिकांश लोगों के लिए, कोविड-19 एक कलंक है, जिससे पॉजिटिव लोगों पर जल स्रोतों के उपयोग पर प्रतिबंध लग जाता है।

भारत के अपेक्षाकृत अधिक विकसित राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में भी ऐसी ही कहानियां हैं। गुजरात का ही मामला लें, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक दशक से अधिक समय तक मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया। नाम न छापने की शर्त पर वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों का कहना है कि राज्य के 33 जिलों में फैले 18,000 गांवों में डॉक्टरों और चिकित्सा कर्मियों, ऑक्सीजन की आपूर्ति, बिस्तर और अन्य जीवन रक्षक उपकरणों की भारी कमी है। गुजरात के कई जिलों में लगभग 10 गांवों पर एक स्वास्थ्य केंद्र है। इनमें से कुछ केंद्रों में रैपिड एंटीजन टेस्ट की सुविधा भी नहीं है। वैक्सीन झिझक के साथ ही लोग कोरोना गाइडलाइन और सामाजिक दूरी का पालन करने को लेकर भी अनिच्छुक हैं, जिससे स्थिति और भी खराब हो रही है। राज्य के ग्रामीण जिलों की बात करे तो उत्तर गुजरात के मेहसाणा जिले में सबसे अधिक केस लोड है।

यह गुजरात के स्वास्थ्य मंत्री नितिन पटेल का गृह जिला है। मेहसाणा के समृद्ध खेरवा गांव के चंद्रकांत परमार ने बताया कि मार्च और अप्रैल में 80 से अधिक मौतें हुईं है। गांधीनगर और मेहसाणा के बीच स्टेट हाइवे पर स्थित इस गांव की आबादी 15,000 है और अप्रैल में संक्रमण बढ़ने के बाद कथित तौर पर रोजाना तीन से चार मौतें हो रही हैं। गांव में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है, जिसमें 25 से 30 लोगों का स्टाफ है। इसमें एक डॉक्टर, 10 से 15 नर्स और पैरामेडिकल स्टाफ शामिल हैं। लेकिन इसमें गहन देखभाल यूनिट, सीटी-स्कैन, सोनोग्राफी और ऑक्सीजन सिलेंडर की कमी है। गांव के सरपंच ने 200 बेड के क्वारंटाइन सेंटर की व्यवस्था की थी, लेकिन अब भी बहुत से लोग होम क्वारंटाइन हैं। खेरवा में आसपास के करीब 15 गांवों के मरीज भी आते हैं। प्रशासन ने गांव के गणपत विश्वविद्यालय को आइसोलेशन सेंटर में तब्दील कर दिया है। कोविड-19 की जांच और टीकाकरण नि:शुल्क है, लेकिन गांव के लोग टीका लेने से हिचकिचा रहे हैं। गांव के सरपंच का कहना है कि खेरवा में लगभग 500 कोविड-19 मरीज हैं।

एक अन्य प्रभावित गांव उत्तरी गुजरात में पाटन जिले का खानपुर है। गांव में 800 परिवार रहते हैं और अब तक तीन लोगों की मौत हो चुकी है। खानपुर निवासी देव देसाई का कहना है कि गांव में तीन-चार दिन तक बुखार रहने पर लोगों की मौत हो जाती है।

(यह रिपोर्ट डाउन टू अर्थ, हिंदी मासिक पत्रिका के जून 2021 में प्रकाशित हो चुकी है) पढ़ें, इसका अगला भाग, दूसरी लहर के लिए सरकार कितनी दोषी है? 

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