नूर बरसातीं "नूरी अम्मा"

पिछले 19 साल में लगभग 400 से अधिक एड्स पीड़ित नौनिहालों को बड़ा करने वाली नूरी अम्मा से खास बातचीत
इलस्ट्रेशन: रितिका बोहरा / सीएसई
इलस्ट्रेशन: रितिका बोहरा / सीएसई
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पिछले 19 साल में लगभग 400 से अधिक एड्स पीड़ित नौनिहालों को बड़ा कर उन्हें किसी न किसी काम धंधे में लगा चुकीं नूरी मोहम्मद देश की एड्स पीड़ित तीसरी शख्स थीं और अपने समुदाय यानी ट्रांसजेंडर (किन्नर) की पहली। नूरी मोहम्मद को नूरी अम्मा बनने में 34 साल लग गए। हम बात कर रहे हैं एक ऐसी शख्सियत की जिसे सभी कानूनी नियमों का जामा पहनाए जाने के बावजूद हमारा समाज आसानी से स्वीकारता नहीं है। लेकिन अपने को समाज का अभिशप्त समझने की जगह नूरी ने समाज के साथ लड़ना अधिक मुनासिफ समझा। उनकी उस लड़त का ही नतीजा है कि आज वे चेन्नई सहित उसके आसपास के उपनगरीय इलाकों की तंग गलियों में “नूरी अम्मा” के नाम से पहचानी जाने लगी हैं। चेन्नई ही नहीं तमिलनाडु और इसके आसपास के राज्यों से उनके पास प्रतिदिन इस बात के फोन आते हैं कि हमारा बच्चा एड्स पीड़ित है, क्या हम उसे आपके आंचल की छाव में छोड़ने आ सकते हैं? नूरी हर हाल में कोशिश करती हैं कि वह किसी को निराश न करें लेकिन अपने सीमित संसाधनों के कारण दिल पर पत्थर रखकर न कहना ही पड़ता है। हालांकि उन्हें उम्मीद है कि आने वाले समय में वह किसी को न नहीं कहेंगी। उनकी इस अकल्पनीय “एकला चलो” संघर्ष यात्रा के बारे में अनिल अश्विनी शर्मा ने उनसे बातचीत की

आप ट्रांसजेंडर समुदाय से आती हैं जो समाज के दोहरे मानंदडों का शिकार रहा है। एचआईवी पीड़ित होने के बाद भी समाज के लिए सरोकार बरकरार रखने का जज्बा कैसे पैदा हुआ?

यह विचार 22 जुलाई, 1987 के बाद आया, जब मुझे पता चला कि मैं एचआईवी से ग्रस्त हूं। तब निर्णय किया कि जब तक जीवित हूं, ताउम्र इस बीमारी से पीड़ित बच्चों को बचाने व उनकी परवरिश में लगा दूंगी। पहले तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ लेकिन जब आसपास के संगी-साथी बार-बार कहने लगे कि तुम बहुत भयंकर बीमारी की शिकार हो चुकी हो, तब मुझे अंदर से धक्का लगा कि सचमुच मैं इस लाइलाज बीमारी की अंजाने में शिकार हो चुकी हूं। लेकिन शीघ्र ही संभल गई और घबराई नहीं। मेरा इलाज यहीं चेन्नई में हुआ और शुरू में तो मुझे हर महीने 3,600 रुपए की दवाई खरीदनी पड़ती थी लेकिन 2004 में मेरी दवाई की कीमत 21,000 रुपए जा पहुंची। मेरे पास तो कोई काम-धंधा था नहीं, ऐसे में मेरा एक जिगरी दोस्त यूएनडीपी (यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम) में काम करता था, उसने मेरी मदद की। इसके बाद मुझे राशन कार्ड के माध्यम से सरकारी दवाएं मिलने लगीं।

एड्स पीड़ित बच्चों को अपनाने का सफर कैसे शुरू हुआ?

मैंने एक डॉक्टर की मदद से नर्स का बुनियादी काम सीखा। मैंने देखा कि अस्पतालों में माता-पिता को जैसे ही पता चलता था कि उनका बच्चा एड्स पीड़ित है, वे नवजात बच्चे को अस्पताल में ही छोड़ भाग जाते थे। ऐसे बच्चों को मैंने अपनाया। बाद में जब मैंने ऐसे बच्चों के लिए शेल्टर होम शुरू किया तो आसपास के लोग अपने एड्स पीड़ित बच्चों को स्वयं ही मेरे पास पालने-पोसने के लिए छोड़कर जाने लगे। यह सिलसिला अब भी जारी है। हालांकि अब मेरी एक सीमा है, ऐसे में जब मैं मना कर देती हूं तो कई माता-पिता तो रातबिरात ही मेरे घर के दरवाजे पर ही चुपचाप बच्चा छोड़ जाते हैं।

आपके पहले आश्रयगृह की शुरुआत कैसे हुई? अभी वहां कितने बच्चों की परवरिश हो पा रही है?

मैंने अपना पहला शेल्टर होम 2005 में शुरू किया। इसका नाम अपने साथियों के नाम पर रखा- एसआईपी ट्रस्ट। मेरे साथियों के नाम थे सेल्वी, इंदिरा, पलानी। इनकी मृत्यु एचआईवी के कारण हुई थी। अभी मेरे पास कुल 45 एड्स पीड़ित बच्चे हैं। हालांकि मेरे पास रोज राज्य के किसी न किसी हिस्से से इस बात के लिए फोन आते ही रहते हैं कि हमारा बच्चा है, उसे आपकी जरूरत है। ऐसे में मैंने कई लोगों से अपील की है कि वे मेरे लिए और कुछ शेल्टर होम का निर्माण करवा दें ताकि मैं और अधिक बच्चों को वह संभाल सकूं। मुझे अम्मा ने (तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता) मेरे इस काम के लिए न केवल मुझे सम्मानित किया बल्कि मेरे इस काम को सराहा भी व आर्थिक मदद भी मुहैया कराई।

एड्स पीड़ित बच्चों को पालने की प्रक्रिया कैसी है? अभी तक कितने बच्चे इस बीमारी से जूझने के बाद अपने पांव पर खड़े हो पाए?

बच्चों को सबसे पहले पूरी तरह स्वस्थ करना, इसके बाद उन्हें शिक्षित करना और अंत में उन्हें ऐसी ट्रेनिंग दिलाना जिससे वे किसी कामधंधे में लग जाएं। यह हमारी कोशिश रहती है। अब तक मैंने लगभग 400 से अधिक बच्चों को पिछले 18-19 सालों में इस बीमारी के साथ जूझते हुए उन्हें न केवल बड़ा किया बल्कि उनका आत्मविश्वास भी इस लायक बनाया कि वह समाज के बीच जाकर उसका हिस्सा बन सकें। अब इनमें सभी किसी न किसी काम धंधा में लग गए हैं। यदाकदा उन्हें जब मेरी याद आती है तो वे मुझसे मिलने भी आ जाते हैं। तब मेरे दिल को सबसे अधिक सुकून मिलता है कि खुदा के बनाए हम बंदे कम से कम किसी के कुछ तो काम आ रहे हैं।

क्या आप एचआईवी से पीड़ित वयस्क मरीजों की भी मदद करती हैं?

सौ फीसदी करती हूं। अब तक मैंने ऐसे लगभग 7,000 से अधिक लोगों का इलाज से लेकर उनके लिए कपड़े व उनके काम धंधे के लिए उन्हें किसी काम की ट्रेनिंग दिलाई है ताकि वे अपना जीवनयापन कर सकें।

एचआईवी एड्स को लेकर आप जागरूकता फैलाने के लिए क्या कर रही हैं ?

मैं स्लम बस्ती, सेक्स वर्कर एिरया, कंपनियों और इस बीमारी संबंधी चेन्नई या आसपास के शहरों मेंं होने वाले कार्यक्रमों में जाकर आमजन को जागरूक करती हूं।

आपके जीवन का सबसे कठिन समय कब रहा?

मैं चेन्नई में पैदा हुई। मेरी मां की बचपन में ही मृत्यु हो गई थी। ऐसे में पिता ने दूसरी शादी की लेकिन दूसरी मां का व्यहार मेरे प्रति अच्छा नहीं था। 13 साल की उम्र मेंं मुझे अहसास हुआ कि मैं औरों से अलग हूं। इस बीच मेरे पिता की भी मृृत्यु हो गई। अब मां नहीं चाहती थी कि मैं उसके घर पर रहूं। इसके लिए उसने मेरा विवाह तय कर दिया। इससे बचने के लिए मैं मुंबई भाग गई। शुरू में तो दूसरों के घरों में चौका-बर्तन का काम किया लेकिन बाद में वहां मेरी मुलाकात किन्नर समुदाय से हो गई और उनके साथ ही रहने लगी।

आपके जीवन का सबसे बड़ा सपना क्या है?

अब मेरे जीवन का एकमात्र उद्देश्य है एड्स पीड़ित परित्याज्य इन बच्चों के लिए एक आश्रयगृह का निर्माण हो जाए। अभी हमारा आश्रणगृह किराये का है। मेरी दिली इच्छा है कि नया बन रहा आश्रयगृह बिना किसी बाधा के पूरा हो जाए और भविष्य में नेक दिल लोगों की इनायत हम पर बनी रही। लोगों को समझना चाहिए कि एक ट्रांसजेंडर के लिए ऐसा आश्रयगृह चलाने में किन परेशािनयों का सामना करना पड़ता है। मैं यह सुिनश्चित करूंगा कि मेरे बच्चे नेकदिल इंसान बने और उनके दिल में औरों के प्रति मदद की प्रवृत्ति हो और सारे जहां में प्यार फैलाएं।

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