प्रतीकात्मक फोटो: आईस्टॉक
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सेकंड लाइफ एवं वर्चुअल गेम्स: हिंसक एवं प्रतिस्पर्धात्मक खेल से बच्चों के व्यवहार में बदलाव

सोशल नेटवर्क, गेम्स और रोबोटिक इंटरफेस हमें संग-साथ का एहसास देते हैं, बिना उस भावनात्मक मेहनत के जो असली दोस्ती और रिश्तों में चाहिए
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सोचिए, एक ऐसी दुनिया जहां आप अपने आपको उस रूप में दिखा सकते हैं, जो आप असल जिंदगी में नहीं हैं, जैसे की अधिक सुंदर, अधिक स्मार्ट, और अधिक लोकप्रिय। आज की डिजिटल दुनिया में यह सपना सच प्रतीत होने लगा है।

हमारी असलियत और आभासी जीवन की सीमाएं धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही हैं, और तकनीक हमारे निजी और गहरे रिश्तों को नए सांचे में ढाल रही है। पुस्तक  “एलोन टुगेदर” में बताया गया है कि “सेकंड लाइफ” (ऑनलाइन दुनियां) जैसे वर्चुअल प्लेटफॉर्म, जो किसी ऑनलाइन गेम की तरह हैं, हमें यह अनुभव कराते हैं कि वहां हम अपने वास्तविक जीवन से कहीं अधिक खुश और स्वतंत्र महसूस कर सकते हैं। इस दुनिया में, लोग अपने रूप को असलियत से ज़्यादा आकर्षक और प्रभावशाली रूप में गढ़कर जीते हैं।

तकनीक हमें इसलिए पसंद आती है क्योंकि यह हमारी कमजोरियों को समझती है। हम अकेले हैं, मोबाइल, सोशल-मीडिया और रोबोट जैसे साधन हमें साथ होने का एहसास देते हैं; बिना उस मेहनत के जो असली दोस्ती में चाहिए।

हम अक्सर आमने-सामने बात करने के बजाय सिर्फ मैसेज करना ही पसंद करते हैं, और इसी तरह दूर होकर भी जुड़े रहते हैं। आज की डिजिटल दुनिया ने हमारे निजी और सामाजिक जीवन को जिस तरह से बदल दिया है, वह अभूतपूर्व कभी बच्चे गलियों में दौड़ते, क्रिकेट और कबड्डी खेलते, पेड़ पर चढ़ते या कंचे खेलते नजर आते थे।

लेकिन अब मोबाइल, कंप्यूटर और टैबलेट की स्क्रीन ने उनकी दुनिया को एक सीमित ढांचे में बंद कर दिया है। इनमें भी सबसे बड़ा आकर्षण बन चुकी है “ऑनलाइन गेमिंग”। गेम बच्चों की दिनचर्या में इस कदर शामिल हो चुके हैं कि पढ़ाई, खेलकूद, खानपान और सामाजिक मेलजोल तक पर इसका सीधा असर पड़ने लगा है।

बच्चे अपनी दुनिया को सबसे पहले खुद की समझ से देखते हैं। जैसे एक बच्चा देखता है कि पत्थर ढलान से गिरता है और कहता है, “यह नीचे पहुंचने के लिए गिरा।” धीरे-धीरे बच्चे सीखते हैं कि पत्थर गिरता है क्योंकि गुरुत्वाकर्षण है, इसमें कोई इरादा नहीं। लेकिन कंप्यूटर एक नया तरह का ऑब्जेक्ट है; यह सोच सकता है और प्रतिक्रिया भी दे सकता है।

आज हम अकेले हैं, लेकिन तकनीक के माध्यम से जुड़े भी हैं। सोशल नेटवर्क, गेम्स और रोबोटिक इंटरफेस हमें संग-साथ का एहसास देते हैं, बिना उस भावनात्मक मेहनत के जो असली दोस्ती और रिश्तों में चाहिए।

हम संदेश भेजना पसंद करते हैं, खुलकर संवाद करने की बजाय। हम अपने डिजिटल अवतारों और प्रोफाइल के माध्यम से खुद को ऐसे पेश करते हैं, जो असलियत से अधिक आकर्षक, युवा और सफल दिखते हैं।

देखा जाये तो आज के समय में बच्चे ऑनलाइन गेम्स के माध्यम से डिजिटल दुनिया में गहराई से जुड़े हैं। पहले की तरह सरल गेम्स नहीं खेलते, बल्कि अब फ्री फायर, पब्जी, सेकंड लाइफ और लूडो किंग जैसे अत्याधुनिक गेम्स उनके जीवन का हिस्सा बन गए हैं।

ये गेम्स कई तरह से बच्चों के व्यवहार और सोच को बदल रहे हैं। ये गेम्स बच्चों में समस्या सुलझाने की क्षमता, नेतृत्व कौशल को बढ़ाते हैं। बच्चों को सीखने और अनुभव करने का नया प्लेटफ़ॉर्म मिलता है। वे अलग-अलग संस्कृतियों और लोगों से जुड़ते हैं, टीमवर्क और प्रतिस्पर्धा का अनुभव प्राप्त करते हैं।

लेकिन इसके साथ-साथ कुछ चुनौतियां भी सामने आती हैं। लगातार ऑनलाइन गेमिंग से बच्चों में असली दुनिया के साथ जुड़ाव कम हो सकता है। दोस्तों और परिवार के साथ व्यक्तिगत बातचीत की तुलना में ऑनलाइन संवाद प्राथमिक हो जाता है।

कभी-कभी बच्चे अपनी वर्चुअल पहचान में इतना खो जाते हैं कि असली जीवन की भावनाओं और जिम्मेदारियों को नज़रअंदाज कर देते हैं। ऑनलाइन गेमिंग बच्चों के रिश्तों और सामाजिक व्यवहार पर भी असर डालता है। वे अपनी भावनाओं और जरूरतों को डिजिटल माध्यम के अनुसार ढालते हैं।

सोशल गेमिंग प्लेटफ़ॉर्म पर दोस्त बनाना आसान है, लेकिन यह दोस्ती सतही हो सकती है। असली दोस्ती और सहानुभूति की गहराई कम हो सकती है। बच्चे इन गेम्स को पसंद करते हैं क्योंकि ये रोमांचक, तेज़ और चुनौतीपूर्ण होते हैं। इसमें जीतने की भावना, टीमवर्क और रणनीति की जरूरत होती है। लेकिन सवाल यह उठता है, क्या हम यह देख रहे हैं कि हिंसक गेम्स बच्चों के व्यक्तित्व और सोच पर क्या असर डाल रहे हैं?

हिंसा से भरे गेम्स बच्चों में संवेदनशीलता, सहानुभूति और सामाजिक समझ को कम कर सकते हैं। बच्चे खेल में बार-बार मारने, हराने और लड़ने की आदत डाल लेते हैं। धीरे-धीरे यह उनके व्यवहार में भी झलक सकता है; जैसे दोस्तों या छोटे भाई-बहनों के साथ झगड़ा करना, धैर्य खोना, या दूसरों के प्रति असहनशील होना।

इसका कारण यह है कि बच्चे गेम्स में जितना वास्तविक अनुभव महसूस करते हैं, उतना ही वह उनके मानसिक और भावनात्मक विकास पर असर डालता है। गेम जितना अधिक हिंसक और असंवेदनशील होगा, बच्चे के लिए असली दुनिया में मानवीय मूल्यों की समझ उतनी ही कमजोर होती जाएगी।

इसलिए हमें ऐसी गेम्स की ओर ध्यान देना चाहिए जो मनोरंजन के साथ-साथ इंसानियत, नैतिकता और सामाजिक कौशल सिखाएं। गेम्स बच्चों में सोचने, बनावट बनाने और टीम में काम करने की क्षमता विकसित करते हैं, लेकिन इनमें हिंसा कम होती है। इसके अलावा, इन गेम्स में बच्चे अपनी कल्पना का इस्तेमाल करते हैं, कहानी बनाते हैं और दूसरों के साथ सहयोग करते हैं।

ऐसे वर्चुअल प्लेटफॉर्म हमारी डिजिटल दुनिया को बदलने की क्षमता रखते हैं। सकारात्मक रूप में देखें तो ये सृजनात्मक और शैक्षिक अवसर प्रदान करते हैं। लेकिन नकारात्मक पहलू भी नजरअंदाज नहीं किए जा सकते। लगातार ऑनलाइन रहने से अकेलापन, असली जीवन से दूरी और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ सकता है।

युवा अक्सर गेम्स और वर्चुअल दुनिया में इतने खो जाते हैं कि वास्तविक संबंध, भावनात्मक समझ और मानवीय संवेदनाएं कमजोर पड़ सकती हैं। इसके अलावा, हिंसक या अत्यधिक प्रतिस्पर्धात्मक खेल बच्चों में उग्रता और सामाजिक व्यवहार में बदलाव ला सकते हैं।

 [लेखक: अरुण कुमार गोंड, समाजशास्त्र विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज में शोध छात्र हैं। इनका शोध ग्रामीण समाज में सोशल-मीडिया के प्रभावों पर केंद्रित है।]

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