क्या आप जानते हैं कि भारत में आम लोगों की तुलना में कैदियों में तपेदिक (टीबी) का खतरा पांच गुणा ज्यादा है। यह जानकारी अंतरराष्ट्रीय जर्नल लैंसेट पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित अध्ययन में सामने आई है। रिसर्च से पता चला है कि भारतीय जेलों में बंद प्रति लाख कैदियों में टीबी के 1,076 मामले सामने आए थे।
वहीं यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा जारी ‘ग्लोबल ट्यूबरक्लोसिस रिपोर्ट 2022’ से जुड़े आंकड़ों को देखें तो 2021 के दौरान भारत में प्रति लाख लोगों पर टीबी के 210 मामले दर्ज किए गए थे। मतलब की आम लोगों की तुलना में कैदियों में टीबी का खतरा करीब पांच गुणा ज्यादा है।
कुछ ऐसा ही हाल वैश्विक स्तर पर भी है। शोधकर्ताओं के अनुसार वैश्विक स्तर पर, सामान्य लोगों की तुलना में जेल में बंद कैदियों में टीबी (तपेदिक) का खतरा करीब नौ गुणा ज्यादा दर्ज किया गया है।
रिसर्च के अनुसार 2019 के दौरान दुनिया भर में जेलों में बंद 1.1 करोड़ कैदियों में से करीब 125,105 को टीबी हुआ था। ऐसे में यदि प्रति लाख कैदियों पर देखें तो टीबी के 1,148 मामले सामने आए थे। वहीं यदि आम जन में पाए गए टीबी के आंकड़ों की बात करें तो ‘ग्लोबल ट्यूबरक्लोसिस रिपोर्ट 2021’ के मुताबिक प्रति लाख लोगों पर 127 मामले दर्ज किए गए थे।
यह पहला मौका है जब अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं ने दुनिया भर के जेलों में बंद कैदियों में सामने आए टीबी के मामलों का अध्ययन किया है। अपनी इस रिसर्च में शोधकर्ताओं ने दुनिया भर के 193 देशों में कैदियों में सामने आए टीबी के मामलों का विश्लेषण किया है।
रिसर्च में जो एक और चौंकाने वाली बात सामने आई है वो यह है कि मामलों की इस उच्च दर के बावजूद, जेल में बंद लोगों में टीबी के करीब आधे मामलों का पता नहीं चल पाया था। देखा जाए तो जेल में बंद यह एक ऐसी आबादी, जिसमें इस जीवन के लिए घातक बीमारी के विकसित होने का जोखिम बहुत ज्यादा है।
अफ्रीका में सबसे ज्यादा रही मामलों की दर
जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनके अनुसार कैदियों में टीबी की सबसे ज्यादा दर अफ्रीका में दर्ज की गई थी। जहां यह 2019 में प्रति लाख कैदियों पर 2,242 दर्ज की गई। इसके बाद दक्षिण पूर्व एशिया में 1,419, यूरोप में 1,184, पश्चिमी पैसिफिक में 1,104, अमेरिका में 807 और पूर्वी भूमध्यसागरीय क्षेत्र में 793 रिकॉर्ड की गई।
यदि देशों से जुड़े आंकड़ों को देखें तो 2019 में जेलों में सबसे ज्यादा नए मामले ब्राजील, रूस, चीन, फिलीपींस और थाईलैंड में आए थे। महत्वपूर्ण बात यह है कि 2012 से 2019 तक हर साल प्रति लाख कैदियों पर नए टीबी के मामलों की दर लगातार 1,100 से 1,200 के बीच रही।
इस बारे में रिसर्च से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता लियोनार्डो मार्टिनेज ने प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी दी है कि, "जिन लोगों को जेलों में टीबी हुआ था उनमें से केवल 53 फीसदी लोगों में ही पहचान हो पाई थी। जो बताता है कि जेल में बंद लोगों की उपेक्षा की जाती है और टीबी के निदान के लिए उनके पास न्यूनतम सेवाएं उपलब्ध हैं।"
उनका कहना है कि जेलों में जहां बड़ी संख्या में कैदियों को रखा जाता है वहां टीबी जंगल की आग की तरह ही फैल सकती है। जो उनसे आम लोगों में भी फैल सकती है।
ऐसे में यह निष्कर्ष जेलों और अन्य उच्च जोखिम वाले स्थानों पर जहां मामलों की दर उच्च लेकिन पहचान कम है वहां टीबी के बोझ को कम करने के लिए कहीं ज्यादा जागरूकता और संसाधनों की आवश्यकता को रेखांकित करती है।
गौरतलब है कि भारत ने 2025 तक इस बीमारी को जड़ से मिटाने का संकल्प लिया है। यह लक्ष्य तभी हासिल हो सकता है जब देश में चाहे वो सामान्य लोग हो या कैदी सभी से इस बीमारी को दूर किया जा सके। यही वजह है कि देश में इस बीमारी की रोकथाम के लिए कई प्रोग्राम चलाए जा रहे हैं, जिसमें इलाज से लेकर स्वास्थ्य और न्यूट्रिशन के लिए सरकारी मदद देना शामिल है।
इसमें रोगियों के लिए निक्षय पोषण योजना (एनपीवाई), उपचार को प्रोत्साहन देना, आदिवासी क्षेत्रों में टीबी रोगियों के इलाज के लिए आने जाने में सहयोग करना, एनपीवाई के तहत सीधे बैंक खाते में धनराशि देना (डीबीटी) जैसी योजनाएं शामिल हैं।