महामारी संधि: जिसकी लाठी उसकी भैंस!
अंतरराष्ट्रीय संगठनों को किसी नए अहम समझौते पर माथापच्ची करते देखना भूराजनीतिक दांव-पेच और धनी देशों की धाक को समझने का कारगर तरीका है, चाहे वह सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे आधारभूत विषय से ही क्यों न जुड़ा हो।
आखिरकार, विकसित देश अपनी बात मनवाने में कामयाब हो ही जाते हैं और बहुपक्षीय मंचों पर “आम राय” से हासिल बेहद असमान और अन्यायपूर्ण शर्तों वाले बाध्यकारी समझौतों पर मुहर लग जाती है। हम विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में बार-बार ऐसा होते देख चुके हैं।
हालांकि, विकासशील देश अगर अपने रुख पर अड़ जाएं तो वार्ताओं में नई जान आ जाती है। अक्सर ऐसी वार्ताएं अनेक वर्षों तक खिंचती चली जाती हैं और आखिरकार विकसित दुनिया के मनमुताबिक “सर्वसम्मति” तक पहुंचकर इनका अंत हो जाता है।
इस बार विश्व स्वास्थ्य सभा (डब्ल्यूएचए) की बारी थी जहां लंबी वार्ताओं का एक और दौर देखने को मिला। हालांकि, भविष्य में महामारियों से लड़ने की बेहतर वैश्विक रणनीति पर संधि को अंतिम रूप दिए बिना ही इस बार की वार्ता का अंत हो गया।
ऐसा लगता है कि कुछ अर्सा पहले ही दुनिया भर में लाखों लोगों की जान लेकर देशों और समुदायों को तबाह कर देने वाले कोविड-19 की डरावनी यादें अब धुंधली पड़ चुकी हैं। तभी तो विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के 194 सदस्य राष्ट्र मई के अंतिम सप्ताह में तयशुदा समझौते तक पहुंचने में नाकाम रहे। महामारी संधि को अंतिम रूप देने के लिए संयुक्त राष्ट्र एजेंसी को और दो साल का वक्त दिया गया है।
पैथोजेन और वैक्सीन साझेदारी जैसे अहम उपायों पर विकसित राष्ट्रों और गरीब देशों के बीच के गहरे मतभेद संयुक्त राष्ट्र एजेंसी में एक बार फिर खुलकर सामने आ गए। एक तरह मई में जिनेवा की बैठक में दुनिया पहले से कहीं ज्यादा विभाजित नजर आई। दरअसल, गाजा में इजराइल की ओर से छेड़े गए बर्बर युद्ध पर विश्व दो फाड़ हो चुका है।
हाल के दिनों में सबसे बड़े मानवीय संकट को जन्म देने वाले इस युद्ध ने अमीर और गरीब देशों के बीच की रेखा को भी धुंधला कर दिया है। फिलिस्तीनी जनता का कत्लेआम करने वाले इजराइली हमलों पर दुनिया के सामरिक गठजोड़ों में भी नाटकीय बदलाव देखने को मिले हैं।
विश्व स्वास्थ्य सभा की 77वीं वार्ताओं पर फिलिस्तीन में जारी युद्ध का साया मंडराता रहा। गाजा के विनाशकारी हालात पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान खींचने की कोशिश कर रहे देशों (32) के एक बड़े समूह द्वारा पेश प्रस्ताव पर कई दौर की वोटिंग हुई।
“दीर्घकालिक कब्जे और मौजूदा युद्ध के चलते पूर्वी येरुशलम समेत फिलिस्तीनी कब्जे वाले भूक्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच में बाधाओं के प्रभाव” पर डब्ल्यूएचओ के आकलन की मांग करने वाले इस प्रस्ताव के प्रायोजकों में भारत शामिल नहीं था। तीखी नोकझोंक भरी परिचर्चाओं के दौरान इजरायल पर पूरे मामले का राजनीतिकरण करने का आरोप लगाया गया।
हालांकि कार्यकारी बोर्ड में नवनिर्वाचित इजराइल एक अप्रत्याशित संशोधन के जरिए प्रस्ताव में हमास द्वारा बंधकों की रिहाई से जुड़ा पैराग्राफ शामिल कराने में कामयाब रहा।
“स्वास्थ्य सुविधाओं को निशाना बनाकर नागरिकों का जीवन खतरे में डालने को जायज” ठहराते इजरायल के राजनीतिक मिजाज वाले संशोधन को निंदा का सामना करना पड़ा। जवाब में मौलिक संशोधन के प्रायोजकों ने तीन अतिरिक्त संशोधनों का सुझाव दे दिया।
इनमें “खासतौर से सिर्फ मानवीय उद्देश्यों से उपयोग किए जाने वाले मेडिकल और मानवतावादी सुविधाओं पर अंधाधुंध हमलों” की आलोचना की गई। स्वतंत्र न्यूज वेबसाइट जिनेवा हेल्थ फाइल्स की एक रिपोर्ट के अनुसार इन संशोधनों में दो अस्थायी उपायों का भी उल्लेख किया गया जिनका आदेश अंतरराष्ट्रीय न्यायालय द्वारा दिया गया था।
वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य नीति की प्रमुख चुनौतियों पर नजर रखने वाले हेल्थ पॉलिसी वॉच की एक रिपोर्ट बताती है कि वार्ताकारों ने तमाम कूटनीतिक पैंतरों और करीब 10 घंटे की बहस के बाद आखिरकार प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। इसके विपरीत यूक्रेन को मानवतावादी सहायता से जुड़ा प्रस्ताव महज दो घंटे में ही पारित कर दिया गया।
पिछले साल से ही डब्ल्यूएचओ अपने शासनादेश के अनुसार “फिलिस्तीनी भूक्षेत्र, खासतौर से गाजा पट्टी में स्वास्थ्य कर्मियों की पहुंच समेत मानवीय राहत की बेरोकटोक आवाजाही और मानवतावादी उपकरण, परिवहन और आपूर्तियों के प्रवेश” का आह्वान करता रहा है।
“भयावह मानवीय हालात” और सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र को पहुंचे जबरदस्त नुकसान, अस्पतालों पर बमबारी, मारे गए स्वास्थ्य कर्मियों और हजारों नागरिकों (जिनमें ज्यादातर बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग हैं) की मौत पर वो गहरी चिंता जता चुका है। डब्ल्यूटीओ के महानिदेशक टेड्रॉस अधानोम घेब्रेयेसस द्वारा तैयार रिपोर्ट और उसकी सिफारिशों को भी मंजूरी दे दी गई।
अन्य तात्कालिक उपायों के अलावा इसमें डब्ल्यूटीओ और संयुक्त राष्ट्र की अन्य प्रासंगिक एजेंसियों के पूर्ण सहयोग से फिलिस्तीनी स्वास्थ्य प्रणाली (इजराइली बमबारी से तबाह हुई) के पुनर्निर्माण के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय से पर्याप्त फंड सुनिश्चित करने का आह्वान किया गया है।
अगर यह बड़ा नाटक था तो आखिरकार डब्ल्यूएचए ने हासिल क्या किया? हमेशा की तरह ऐसे सम्मेलनों के अंत में संगठन “ऐतिहासिक” कामयाबियों या घटनाक्रमों का दावा करते हैं।
डब्ल्यूएचओ ने बाद वाला विकल्प चुनते हुए 2005 के अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य नियमों (आईएचआर) में तमाम संशोधनों पर समझौते तक पहुंचने का दावा किया। साथ ही वैश्विक महामारी संधि पर एक साल के भीतर वार्ताएं पूरी करने को लेकर जताई गई प्रतिबद्धताओं का भी हवाला दिया।
विश्व स्वास्थ्य सभा के समापन पर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी एक बयान में महामारी से जुड़ी आपात परिस्थितियों की परिभाषा सामने रखे जाने को ऐतिहासिक सफलताओं में सबसे पहले दर्शाया गया, इसके बाद चिकित्सा उत्पादों और वित्त तक पहुंच को मजबूत बनाने में एकजुटता और समानता के प्रति वचनबद्धता की ओर भी इशारा किया गया।
हालांकि, इसमें पैथोजेन एक्सेस एंड बेनिफिट शेयरिंग (पीएबीएस) के नाजुक मुद्दे का जिक्र तक नहीं किया गया। ये विषय प्रस्तावित महामारी संधि के सबसे विवादित बिंदुओं में से एक है। इसमें सदस्य देशों द्वारा उभरते पैथोजेन के जेनेटिक सीक्वेंस और नमूनों को जल्द से जल्द साझा करने की जरूरत बताई गई है।
उपचार के लिए परीक्षणों, चिकित्सा पद्धतियों और नए पैथोजेन से लड़ने के लिए टीकों का तेज गति से विकास करने के लिहाज से ये जानकारी बेहद अहम है। हालांकि धनी देश डेटा साझेदारी की ऐसी किसी कवायद पर सहमति जताने से कतरा रहे हैं। इसकी वजह ये है कि जेनेटिक सीक्वेंस के बदले अमीर देशों को ऐसे सीक्वेंस से विकसित टीकों और अन्य उत्पादों को कम कीमत पर गरीब देशों को उपलब्ध कराना होगा।
वार्ता के लिए आए प्रस्तावों में डब्ल्यूएचओ के समन्वय से प्रयोगशालाओं का जाल बिछाना, पीएबीएस डेटाबेस और स्टैंडर्ड मैटेरियल ट्रांसफर एग्रिमेंट जैसे कानूनी उपकरणों की स्थापना शामिल है। अफ्रीकी सदस्य शासन-प्रशासन और जवाबदेही को लेकर स्पष्ट रूप से परिभाषित नियमों के साथ बहुपक्षीय पीएबीएस पर अडिग हैं।
वैक्सीन उत्पादकों द्वारा 10 प्रतिशत टीकों को दान के उद्देश्य से अलग रखे जाने और निम्न-आय वाले देशों को उपलब्ध कराने के लिए और 10 प्रतिशत टीकों को डब्ल्यूएचओ को लागत मूल्य पर उपलब्ध कराने से जुड़े एक अन्य प्रस्ताव को पहले ही रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया है। इसकी वजह ये है कि अमीर देशों और बड़ी दवा कंपनियों ने इसे अव्यावहारिक बताया है।
कोविड-19 महामारी के अनुभव ने अविश्वास की खाई को और गहरा किया है। 2021 के अंत तक अमीर देशों के 90 प्रतिशत से भी ज्यादा लोगों को कोविड टीकों के दो डोज लग चुके थे, जबकि गरीब देशों की 2 प्रतिशत से भी कम आबादी को वैक्सीन के दो डोज मिल पाए थे। ये एक संजीदा हकीकत है कि डब्ल्यूएचओ एक ओर 2025 तक महामारी संधि को अमली जामा पहनाने की उम्मीद पाले है, वहीं दूसरी ओर पीएबीएस समझौते को अंतिम रूप देने की तारीख पर बेहद लचीला रुख अपनाए हुए है। इस लक्ष्य तक पहुंचने की तारीख मई 2026 है।