भारत में टीबी के इलाज पर भारी कीमत चुका रहे हैं रोगी, 7 से 9 सप्ताह देरी से शुरू होता है इलाज
एक नए अध्ययन से पता चला है कि भारत में तपेदिक (टीबी) के रोगियों द्वारा उपचार के लिए भारी कीमत चुकाई जा रही है। यह अध्ययन जॉर्ज इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ इंडिया के शोधकर्ताओं ने नागपुर के इंदिरा गांधी सरकारी मेडिकल कॉलेज और लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के शोधकर्ताओं के साथ मिलकर किया है।
यह अध्ययन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की टीबी उन्मूलन रणनीति के तहत किया गया है, जिसमें टीबी से पीड़ित परिवारों के लिए बिना खर्च के इलाज हासिल करने हेतु देशों के लिए एक खाका तैयार किया गया है। भारत में इस बीमारी के कारण होने वाले आर्थिक नुकसान के चिंताजनक आंकड़े सामने आए हैं। दुनिया भर में टीबी के सबसे अधिक मामले वाले देशों के साथ, 2022 दर्ज किए गए मामले 24.2 लाख तक पहुंच गए।
शोधकर्ताओं ने भारत के चार राज्यों असम, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में 1,482 दवा के प्रति अतिसंवेदनशील टीबी रोगियों के समूह का सर्वेक्षण किया। विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देशों का अनुसरण करते हुए, अध्ययन में उपचार पर खर्च होने वाली धन राशि की गणना की गई, जिसमें प्रत्यक्ष, यानी वास्तव में खर्च किया गया धन और अप्रत्यक्ष रूप से खर्च होने वाला धन, जैसे समय, उत्पादकता और आय का नुकसान दोनों शामिल थे।
शोधकर्ता ने शोध के हवाले से कहा, दवा के प्रति अतिसंवेदनशील टीबी रोगियों के सबसे बड़े समूह के अध्ययन ने निष्कर्ष निकाला है कि प्रतिभागियों के एक बड़े अनुपात को भारी खर्च का बोझ उठाना पड़ा। जब कुल लागत गणना पद्धति में टीबी उपचार के कारण आय के नुकसान पर विचार किया गया तो अनुपात बहुत अधिक था। इसलिए, टीबी उपचार के दौरान आजीविका में रुकावट न की जाए यह सुनिश्चित करना बहुत जरूरी है।
शोधकर्ता ने शोध में कहा, हमारे अध्ययन में टीबी के लक्षण शुरू होने से लेकर जांच तक में काफी देरी देखी गई और प्रतिभागियों द्वारा उपचार शुरू करने से पहले ही उपचार पर खर्च होने वाले धन का आधे से अधिक खर्च कर दिया गया। इसके अलावा इस अवधि के दौरान, मरीजों ने बीमारी को फैलाया भी। इसलिए, जांच से पहले की देरी को कम करना नीतिगत प्राथमिकता होनी चाहिए।
अध्ययन के मुताबिक, अप्रत्यक्ष लागत की गणना की विधि के आधार पर, अध्ययन में शामिल प्रतिभागियों में से 30 से 61 फीसदी को भारी खर्च का बोझ उठाना पड़ा।
सबसे बड़ी चिंता की बात यह थी कि जिन प्रतिभागियों को भारी कीमत चुकानी पड़ी, उनमें से आधे से ज्यादा के टीबी का इलाज शुरू होने से पहले ही जांच में देरी के कारण खर्चे भयावह हो गए। अध्ययन के अनुसार, लक्षण शुरू होने से लेकर इलाज शुरू होने तक औसतन सात से नौ सप्ताह की देरी, जो स्वीकृत देरी अवधि से दोगुनी है, इसके कारण बार-बार परामर्श, जांच और यात्रा से लेकर भारी खर्च का बोझ उठाना पड़ा।
अध्ययन के नतीजे मरीजों और देश पर इस बोझ को कम करने के लिए नीति और सार्वजनिक हस्तक्षेप दोनों की तुरंत जरूरत की बात को उजागर करते हैं। यह अध्ययन पीएलओएस ग्लोबल पब्लिक हेल्थ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।