बिहार के मुजफ्फरपुर के सदर अस्पताल परिसर में बने बीस बेड वाले पोषण पुनर्वास केंद्र में सिर्फ आठ बच्चे भर्ती हैं। वहां एक स्टाफ नर्स, एक कुक और एक वार्ड ब्वाय था। इस केंद्र में पदस्थापित अन्य दो स्टाफ नर्स की ड्यूटी उस वक्त नहीं थी और बताया गया कि यहां पदस्थापित चिकित्सा अधिकारी सिर्फ राउंड देने आते हैं। सबसे आश्चर्यजनक बात यह बतायी गयी कि बच्चों को कुपोषण से उबारने के लिए बने इस केंद्र में जहां दो पोषण विशेषज्ञ होने चाहिए थे, उस वक्त एक भी पदस्थापित नहीं था। संवाददाता गुरुवार 4 जुलाई को जब यहां पहुंचे तो यह सब देखने को मिला।
वहां मौजूद स्टाफ नर्स गायत्री देवी ने बताया कि तीन बच्चे कल ही एडमिट हुए हैं, इससे पहले पांच ही बच्चे थे। यह आश्चर्य का विषय था, क्योंकि इसी मुजफ्फरपुर जिले में जून महीने में 185 से अधिक बच्चों की मौत एइएस की वजह से हुई है और सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 615 बच्चे इस रोग की चपेट में आये हैं। इस रोग के पीछे कुपोषण को एक बड़ी वजह माना गया है, मगर जिले के गंभीर रूप से अति कुपोषित बच्चों के लिए इलाज के लिए बने पोषण पुनर्वास केंद्र में सिर्फ आठ बच्चे ही भर्ती थे।
1995 से ही चमकी बुखार का प्रकोप झेलने वाले मुजफ्फरपुर जिले में 47.9 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। इनमें से सात फीसदी अति कुपोषित होंगे और उनमें तकरीबन 15 फीसदी बच्चे जो गंभीर रूप से अति कुपोषित होंगे, उन्हें तत्काल ऐसे केंद्र में इलाज की जरूरत होगी। मगर सदर अस्पताल परिसर में बना यह केंद्र जहां कुल मिलाकर ठीक-ठाक व्यवस्था थी, के आधे से अधिक बेड खाली पड़े थे।
नर्स गायत्री देवी ने बताया कि उन्हें तो यहां की ड्यूटी 29 जून को ही मिली है, इसलिए उन्हें इस बारे में विशेष जानकारी नहीं है, मगर यहां के पुराने कर्मचारी बताते हैं कि यहां कम बच्चे ही इलाज कराने आते हैं। उनमें भी ज्यादातर आसपास के गांवों के। दूर दराज के गांव से लोग यहां नहीं आते हैं, क्योकि इलाज के दौरान माता को बच्चे के साथ कम से कम दो हफ्ते ठहरना पड़ता है। हालांकि यहां उनके ठहरने के एवज में माताओं को 50 रुपये प्रति दिन के हिसाब से सहायता राशि भी दी जाती है, मगर इसके बावजूद अपना परिवार छोड़कर वे दो हफ्ते यहां ठहरना नहीं चाहते। क्योकि उनके दूसरे बच्चे भी होते हैं, जिन्हें वे घर में अकेला नहीं छोड़ सकतीं।
सरकारी आंकड़े भी गायत्री देवी की बात की तस्दीक करते हैं। नौ लाख अति कुपोषित बच्चों वाले राज्य बिहार में हर साल बमुश्किल छह से सात हजार बच्चों का ही पूरा इलाज इन पोषण पुनर्वास केंद्रों में हो पाता है। राज्य में 2011-12 में तकरीबन हर जिले में एक पोषण पुनर्वास केंद्र की स्थापना हुई, फिलहाल शिवहर जिले को छोड़ कर हर जिले में एक पोषण पुनर्वास केंद्र है। इनमें 18 पीपीपी मॉडल के तहत गैर सरकारी संस्थाओं की मदद से संचालित हो रहे हैं, 12 का संचालन सरकारी संस्थाओं द्वारा हो रहा है, शेष 7 को 30 जून से गैर सरकारी संस्थाओं के हाथ से लिया गया है और यहा अब सरकारी संस्थाओं द्वारा इन केंद्रों का परिचालन शुरू होना है। इनमें सभी केंद्रों में 20-20 बेड की सुविधा है, इसके अतिरिक्त नालंदा, पटना औ दरभंगा के मेडिकल कॉलेज में 10-10 बेड के पोषण पुनर्वास केंद्र अलग से हैं। इन केंद्रों में उपचारित होने वाले बच्चों की वर्षवार संख्या इस प्रकार है।
वर्ष नामांकित स्वस्थ होकर लौटे बच्चे
2011-12 4999 3620
2012-13 8377 6646
2013-14 8692 6814
2014-15 8937 7178
2015-16 8397 6198
2016-17 9138 6892
कुल 48,540 37,348
यानी 2011 से 2017 के बीच कुल छह वर्षों में 37,348 गंभीर रूप से अति कुपोषित बच्चों का ही इलाज इन पोषण पुनर्वास केंद्रों में हो पाया है। इस दौरान इन केंद्रों में 44 से 50 फीसदी बेड हमेशा खाली रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 2016-17 में इन केंद्रों की बेड आकुपेंसी दर 50 फीसदी थी, जो 2017-18 की पहली तिमाही में 56 फीसदी हो गयी। इसके बाद के नामांकन और बेड आकुपेंसी के आंकड़े मिल नही पाये हैं। जाहिर है, इस गति से राज्य को अति गंभीर कुपोषण के खतरे से मुक्त कराना असंभव सा लगता है।
बीस बेड के इन पोषण पुनर्वास केंद्रों में एक चिकित्सा अधिकारी, दो पोषण विशेषज्ञ, आठ नर्स समेत 17 स्वास्थ्य कर्मी के पद सृजित हैं।
बिहार में एक पोषण पुनर्वास केंद्र में इतने कर्मी होने चाहिए
चिकित्सा पदाधिकारी- 1
पोषण सलाहकार- 2
स्टाफ नर्स- 8
रसोइया- 2
वार्ड सहायक- 2
सफाई कर्मी- 1
समुदाय आधारित समन्वयक- 1
फिलहाल इन 40 केंद्रों में 52 चिकित्सक, 58 पोषण विशेषज्ञ, 232 स्टाफ नर्स कार्यरत हैं। मुंगेर के केंद्र में तो बीस बेड वाले केंद्र में चार-चार चिकित्सक तैनात हैं, जो तय मानक से दो अधिक है। हालांकि कई केंद्रों में स्टाफ की संख्या मानक के अनुरूप काफी कम है, जैसे मुजफ्फरपुर का केंद्र सिर्फ तीन नर्स औऱ दो सहयोगी स्टाफ के भरोसे चल रहा है, चिकित्सक यहां सिर्फ राउंड लगाने आते हैं, पोषण विशेषज्ञ भी नहीं है। वहीं जेइ के प्रभावित गया के केंद्र में पूर्णकालिक चिकित्सक भी नहीं है। मगर जिस तरह इन केंद्रों में इलाज कराने के लिए जरूरत से काफी कम बच्चे पहुंचते हैं, उस स्थिति में स्टाफ की यह संख्या भी काफी अधिक है, खास तौर पर यह देखते हुए कि राज्य में चिकित्सकों के 57 फीसदी और नर्सों के 71 फीसदी पद खाली हैं।
जारी ...