दुनिया का कोई दूसरा देश लोगों को मृत्यु के गैस चैंबर में नहीं भेजता : सुप्रीम कोर्ट  

मैला ढ़ोने की कुप्रथा पर 26 वर्ष पहले ही सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय सन्निर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम, 1993 के तहत पाबंदी लगाई गई थी। हालांकि, अब भी यह जारी है।
Photo: Vikas Choudhary
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जानलेवा सीवर गड्ढ़ों में उतरकर सीवेज की सफाई और मैला ढोने की कुप्रथा पर सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर चिंता जाहिर की है। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी तल्ख टिप्पणी में कहा है कि दुनिया में कोई दूसरा देश ऐसा नहीं है जो लोगों को “ मृत्यु के गैस चैंबर” में भेजता हो।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आजादी के 70 वर्ष बीत चुके हैं इसके बावजूद देश में जाति का शोषण कायम है। जस्टिस अरुण कुमार मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने केंद्र की ओर से पेश अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल से सवाल किया कि आखिर मैला ढ़ोने और मैनहोल की सफाई के लिए गड्ढ़ों में उतरने से पहले लोगों को मास्क और ऑक्सीजन सिलेंडर जैसे सुरक्षा यंत्र क्यों नहीं मुहैया कराए जाते हैं? मामले की सुनवाई में जस्टिस एमआर शाह और बीआर गवई भी पीठ में शामिल थे।

पीठ ने एक मामले की सुनवाई के दौरान अपनी टिप्पणी में कहा कि हर महीने इस कुप्रथा के चलते चार से पांच लोगों की मृत्यु की खबर आती है। आखिर कौन सा देश अपने लोगों को मरने के लिए गैस चैंबर में भेजता है।

बिना किसी सुरक्षा और बचाव यंत्रों के घंटो लटककर सीवर गड्ढ़ों और सेप्टिक टैंक की हाथ से सफाई के दौरान सैकड़ों सफाईकर्मियों की मृत्यु होती है। चोक सीवर गड्ढ़ों से निकलने वाली जहरीली गैसों के कारण सफाईकर्मी का दम घुट जाता है, लिहाजा सफाई कर्मी को जान गंवानी पड़ती है। विषम परिस्थितियों में सीवर गड्ढ़ों में ढ़केले जाने वाले सफाईकर्मियों की स्थिति पूरे देश में ही खराब है।

देश की राष्ट्रीय रजधानी दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र एनसीआर में जब सीवर गड्ढ़ों और मैनहोल की सफाई यांत्रिक तरीके से नहीं की जा रही है तो देश के अन्य भागों का आप अंदाजा लगा सकते हैं। इस वर्ष के शुरुआत में ही दिल्ली के वजीराबाद में एक सफाईकर्मी की मौत का मामला सामने आया था। फिर अगस्त में ही उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद में पांच सफाई कर्मियों की सीवर के गड्ढ़े की सफाई के दौरान मौत हो गई। इसी तरह डाउन टू अर्थ की बीते वर्ष 10 सितंबर की रिपोर्ट के मुताबिक भी 10 सफाई कर्मियों की मौत दिल्ली में हुई थी। यह सिलसिला कई वर्षों से चलता आ रहा है। हर महीने मौतें हो रही हैं।

गैर सरकारी संगठन सफाई कर्मचारी आंदोलन के मुताबिक मैला ढ़ोने की कुप्रथा पर 26 वर्ष पहले ही सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय सन्निर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम, 1993 के तहत पाबंदी लगाई गई थी। हालांकि, अब भी यह जारी है। यह पेशा इसलिए भी है क्योंकि अब भी देश में शुष्क शौचालय बाकी हैं। देश में करीब 26 लाख शुष्क शौचालय हैं जिनकी सफाई हाथों के जरिए ही करनी पड़ती है।  

चेन्नई स्थित चेंज इंडिया के निदेशक ए. नारायणन के मुताबिक यह एक संरचनात्मक दिक्कत भी है जो लोगों को सेप्टिक टैंक में उतरने के लिए विवश करता है। सेप्टिक टैंक की डिजाईन बेहद खराब है। इनमें इंजीनियरिंग के लिहाज से खामी है। मशीन इनकी सफाई नहीं कर सकती हैं। ऐसे में व्यक्तियों को ही सेप्टिक टैंक में ढकेला जाता है।  

 स्वच्छ भारत मिशन के बाद से स्थिति और खराब हो गई है क्योंकि ग्रामीण भारत में बड़ी संख्या में सेप्टिक टैंक बनाए गए हैं। 2019 तक करीब 3 करोड़ सेप्टिक टैंक और गड्ढ़े अकेले गंगा किनारे बनाए जाने हैं। यदि मल प्रबंधन को लेकर इस पर प्रमुखता से ध्यान केंद्रित नहीं किया गया तो बड़ी मुसीबत खड़ी हो सकती है।

बीते वर्ष की डाउन टू अर्थ की ही रिपोर्ट में सफाई कर्माचरी आंदोवन के विल्सन के हवाले से कहा गया है कि बिना सही तकनीकी और यांत्रिकी के इस कुप्रथा का अंत मुश्किल है। कुछ जगहों पर इन तकनीकी का इस्तेमाल किया जा रहा है। मसलन हैदरादाबाद जल आपूर्ति और सीवेज बोर्ड के जरिए मिनी जेटिंग मशीनों का इस्तेमाल किया जा रहा है जो सीवर पाइप की सफाई के लिए संकरे और छोटे रास्तों में भी आसानी से पहुंच सकते हैं। वहीं तिरुवनंतपुरम में भी इंजीनयर्स के एक समूह ने स्पाइडर आकार का रोबोट बनाया है जो मैनहोल्स की सफाई करने में सक्षम है।

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