भारत में एक विशाल आबादी कृषि से जुड़ी हुई है, जिसे खेती-बाड़ी करते समय प्रायः वनस्पति-जनित ट्रॉमा या आघात का सामना करना पड़ता है। वनस्पतियों के संपर्क में आने से आँखों में होने वाले रोग इसके उदाहरण हैं। आँखों के ट्रॉमा से जुड़ी घटनाएं आमतौर पर संक्रमित वनस्पति पदार्थों जैसे - पौधे की पत्तियों के कारण होती हैं। यह समस्या अक्सर आँखों में कॉर्निया के फंगल संक्रमण या फंगल केराटाइटिस का रूप धारण कर लेती है।
डब्ल्यूएचओ के अनुसार, विकासशील देशों में फंगल केराटाइटिस एक आँख में नेत्रहीनता का प्रमुख कारण है। मशहूर शोध पत्रिका लैंसेट में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन के अनुसार, दक्षिणी एशिया एवं भारत में हर साल इस तरह के सर्वाधिक मामले सामने आते हैं, और भारत में कुल माइक्रोबियल केराटाइटिस की घटनाओं में से 50% से अधिक फंगल केराटाइटिस के मामले होते हैं।
गंभीर स्थिति में फंगल केराटाइटिस के लिए वर्तमान में उपलब्ध दवाएं कम प्रभावी हैं। इसके लिए कम प्रभावी ड्रग पेनिट्रेशन, दवा की खराब जैव-उपलब्धता और उसकी फंगल-रोधी प्रभावकारिता विशेष रूप से जिम्मेदार माने जाते हैं। यूएस-एफडीए से अनुमोदित नैटामाइसिन फंगल केराटाइटिस के उपचार में प्राथमिक रूप से उपयोग होती है। लेकिन, आँखों में इस दवा का प्रभावी रूप से न पहुँच पाना एक चुनौती है, जिसके कारण लंबे समय तक इस दवा की लगातार खुराक की आवश्यकता होती है, जिससे रोगियों को असुविधा होती है।
आईआईटी दिल्ली के कुसुमा स्कूल ऑफ बायोलॉजिकल साइंसेज की प्रोफेसर अर्चना चुघ के नेतृत्व में उनके शोध छात्र - डॉ आस्था जैन, हर्षा रोहिरा, और सुजीत्रा शंकर फंगल केराटाइटिस के उपचार के लिए बेहतर फंगल-रोधी रणनीति विकसित करने के लिए काम कर रहे हैं। यह अध्ययन डॉ. सीएम शाह मेमोरियल चैरिटेबल ट्रस्ट ऐंड आई लाइफ, मुंबई की नेत्र रोग विशेषज्ञ और कॉर्निया विशेषज्ञ डॉ सुष्मिता जी. शाह के साथ मिलकर किया जा रहा है।
शोधकर्ताओं की टीम ने उपचार के दौरान आँखों में नैटामाइसिन दवा के प्रवेश को प्रभावी बनाने के लिए पेप्टाइड-आधारित फंगल-रोधी रणनीति को सफलतापूर्वक विकसित किया है। विकसित पेप्टाइड-दवा संयुग्म ने प्रयोगशाला में एक प्रभावी फंगल-रोधी प्रभाव दिखाया है।
प्रोफेसर अर्चना चुघ ने बताया कि "इन पेप्टाइड्स को कोशिकाओं में अणुओं को अपने साथ ले जाने की क्षमता के लिए जाना जाता है। जब खराब पारगम्य क्षमता वाले नैटामाइसिन को पेप्टाइड से जोड़ा गया, तो इस तरह गठित मिश्रण ने बेहतर फंगल-रोधी प्रभाव दिखाया।"
खरगोशों पर किए गए अपने शोध अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पाया कि संयुग्मित दवा का प्रवेश नैटामाइसिन की तुलना में पाँच गुना अधिक था। इस प्रकार दवा की खुराक की आवृत्ति को कम किया जा सकता है। इसी तरह, चूहों पर किए गए परीक्षण में नये संयुग्म से फंगल संक्रमण के उपचार को 44 प्रतिशत चूहों में प्रभावी पाया गया। जबकि, सिर्फ नैटामाइसिन से उपचारित चूहों के मामले में यह संख्या सिर्फ 13 प्रतिशत थी। यह अध्ययन हाल ही में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ फार्मास्युटिक्स में प्रकाशित किया गया है।
इस अध्ययन में, पशु आधारित परीक्षण नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ बायोलॉजिकल्स, नोएडा की एनिमल फैसिलिटी की प्रमुख डॉ शिखा यादव के सहयोग से किया गया है। यह अध्ययन जैव प्रौद्योगिकी विभाग और नैनो-मिशन, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार के अनुदान पर आधारित है।
डॉ. सुष्मिता जी. शाह ने कहा, "चिकित्सकों और वैज्ञानिकों के बीच सहयोग नई और बेहतर दवाओं, नैदानिक उपकरणों आदि को विकसित करने के लिए महत्वपूर्ण है, जो रोगियों की देखभाल में सुधार कर सकते हैं। हम अब तक प्राप्त परिणामों से बहुत उत्साहित हैं और उद्योग एवं अन्य संबंधित एजेंसियों की भागीदारी के साथ चिकत्सीय परीक्षण शुरू करने के लिए तैयार हैं।”
नई दिल्ली स्थित डॉ. श्रॉफ चैरिटी नेत्र हॉस्पिटल में नवाचार निदेशक डॉ. वीरेंद्र सिंह सांगवान ने इस अध्ययन के बारे में कहा है कि “इस अध्ययन ने फंगल केराटाइटिस के उपचार के लिए स्पष्ट रूप से नैटामाइसिन के संयुग्मित रूप की बढ़ी हुई पैठ और प्रभावशीलता का प्रदर्शन किया है। भारत और अधिकांश विकासशील देशों में फंगल केराटाइटिस एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है। वर्तमान में उपलब्ध उपचार जैसे नैटामाइसिन की कॉर्निया में खराब पैठ है। इसीलिए, उपचार में देरी से प्रतिक्रिया मिलती है।”
(लेखक इंडिया साइंस वायर, विज्ञान प्रसार से जुड़े हैं)