मध्यप्रदेश: 16 साल में 17 लाख शिशुओं की मौत, आईएमआर में फिर सबसे ऊपर

रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया द्वारा सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे में मध्यप्रदेश लगातार 15वीं बार शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में सबसे ऊपर रहा
रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया द्वारा मई 2020 में सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे के जारी आंकड़ों में मध्यप्रदेश लगातार 15वीं बार शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में सबसे ऊपर रहा। फोटो: मनीष चंद्र मिश्र
रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया द्वारा मई 2020 में सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे के जारी आंकड़ों में मध्यप्रदेश लगातार 15वीं बार शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में सबसे ऊपर रहा। फोटो: मनीष चंद्र मिश्र
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रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया द्वारा मई 2020 में सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे के जारी आंकड़ों से यह तय हो गया कि मध्यप्रदेश लगातार 15वीं बार शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में सबसे अव्वल रहा। 2018 के आंकड़ों को लेकर जारी यह ताजा रिपोर्ट बताती हैं कि 2017 के मुकाबले एक अंक की बढ़ोतरी के साथ मध्यप्रदेश का आईएमआर 48 हो गया, यानी प्रति हजार जन्म पर 48 शिशुओं की मौत। वर्ष 2004 के बाद से ही मध्यप्रदेश की स्थिति शिशु मृत्यु दर के मामले में देश में सबसे खराब रही है।

वर्ष 2017 के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में यह दर एक अंक और शहरी इलाकों में 4 अंक बढ़ा है जो कि चौंकाने वाला है। पिछले 15 वर्षों में इस दर में लगातार कमी आ रही थी और 2016 और 2017 में दर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। ऐसा पहली बार हुआ कि आईएमआर में वृद्धि दर्ज की गई है।

जनगणना के आंकड़ों के आधार पर आईएमआर का विश्लेषण करने पर शिशु की मौत का आंकड़ा भी काफी चौंकानेवाला है। आंकड़ों के विशेषज्ञ और विकास संवाद के रिसर्च एसोसिएट अरविंद मिश्रा ने वर्ष 2000 से 2018 तक के आईएमआर और सेंसस के आंकड़ों की गणना कर पाया कि कि इस दौरान 17,68,500 शिशुओं की मौत हुई है।

मध्यप्रदेश में शिशुओं की यह हालत तब है जब सरकार इन्हीं वर्षों में विकास के तमाम दावे करती आई है। प्रदेश सरकार ने कृषि विकास दर (18-20%) और आर्थिक विकास दर (करीब 10-12%) को हमेशा राष्ट्रीय औसत से अधिक रहने का दावा किया है।

कृषि विकास में भी आगे

पिछले 15 वर्षों में प्रदेश शिशु मृत्यु दर में भले ही देश में सबसे आगे रहा हो लेकिन इशी दौरान प्रदेश ने आर्थिक विकास के कई दावे किए। मध्यप्रदेश प्रदेश को वर्ष 2011 से लगातार कृषि उत्पादन में अव्वल रहने की वजह से केंद्र की ओर से कृषि कर्मण पुरस्कार दिया जा रहा है। वर्ष 2011-12, 2012-13 और वर्ष 2014-15 में कुल खाद्यान्न उत्पादन में मध्यप्रदेश को यह अवार्ड मिला था। वर्ष 2013-14 में भी मध्य प्रदेश को यह पुरस्कार गेहूं उत्पादन के क्षेत्र में मिला था।

मध्य प्रदेश में गेहूं उत्पादन में वर्ष 2014-15 के मुकाबले वर्ष 2015-16 में 7.64 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। प्रदेश में गेहूं की उत्पादकता 2015-16 में बढ़कर 3,115 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गई जबकि इससे पहले यह 2,850 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी। प्रदेश को वर्ष 2016-17 में गेहूं उत्पादन (219 लाख मीट्रिक टन) और वर्ष 2017-18 में दलहन उत्पादन (81.12 लाख मीट्रिक टन) में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए कृषि कर्मण पुरस्कार मिला है। वर्ष 2020 में जारी ताजा आंकड़ों में गेहूं की उत्पादकता 3537 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है।

प्रदेश के तत्कालीन कृषि मंत्री किसान कल्याण एवं कृषि विकास मंत्री गौरीशंकर बिसेन ने वर्ष 2018 में कहा था कि मध्य प्रदेश देश में इकलौता राज्य है कि जिसकी पिछले चार वर्ष में औसत कृषि विकास दर 18 प्रतिशत प्रतिवर्ष से अधिक रही है। इन चार वर्षों में कृषि उत्पादन 2.24 करोड़ मीट्रिक टन से बढ़कर 5.42 करोड़ मीट्रिक टन हो गया।

मध्यप्रदेश सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इसी दौरान राज्य में कृषि उत्पाद की भंडारण क्षमता 92 लाख मीट्रिक टन से बढ़कर 184 लाख मीट्रिक टन हो गई। सरकार द्वारा ताजा जारी आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2017-18 में मध्यप्रदेश में 436.35 लाख मीट्रिक टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ था और कुल सिंचित भूमि 113.94 लाख हेक्टेयर है।

कहां हो गई चूक

सरकार ने इस दौरान शिशु मृत्यु दर कम करने के लिए अस्पताल की बुनियादी हालत सुधारने से लेकर सामुदायिक स्तर पर कई प्रयास किए, लेकिन मृत्यु दर के मामले में देशभर में प्रदेश की स्थिति खराब ही रही। ऐसे में सवाल उठता है कि नीति निर्धारकों से कहां चूक हो गई। मध्यप्रदेश में पिछले कई वर्षों से पोषण, बाल अधिकार और खाद्य सुरक्षा पर काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता सचिन कुमार जैन ने सरकार की नीतियों को बेदह करीब से देखा है।

डाउन टू अर्थ से बातचीत में वह बताते हैं, “सरकार ने समुदाय को लेकर यह धारणा बना ली कि लोगों में मान्यताओं और जागरुकता की कमी है। हालांकि यह बात सच ही कि कई समुदाय में स्तनपान, मातृत्व स्वास्थ्य को लेकर भ्रांतियां हैं। सरकार ने अपना पूरा जोर इन भ्रांतियों को दूर करने के लिए कैंपेन में लगा दिया। आज 18 साल के बाद मेरी जो समझ बनती है उससे मैं कह सकता हूं कि इस मुद्दे को लेकर सरकारी की जो समझ थी वह पूरी तरह सही नहीं थी। भ्रांतियों के अलावा भी एक समस्या है जिसे आज भी नकारा जा रहा है, वह है मातृत्व देखभाल और मां के हकों का मामला। इनमें माताओं को 9 महीने के दौरान सही देखभाल, उन्हें बेहतर चिकित्सीय परामर्श मिलना और उन्हें आराम मिलना जैसी सुविधाएं शामिल है।”

जैन आगे कहते हैं कि इसका उदाहरण देखता हो तो हालिया स्थिति देख लें जिसमें गर्भवती महिलाएं सैंकड़ों किलोमीटर चलकर पैदल अपने घर जा रही हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पलायन करने वाली गर्भवति महिलाएं किस स्थिति में काम करती होंगी। गर्भवति महिलाओं के लिए सरकार 2.5 हजार करोड़ रुपए खर्च करती है, जबकि हर साल 2.5 करोड़ जन्म के लिए यह बजट काफी नहीं है। 90 प्रतिशत असंठित क्षेत्र में किसी लाभ को कैसे पहुंचाया जा सकता जब सरकार के पास मजदूरों का पंजीयन ही नहीं है? विकास इस तरह हुआ है कि आसपास रोजगार नहीं मिलता और पलायन ही एकमात्र जरिया बन गया है, जहां गर्भवति मां और नवजात बच्चों की स्वास्थ्य देखभाल नहीं हो पाती है।

जैन कहते हैं कि अगर कोई मां गर्भ के दौरान अपने भविष्य को लेकर निश्चिंत नहीं है तो वह आराम नहीं कर सकती। सरकार के मुताबिक स्तनपान को लेकर जागरुकता नहीं है, लेकिन क्या कोई ठेकेदार दिनभर के काम के दौरान किसी मजदूर मां को पांच बार 20-20 मिनट के लिए स्तनपान कराने का मौका दे सकता है क्या? जिसे सरकार लेबर रिफॉर्म के नाम से जानती है वह रिफॉर्म नहीं बल्कि एक विसंगति है। वेलफेयर स्टेट होने के बावजूद जब विकास की बात आती है तो सरकार मजदूरों से संबंधित नियमों को शिधिल कर देती है। सरकारों के लिए आर्थिक विकास का मतलब किसान, मजदूर, गर्भवती, दलित, महिला और हर तरह से वंचितों के खिलाफ नीतियां बनाना है। यही वजह है कि विकास का असर शिशु मृत्यु दर या दूसरे मानकों पर नहीं दिखता है। 

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