गुइलेन-बैरे सिंड्रोम या जीबी सिंड्रोम से पीड़ित मरीजों की संख्या में वृद्धि होने के बाद दक्षिण अमेरिकी देश पेरू ने गत शनिवार को राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल की घोषणा कर दी है। यह आपातकाल 90 दिनों के लिए लगाया गया है।
इस बारे में 10 जुलाई 2023 को पैन अमेरिकन हेल्थ आर्गेनाईजेशन (पाहो) द्वारा जारी रिपोर्ट से पता चला है कि पेरू में 08 जुलाई तक जीबी सिंड्रोम के 191 मामले सामने आ चुके हैं जबकि इसके चलते चार लोगों की मौत हो चुकी है। आइए विस्तार से समझते हैं क्या है यह गुइलेन-बैरे सिंड्रोम (जीबीएस) और कितनी गंभीर है यह बीमारी:
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक गुइलेन-बैरे सिंड्रोम (जीबीएस) या जीबी सिंड्रोम, प्रतिरक्षा प्रणाली से जुड़ा एक दुर्लभ ऑटोइम्यून विकार है, जिसमें शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली ही स्वस्थ तंत्रिकाओं (नर्व्स) पर हमला करने लगती है।
इसके चलते मांसपेशियों में कमजोरी आ सकती है। साथ ही उनका सुन्न होना या दर्द जैसे लक्षण सामने आते हैं। वहीं इसके गंभीर मामलों में पक्षाघात तक हो सकता है। यह विकार तेजी से बढ़ता है और जीवन के लिए खतरा बन सकता है।
हालांकि इससे ग्रस्त अधिकांश लोग ठीक हो जाते हैं, लेकिन उनके ठीक होने में लगने वाला समय अलग-अलग होता है। इसे बीमारी के बजाय एक सिंड्रोम कहा जाना ज्यादा सटीक है क्योंकि इसका कोई विशेष, पहचान योग्य कारण नहीं है।
इस विकार में कमजोरी एक सामान्य लक्षण है, जो सबसे पहले नजर आता है। साथ ही प्रारंभिक तौर पर हाथ-पैर सुन्न होने लगते हैं और उनमें झुनझुनी होती है। शरीर में अकड़न और ब्लड प्रेशर की समस्या पैदा हो जाती है। इस विकार में नसें क्षतिग्रस्त हो जाती हैं जिसके कारण मस्तिष्क से प्राप्त संकेतों का मांसपेशियां जवाब नहीं दे पाती।
इस विकार में मरीज को सांस लेने में तकलीफ होती है। इसके अलावा उन्हें चलने अथवा सीढ़ी चढ़ने में कठिनाई होने लगती है। कई मामलों में कमजोरी बांहों और शरीर के ऊपरी हिस्से तक फैल जाती है। इसके साथ ही उंगलियों, टखनों या कलाई में चुभन सी महसूस होती है। साथ ही बोलने, चबाने या निगलने में भी दिक्कतें हो सकती हैं। पाचन से जुड़ी समस्या बढ़ जाती है और ब्लैडर पर से कंट्रोल कम हो जाता है। इसके साथ ही दिल की धड़कन भी बढ़ सकती है।
कई बार कमजोर इतनी बढ़ जाती है कि मांसपेशियों का बिल्कुल भी उपयोग नहीं किया जा सकता और इसके चलते पक्षाघात तक हो सकता है। हालांकि यह लक्षण हर व्यक्ति में अलग-अलग हो सकते हैं।
यह विकार किसी को भी हो सकता है, लेकिन ज्यादातर मामलों में यह वयस्कों और वृद्धों को निशाना बनाता है। हालांकि कुछ मामलों में टीकाकरण के बाद भी इसके होने की घटनांए सामने आई हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार मौसमी इन्फ्लूएंजा और दाद से बचाव के टीकों के बाद भी जीबीएस के दुर्लभ मामले देखे गए हैं, लेकिन यह स्पष्ट तौर पर ज्ञात नहीं है कि क्या टीके जीबीएस का कारण बनते हैं। हाल ही में कोविड-19 के टीकों के बाद भी इसके मामले सामने आए थे। इसी तरह जीका वायरस के संक्रमण के बाद भी इसके कुछ मामले सामने आए थे।
अमेरिका के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर्स एंड स्ट्रोक के मुताबिक यह एक दुर्लभ विकार है जो हर वर्ष अमेरिका हर लाख लोगों में से किसी एक को प्रभावित करता है। यह विकार वंशानुगत नहीं होता है।
गुइलेन-बैरी सिंड्रोम के कारणों का स्पष्ट तौर पर पता नहीं चल सका है। इसे समझने के लिए चिकित्सा क्षेत्र में शोध किए जा रहे हैं। हालांकि इसके करीब आधे मामलों में, वायरल या अन्य संक्रमण का हालिया इतिहास रहा है। इसी तरह कमजोर प्रतिरोधक क्षमता वाले लोगों में भी इसके होने का खतरा कुछ ज्यादा होता है।
वहीं रेयर मामलों में जीबी सिंड्रोम टीकाकरण, सर्जरी या आघात के बाद हो सकता है। वैज्ञानिक इसके लिए प्रतिरक्षा प्रणाली के नसों पर किए हमले को जिम्मेवार मानते हैं। सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के मुताबिक कई मरीजों ने डायरिया या सांस से जुड़ी बीमारी के बाद इसके लक्षण महसूस किए हैं। इंफेक्शन को इसका आम रिस्क फैक्टर माना जाता है
इस सिंड्रोम की पहचान करना मुश्किल होता है। इसके लिए कोई एक नैदानिक परीक्षण नहीं है। ऐसे में मांसपेशियों की कमजोरी और सजगता, तंत्रिका संवेदना और संवेदी परिवर्तनों की जांच के लिए कई परीक्षणों का उपयोग किया जाता है। साथ ही संदेह होने पर डॉक्टर स्पाइनल फ्लूइड के नमूनों की जांच करते हैं। जहां इसमें प्रोटीन का लेवल जांचा जाता है क्योंकि जीबीएस के पेशेंट में ये लेवल हाई होता है।
अब तक गुइलेन-बैरी सिंड्रोम को रोकने का कोई ज्ञात तरीका नहीं है। विशेषज्ञों की मानें तो जीबी सिंड्रोम से बचाव के लिए नियमित और संतुलित आहार जरूरी है। साथ ही व्यायाम के साथ-साथ योग और मेडिटेशन की सलाह दी जाती है।
देखा जाए तो कमजोर प्रतिरोधक क्षमता वाले लोगों में भी इसके होने का खतरा कुछ ज्यादा होता है। ऐसे में इससे बचाव के लिए डॉक्टरों ने रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने पर जोर दिया है।
इस विकार का अब तक कोई सटीक उपचार नहीं मिल सका है। ऐसे में इसके उपचार में विभिन्न दृष्टिकोण शामिल किए जा सकते हैं। यदि किसी में इससे जुड़े लक्षण सामने आते हैं तो तुरंत डॉक्टर से संपर्क करने की सलाह दी गई है।
ऐसे मामलों में जहां सांस लेना मुश्किल हो जाता है, वेंटिलेटर की मदद ली जाती है। इसके दो विशिष्ट उपचार, प्लाज्माफेरेसिस और इम्युनोग्लोबुलिन थेरेपी (आईवीआईजी), बीमारी की रफ्तार को धीमा करने में मददगार पाए गए हैं।
बता दें कि प्लास्मफेरेसिस, एक ऐसी प्रक्रिया है जो प्लाज्मा से लाल और सफेद रक्त कोशिकाओं को अलग करती है और उन्हें शरीर में लौटाती है। इसके तहत रोगी के शरीर से उन एंटीबॉडीज को अलग किया जाता है, जो नसों पर हमला कर रही होती हैं और फिर ब्लड को वापस शरीर में चढ़ा दिया जाता है।
वहीं इम्युनोग्लोबुलिन, इंसान के रक्त का ही एक हिस्सा है जो इसमें फायदेमंद हो सकता है। इसकी मदद से नर्व्स को नुकसान पहुंचाने वाले एंटीबॉडीज को न्यूट्रलाइज किया जाता है। हालांकि इलाज में लगने वाला समय अलग-अलग हो सकता है, जो कुछ हफ्तों से लेकर कई वर्षों तक चल सकता है।
कमजोर प्रतिरोधक क्षमता वाले लोगों में गुइलेन-बैरी सिंड्रोम के होने का खतरा कुछ ज्यादा होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक गुइलेन-बैरे सिंड्रोम अक्सर संक्रमण के बाद होता है। यह संक्रमण बैक्टीरियल या वायरल हो सकता है।
कई मामलों में कोविड-19 वैक्सीन लेने के बाद मरीजों में इसके संक्रमण की जानकारी सामने आई है।
नहीं, जीबी सिंड्रोम एक से दूसरे व्यक्ति में नहीं फैलता है।
एक स्टडी में दावा किया गया है कि भारत में वैक्सीन (कोविशील्ड) लगवाने वालों में गुलियन बेरी सिंड्रोम देखा गया है। एनल्स ऑफ न्यूरोलॉजी में प्रकाशित रिसर्च में सामने आया है कि भारत में कोविड-19 की वैक्सीन लेने के बाद इस बीमारी के सात मामले सामने आ चुके हैं। गौरतलब है इन सभी ने कोविशील्ड वैक्सीन की पहली डोज लगवाई थी। इसके 10 से 22 दिनों के अंतराल में इनमें जीबी सिंड्रोम के लक्षण पाए गए थे।
इसी तरह ताइवान में भी कोविड-19 वैक्सीन लेने के दो सप्ताह के भीतर 39 मरीजों में इसकी पुष्टि हुई थी। इसी तरह जर्नल क्लिनिक्स में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन के मुताबिक एस्ट्रा जेनेका, फाइजर और जॉनसन एंड जॉनसन की वैक्सीन लेने के बाद गुइलेन-बैरे सिंड्रोम के 19 मामले सामने आए थे।
अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कण्ट्रोल एंड प्रिवेंशन ने भी इसकी पुष्टि की थी। गौरतलब है कि 1976-77 में अमेरिका के न्यू जर्सी में इन्फ्लुएंजा टीकाकरण अभियान के बाद जीएस सिंड्रोम के मामले सामने आए थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन की वैक्सीन सुरक्षा पर बनाई वैश्विक सलाहकार समिति (जीएसीवीएस) ने भी 2021 में कोविड-19 वैक्सीन टीकाकरण के बाद सामने आए गुइलेन-बैरे सिंड्रोम के दुर्लभ मामलों पर चर्चा की थी और उसमें इसके होने की पुष्टि की थी।