दिसंबर 2019 में राजस्थान के कोटा स्थित जेके लोन अस्पताल में बच्चों की मौत के बाद देश में एक बार फिर से यह बहस खड़ी हो गई कि क्या बड़े खासकर सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए भर्ती हो रहे बच्चे क्या सुरक्षित हैं? डाउन टू अर्थ ने इसे न केवल आंकड़ों के माध्यम से समझने की कोशिश की, बल्कि जमीनी पड़ताल करते हुए कई रिपोर्ट्स की एक सीरीज तैयार की है। सीरीज की पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि अस्पतालों में औसतन हर मिनट में एक बच्चे की मौत हो रही है। इसके बाद जमीनी पड़ताल शुरू की गई। इसमें आपने पढ़ा, राजस्थान के कुछ अस्पतालों की दास्तान कहती ग्राउंड रिपोर्ट । तीसरी कड़ी में आपने पढ़ा, मध्यप्रदेश के अस्पतालों का हाल। पढ़ें, अगली कड़ी-
ऐसा नहीं है कि दूरदराज के इलाकों में बने अस्पतालों में ही बच्चों की मौत होती है। राज्य की राजधानी हो या देश की राजधानी से सटे शहर। यहां भी अस्पतालों में मौत होती है। हम बात कर रहे हैं, उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ और राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा की। इन दोनों शहरों में करोड़ों की लागत से बने अस्पताल हैं, जहां सुविधाएं भी हैं तो फिर बच्चों की मौत क्यों हो रही हैं, आइए जानते हैं-
किंग जार्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (केजीएमयू), लखनऊ। उत्तर प्रदेश के सबसे पुराने मेडिकल संस्थानों में से एक। यहां लखनऊ के आसपास के अलावा उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र, पूर्वांचल, नेपाल व बिहार से काफी संख्या में बच्चों को इलाज कराने लाया जाता है। यहां पर 315 बच्चों को भर्ती करने की व्यवस्था है। सर्दी के इस मौसम में यहां पर रोजाना औसतन 12 से 15 बच्चे भर्ती हो रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2019 में यहां 4015 बच्चे भर्ती हुए, इनमें से 650 बच्चों की मौत हो गई।
केजीएमयू के बाल रोग विभाग में 315 बेड हैं, 6 बेड इमरजेंसी वार्ड में हैं। 50 जनरल पेशेंट के बेड हैं। बाल मरीजों की संख्या बढ़ने पर यहां भर्ती किया जाता है। कहने को यहां लगभग सभी आधुनिक सुविधाएं हैं, लेकिन बच्चों की मौत की वजह अस्पताल में 50 फीसदी स्टाफ की कमी बताया जाता है। हालांकि बाल रोग विभाग की एचओडी डॉ.शैली अवस्थी कहती हैं कि यहां पर प्रदेश के विभिन्न हिस्सों के अलावा नेपाल व बिहार से भी गंभीर तौर से रेफर किए हुए गंभीर तौर से बीमार बच्चे इलाज के लिए लाए जाते हैं। अधिक दूरी की वजह से समस्या गंभीर हो जाती है।
वहीं, केजीएमयू के आरडीए मेंबर एवं बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. मोहम्मद शीराज कहते हैं कि यदि प्राथमिक चिकित्सा केंद्र, मुख्य चिकित्सा केंद्र आदि को ठीक किया जाए तो बच्चों का इलाज समय पर होगा और बच्चों की मृत्यु भी कम होगी। मसलन यदि किसी बच्चे को झटका (दिमाग में ऑक्सीजन नहीं जा रहा है) आ रहा है तो उसे तुरंत नजदीक के अस्पताल में भर्ती कराया जाए तो उसे बचाया जा सकता है।
चाइल्ड पीजीआई, नोएडा
राजधानी दिल्ली से सटी उत्तर प्रदेश की औद्योगिक राजधानी नोएडा। यहां 2011 में सुपर स्पेशलिटी बाल चिकित्सालय एवं पोस्टग्रेजुएट शिक्षण संस्थान का निर्माण शुरू हुआ। 2016 में जब यहां इलाज शुरू हुआ तो इसे चाइल्ड पीजीआई के नाम से जाना जाने लगा। यह अस्पताल उत्तर-प्रदेश में बच्चों का पहला सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल है। चेन्नई में भी इस तरह का बच्चों का सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल है, लेकिन उसमें इतनी सुविधाएं नहीं हैं। नोएडा के चाइल्ड पीजीआई को एम्स की तर्ज पर बनाया गया है। इसके निर्माण में 700 करोड़ रुपए और अन्य संसाधन व उपकरणों पर लगभग 1500 करोड़ रुपए खर्च हुए। अस्पताल में 312 बेड स्वीकृत हैं, लेकिन तीन साल बाद भी 175 बेड ही शुरू हो पाए हैं।
सुपर स्पेशलियिटी हॉस्पिटल पूर्ण रूप से अत्याधुनिक है। इसमें इमरजेंसी में सबसे महत्वपूर्ण वेंटीलेटर की सुविधा तक है। यहां 8 वेंटीलेटर हैं, जिसमें सर्जिकल आईसीयू, मेडिकल आईसीयू व कार्डियोलॉजी आईसीयू में वेंटीलेटर तक की सुविधा भी है, लेकिन फिर भी अस्पताल में बच्चों की जान जा रही है। डॉक्टरों की संख्या भी कम होना बच्चों की जान जाने का सबसे बड़ा कारण बना हुआ है। डॉक्टरों के 70 पद स्वीकृत हैं, लेकिन अस्पताल में केवल 30 डॉक्टर ही हैं, जो यहां ओपीडी में आने वाले मरीजों की संख्या के हिसाब से कम है। 2019 में यहां ओपीडी में 80 हजार बच्चे इलाज के आए। जिसमें से 6 हजार मरीजों को भर्ती किया गया। अस्पताल प्रबंधन का दावा है कि इनमें से 30 बच्चों की मौत हुई।
चाइल्ड पीजीआई के सीएमएस डा. डीके सिंह ने बताया कि यहां गंभीर बीमारियों के मरीज ही लाए जाते हैं। जहां भी इस तरह के मरीज ले जाए जाते हैं, वहां डेथ रेट अधिक होता है। यहां अधिकांश मौतें निमोनिया व अन्य बीमारियों से होती हैं। इसके अलावा डेंगू, डायरिया, मलेरिया जैसी बीमारियों के चलते भी बच्चों की मौत होती है। वह तब होती है, जब वे गंभीर अवस्था में अस्पताल लाए जाते हैं। वह कहते हैं कि यह अस्पताल अभी शुरुआत की स्थिति में है, लेकिन आने वाले सालों में यह अस्पताल मील का पत्थर साबित होगा।
बरेली जिला अस्पताल से ज्योति पांडे की रिपोर्ट
लखनऊ और दिल्ली के बीचो-बीच 250 किलोमीटर की दूरी पर बसे बरेली को यूं तो मेडिकल हब कहा जाता है, लेकिन निजी अस्पताल के भरोसे। जिला अस्पताल की बात की जाए तो यहां अप्रैल 2019 से लेकर दिसंबर 2019 तक कुल 2700 बच्चों को इलाज के लिए भर्ती कराया गया। इनमें से 1700 बच्चे जिला अस्पताल के बच्चा वार्ड में भर्ती हुए तो 1000 के आसपास बच्चे महिला अस्पताल के सिक न्यू बोर्न केयर यूनिट (एसएनसीयू) में भर्ती कराए गए। इनमें से 180 शिशुओं ने दम तोड़ दिया। एसएनसीयू में इलाज के तमाम दावों के बाद 138 नवजात की सांसें थम गई। वहीं बच्चा वार्ड में 42 बच्चों की मौत हुई थी।
जिला अस्पताल के बच्चा वार्ड में ऑक्सीजन पाइप लाइन मौजूद है। मगर यहां वार्मर नहीं है। सिर्फ चार नेबुलाइजर, दो इन्फ्यूजन पंप और एक पल्स ऑक्सीमीटर विद मॉनिटर है। इस वार्ड में 28 बेड हैं। महिला अस्पताल के एसएनसीयू में भी सुविधाओं की कमी है। उद्घाटन के वक्त यहां चार फोटोथेरेपी मशीनें भेजी गई थी, लेकिन कुछ समय बाद ही मेडिकल कारपोरेशन ने इनको वापस ले लिया। बताया गया कि इन में कुछ कमी थी। एसएनसीयू में ऑक्सीजन पाइप लाइन भी मौजूद नहीं है। छह नेबुलाइजर, पांच इन्फ्यूजन पंप और एक वाईपेरा मॉनिटर से ही काम चल रहा है। 12 वार्मर होने को यहां की बड़ी उपलब्धि माना जा सकता है।
स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी व्यवस्थाओं में सुधार का भले ही कितना दावा करें मगर हकीकत किसी से छुपी हुई नहीं है। एक बड़ी समस्या यह है कि जिला अस्पताल के बच्चा वार्ड और महिला अस्पताल के बीच समन्वय की कमी है। इलाज के नाम पर एक दूसरे के ऊपर जिम्मेदारी डालने का काम भी होता रहता है। जिला अस्पताल से कई बार बच्चों को महिला अस्पताल में भर्ती करने के लिए भेज दिया जाता है तो कई बार महिला अस्पताल में पैदा होने वाले बच्चों को इलाज के लिए पुरुष अस्पताल के बच्चा वार्ड में भेज दिया जाता है। इस दूरी को तय करने में ही कई बार नवजात की जान चली जाती है।
जारी...