स्वाति शैवाल
बचपन से कहानियां और किस्से भारतीय परिवेश का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। घरों में इनकी सूत्रधार अक्सर दादी-नानी, मौसी-चाची और माँ हुआ करती हैं। खासकर लड़कियों के लिए। क्योंकि ये महिलाएं ही बताती हैं पहली बार पीरियड्स से लेकर पहली बार से आखिरी बार तक पति को खुश करने के लिए क्या करना है?
हालांकि अब माहौल थोड़ा बदला है, लेकिन अब भी अधिकांश लड़कियों के लिए ऐसी कहानी की सूत्रधार यही महिलाएं होती हैं। मेरी दादी ने आज से 30 साल पहले बताया था कि उनके समय में पीरियड्स आने पर औरतों और लड़कियों को एक घेरदार घाघरा (स्कर्ट की तरह) पहनाकर एक कमरे में बैठा दिया जाता था। तीन दिन तक उसी स्थिति में रहने के बाद चौथे दिन नदी पर सिर धोकर आने के बाद घर मे घुसने की इजाजत मिलती थी।
ये कहानी आज की पीढ़ी को अचंभित कर सकती है। फैंटसी की तरह। ठीक जैसे घोड़े पर आने वाले राजकुमार। क्योंकि अब तो बकायदा सोशल मीडिया पर युवतियां और महिलाएं मेंस्ट्रुअल कप को लगाने के ट्यूटोरियल्स दे रही हैं, टैम्पूंस पर बहस कर रही हैं और पीरियड्स लीव का समर्थन भी कर रही हैं। और अगर आपको लगता है कि कहानी यहीं खत्म हो गई तो आगे सुनिए। घाघरा पहनने की सुविधा भी सभी महिलाओं को नहीं थीं। वे जिनके पास पहनने को एक जोड़ी ही कपड़े होते थे, वे साधनहीन महिलाएं पीरियड्स के दौरान राख के ढेर पर बैठा दी जातीं थीं और पूरे समय ये राख का ढेर ही उनके लिए पैड का काम भी करता।
तो आज जब हमारे देश मे पीरियड के दौरान महिलाओं को दी जाने वाले छुट्टी की चर्चा जोरों पर है और कुछ संस्थान इसे बकायदा लागू भी कर चुके हैं, तब जानना जरूरी है कि महिलाओं के लिए पीरियड्स सम्बन्धी स्थितियों में कितना बदलाव आया है।
लाल कपड़े का किस्सा
यह बात मुझे बताई शहर (इंदौर) में मेरे घर के पास रहने वाले एक युवक ने जो प्रशासनिक सेवाओं की प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने अपने गांव से शहर आया है। जब मैंने उसके गांव में महिलाओं की स्थिति के बारे में जानना चाहा तो उसने कहा कि गांव में महिलाएं एक लाल कपड़े का इस्तेमाल पीरियड्स के दौरान करती हैं और इस बात ने मेरी उत्सुकता बढ़ा दी।
ये लाल कपड़ा कौतूहल का विषय था और मैं पास के एक गांव में इसकी हकीकत जानने पहुंच गई। मध्यप्रदेश के इंदौर शहर, जहां मैं रहती हूं उससे जुड़े कई छोटे-छोटे गांव है। शहर के बाहरी छोर पर राऊ- रंगवासा क्षेत्र को छोटे एवं मध्यम दर्जे के उद्योग (एमएसएमई) क्षेत्र के रूप में विकसित किया गया है।
यह शहर से लगभग जुड़े हुए इलाके हैं। इन्हीं के भीतर से जाती है सड़क इंदौर से करीब 12-15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गांव नरलाय और मोकलाय के लिए। एमएसएमई क्षेत्र के कुछ आगे तक सड़क आरसीसी की है जो गांव के पास पहुंचते पहुंचते डामर की हो जाती है।
यहीं एक खेत में आलू निकाल रही महिलाएं मौजूद हैं। इनमें से दो महिलाएं रेखा और माया बात करने को राजी होती हैं। 30- 45 की उम्र की ये महिलाएं अब भी लाल कपड़े का इस्तेमाल करती हैं क्योंकि वो सैनेटरी नैपकिन से सस्ता मिलता है।
उन्हें ज्यादातर खेतों में फसल कटाई और बिनाई-चुनाई के ही काम मिलते हैं। वो भी नियमित नहीं हैं और इसकी मजदूरी है 100-150 रुपए रोज। इतने पैसों में सैनेटरी नैपकिन लाना नामुमकिन है। लाल कपड़े को इस्तेमाल में लाने के लिए नाड़े या डोरी का इस्तेमाल किया जाता है।
इस डोरी को कमर पर बांधकर बिना किसी अन्य सहारे के कपड़ा बांधा जाता है, क्योंकि अंडरगारमेंट्स के लिए भी तो पैसे चाहिए! चार दिन या इससे अधिक रक्तस्राव होने पर भी साधन यही हैं और सबसे ज्यादा तकलीफ होती है बारिश के दिनों में क्योंकि मासिक धर्म के समय काम मे लिए जाने वाले कपड़े धोकर सुखाए जाते हैं और फिर उपयोग में लाये जाते हैं।
इनको अंधेरे कोने या घर के पिछवाड़े में इस तरह सुखाया जाता है कि किसी की नजर न पड़े, वरना शर्मिंदगी की वजह पैदा होगी। जाहिर है इस तरह कपड़ा पूरी तरह नहीं सूख पाता और नमी की वजह से वह तमाम संक्रमणों के लिए खुला निमंत्रण बन जाता है।
मैं इन महिलाओं से बात करते हुए अपने घर के बाथरूम, महंगे और ऑर्गेनिक सैनेटरी पैड्स, टैम्पून्स और मेंस्ट्रुअल कप के बारे में सोच रही हूं। ऐसा लगता है जैसे टाइम मशीन ने मुझे शहर से 12-15 किलोमीटर नहीं बल्कि 60-70 साल पहले के दादी के समय में ला पटका है।
विदा लेते-लेते उनमें से एक महिला बोलती है- "जीजी (बहन) तम लिखोगा तो हमारे यो (सैनेटरी पैड्स) मुफत मा मिल जायेगो कईं?" मतलब आपके लिखने से क्या हमको पैड्स फ्री में मिल जायेंगे? मेरे पास उनके सवाल का कोई जवाब नहीं है। मैं खिसियानी हंसी के साथ उनको धन्यवाद देती हूं तो अपनेपन से हाथ पकड़कर वह भी मुझे धन्यवाद दे देती हैं। किसलिए पता नहीं।
थोड़ा और अंदर जाने पर अब असली गांव सामने है। आबादी है करीब 100-150। कुछ पक्के, ऊंचे घर और कुछ कच्चे लिपे घर। पहला ही घर अलका का है जिसके यहां फर्श पर लिपाई (गोबर और मिट्टी से फर्श को पक्का करना) चल रही है। पास ही बैठी हैं उसकी सास और बाहर खेल रहे हैं उसके दोनों बच्चे।
5 वीं पास अलका को सैनेटरी नैपकिन्स के बारे में मालूम है। वह वही उपयोग में लाती है। हां, उसकी सास लाल कपड़ा ही इस्तेमाल में लाया करती थीं। अलका कहती है कि अब ज्यादा लोग उस कपड़े का इस्तेमाल नहीं करते।
और आगे जाने पर मिलती है एक और सास बहू की जोड़ी। सास का नाम है नर्मदा और बहू हैं मधु। उनकी पड़ोसी हैं चंदा। लाल कपड़े को लेकर नर्मदा ने थोड़ा झिझकते हुए बताया कि वे उसी का इस्तेमाल करती रही हैं और घर के पिछवाड़े में बाकी कपड़ों के नीचे उसे सुखाया करतीं थीं लेकिन 9 वीं पास मधु की पीढ़ी अब सैनेटरी नैपकिन का ही इस्तेमाल करती हैं।
मधु की 2 बेटियां हैं और वे चाहती हैं कि उनके सामने कभी ऐसी कोई समस्या नहीं आये। इसलिए वह बच्चियों को पढ़ाएंगी भी और उन्हें पहले से सैनेटरी नैपकिंस के बारे में जरूर बताएंगी।
अब कम होती है खपत
इसी गांव में एक दुकान है, जहां जरूरत का लगभग सारा सामान मिलता है। दुकान मालिक ने मेरे मांगने पर लाल कपड़ा इस जुमले के साथ सामने लाकर रख दिया कि-' आजकल इसकी मांग बहुत कम हो गई है। ज्यादातर लोग सैनेटरी नैपकिंस ही मांगते हैं। इसमें भी सस्ते वाले पैड्स हैं जो 5 रूपये का एक (पैड) भी मिलता है। दुकान जब खोली थी तब मैं 10 पीस लाल कपड़े के लाया करता था, लेकिन उसमें से आधे अभी भी नहीं बिके हैं।" एक कपड़े का आकार लगभग एक बड़े रुमाल जैसा है और यह फलालैन जैसे मटेरियल से बना है। मुझे समझ नहीं आता कि इसका उपयोग महिलाएं कैसे किया करती होंगी या करती हैं।
सूरज ढल रहा है और मैं गाँव से बाहर के रास्ते पर हूँ। चारों तरफ अभी तक तो हरे खेत लहरा रहे हैं। मेरे मन में कई सवाल हैं, कई दुविधाएं भी। लेकिन चेहरे पर पड़ रही ठंडी हवा जैसे दिलासा दे रही है कि धीरे धीरे ही सही बदलाव आ तो रहा है। एक दिन खेतों में आलू बीनतीं रेखा और माया की बेटियां भी ब्रांडेड सैनेटरी नैपकिन का उपयोग करेंगी और रेखा और माया दोनों अपने नाती-पोतों को सुनाएंगी लाल कपड़े की कहानी।
क्या कहते हैं डॉक्टर
इंदौर की गायनोकोलॉजिस्ट डॉ. नमिता शुक्ला कहती हैं, "मासिक धर्म के समय कपड़े का उपयोग हमारे देश में अब भी एक आम प्रैक्टिस है। केवल गांवों में ही नहीं शहरों में निचली बस्तियों और कई मध्यमवर्गीय घरों में भी कपड़े इस्तेमाल किये जाते हैं। कपड़ों का इस्तेमाल गलत नहीं है, लेकिन इसे किस तरीके से किया जा रहा है यह मायने रखता है। यदि कपड़े कॉटन के हों, उन्हें इस्तेमाल के बाद अच्छी तरह धोकर, तेज धूप में खुली जगह सुखाया जाए और हर दो-तीन महीने में बदल दिया जाये तो दिक्कत कम से कम होगी। ज्यादातर महिलाएं और युवतियां पीरियड्स के दौरान हाइजीन का ध्यान न रखने ही इंफेक्शन की शिकार होती हैं। आप चाहे कपड़ा इस्तेमाल करें या नैपकिन, उसको निश्चित समय पर बदलना और प्राइवेट पार्ट्स की साफ़ सफाई रखना बहुत जरूरी है।"