अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष: परिवार व पति तय करते हैं कि ऑपरेशन कब कराना है

गर्भनिरोधक दवाएं लेनी हों या ऑपरेशन कराना हो, केवल महिलाएं ही आगे आती हैं। सरकार द्वारा अधिक मुआवजा देने के बावजूद पुरुष आगे नहीं आते
महिलाओं को जागरूक करने के लिए आंगनवाड़ियों में समय समय पर कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं। फोटो: स्वाति शैवाल
महिलाओं को जागरूक करने के लिए आंगनवाड़ियों में समय समय पर कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं। फोटो: स्वाति शैवाल
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'दीदी, मना कर दूंगी तो लात मारकर घर से बाहर कर देंगे और दूसरी ले आएंगे न?' बैचेनी भरी मुस्क़ुराहट के साथ करीब 30-35 साल की शोभा नाम की महिला ने मुझे यह कहा, जब मैंने उससे पूछा कि तुमने अपने पति को तीसरे बच्चे के लिए न क्यों नहीं कहा? उसने इतना सहज जवाब दिया कि कुछ क्षण मुझे कुछ भी सूझा नहीं, लेकिन अपनी शहरी और पढ़ी-लिखी सोच में गुम मैंने आंखें तरेर कर तेजी से कहा- तो ऐसे आदमी से शादी के लिए ही तैयार नहीं होना था, जिसे तुम्हारी जान की भी परवाह नहीं! और इस बार जवाब पास बैठी 22-25 साल की दूसरी युवती किरण ने दिया- 'तब भी किसने पूछा था दीदी हमसे। वहां से यहां भगाया अब यहां से कहां भागेंगे?'

यह वाक्या एक वर्कशॉप का है, जहां स्तनपान संबंधी जानकारी देने के लिए मध्य प्रदेश के शहर इंदौर के पश्चिमी छोर पर बसी दत्त नगर बस्ती की महिलाओं को इकट्ठा किया गया था। वर्कशॉप में आई ज्यादातर गर्भवती महिलाएं कुपोषित और बहुत कम उम्र लग रही थीं। 

'ऑपरेशन तो हम ही करवाएंगे। आदमी कैसे करेंगे, उनकी बात तो अलग हो जाती है।' यह जवाब मुझे दत्त नगर की ही एक महिला ने दिया, जिसने नाम वाला सवाल टाल दिया। जवाब देने के बाद वो हंस भी दी। तुमने ऑपरेशन का निर्णय कैसे लिया के सवाल पर उनका जवाब था- 'हमारे बड़े पापा हैं, ससुर जी हैं, उनसे पूछा। कैसे करना है, क्या करना है। बिना पूछे कैसे ऑपरेशन करवाएं। उनसे पूछकर ही करवाया।'

इस बस्ती की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हीरा ने आगे बताया कि यहां जो समाज है, वह यह मानता है कि घर में कम से कम दो लड़के तो चाहिए ही चाहिए, क्योंकि लड़के ही कमाकर खिलाएंगे। इस चक्कर में पांच लड़कियां भी हो जाएं तो भी कोई समस्या नहीं। अगर कोई लड़की या औरत मना करे या बात न माने तो सबसे आसान है, उसको घर से भगा देना और दूसरी शादी कर लेना।

हीरा आगे बताती हैं कि जब हम कैम्प लगाते हैं तो बार-बार बुलाने पर कुछ पुरुष भी महिलाओं के साथ आ जाते हैं, लेकिन जब बात ऑपरेशन की आती है तो पुरुष साफ मुकर जाते हैं, बल्कि उनके घर की महिलाएं ही बोल देती हैं कि मैडम आप तो समझा रहे हो लेकिन पति का ऑपरेशन करवाया तो देवी हमें श्राप दे देंगी।

इंदौर के 4 लाख से अधिक नसबंदी ऑपरेशन के साथ लिम्का बुक में जगह बनाने वाले शल्यक्रिया विशेषज्ञ ललित मोहन पंत भी कहते हैं कि महिलाएं बचपन से इस सोच के साथ बड़ी की जाती हैं कि परिवार के पुरुष और खासकर पति को कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए। दो-तीन प्रेग्नेंसी से गुजर चुकी महिलाओं में एक सोच यह भी रहती है कि बच्चा होने में जो शारीरिक- मानसिक कष्ट हैं वो उसे ही उठाने हैं। अतः वह खुद ही ऑपरेशन करवा लेती है। पुरुष प्रधान समाज में आज भी आदमी इस सोच के साथ जीते हैं कि परिवार हो या परिवार नियोजन यह दोनों मुख्यतः औरतों की ही जिम्मेदारी है। पुरुषों में बिना चीरा, बिना टांका, बिना दर्द के, सिर्फ लोकल एनेस्थेसिया के साथ नसबंदी हो सकती है, फिर भी अधिकतर पुरुष इससे बचने की कोशिश ही करते हैं।  

इंदौर की स्त्री रोग व इनफर्टिलिटी एक्सपर्ट डॉ. निकिता रावल कहती हैं कि शादी के समय ही ज्यादातर लड़कियों को इस मामले में कुछ पता नहीं होता और वे तुरंत बाद गर्भवती हो जाती हैं। ऐसे कई मामलों में लड़कियां गर्भपात करवा लेती हैं, जो शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर ठीक नही है। गर्भनिरोधक दवा  गलत तरीके से लेने से अनियमित रक्तस्राव और अन्य समस्याएं हो सकती हैं।

रावल कहती हैं कि दो बच्चों के बीच अंतर रखने के लिए गर्भनिरोधक के जो सुरक्षित साधन हैं, उनको लेकर औरतों के मन मे यह भ्रान्ति तक होती है कि इससे बच्चादानी सड़ जाएगी। इसलिए महिलाएं बिना डॉक्टरी सलाह दवाई खरीद कर खा लेती हैं। महिलाओं में नसबंदी के लिए परमानेंट ट्यूबेक्टमी की जो सर्जरी है वह आदमियों की तुलना में खतरनाक और दिक्कतें पैदा करने वाली भी हो सकती है। लेकिन अज्ञान और भ्रांतियां औरतों के लिए मुश्किल बन जाती हैं।

माता जीजाबाई स्वशासी कन्या महाविद्यालय, इंदौर की सोशियोलॉजी प्रोफेसर समता श्रीवास्तव भी कहती हैं कि बचपन से लड़कियों के भीतर ऐसा सॉफ्टवेयर डेवलप किया जाता है कि तर्क या निर्णय दोनों उनके क्षेत्र से बाहर हैं। इसलिए वे अपने शरीर को लेकर भी निर्णय नहीं कर पातीं और तकलीफ सहने को भी राजी रहती हैं।परिवार नियोजन के मामले में भी यही विचारधारा काम  करती है।  

भोपाल की क्लिनिकल सायकोलॉजिस्ट (इंटीग्रेटेड थैरेपिस्ट) डॉ. अदिति सक्सेना के अनुसार- पुरुषों में यह धारणा होती है कि यदि उनके मुख्य प्रजनन अंग को कुछ हो गया वे नामर्द हो जाएंगे। वे संतानउत्पत्ति के दबाव के साथ समाज में धकेल दिए जाते हैं और यहां असफल होना उन्हें मंजूर नहीं होता। वे डॉक्टर के पास सलाह या इलाज लेने जाने में भी हिचकते हैं। दूसरी ओर महिलाओं को समाज अब भी अथॉरिटी बनने की स्वतन्त्रता नहीं देता।

फैमिली प्लानिंग एसोसिएशन ऑफ इण्डिया, इंदौर शाखा प्रबंधक प्रतुल जैन कहते हैं कि परिवार नियोजन में पुरुषों की सहभागिता को बढ़ाने के लिए कई स्तरों पर सरकार प्रयास कर रही है। पुरुषों को इसके लिए मुआवजा भी अधिक दिया जाता है, लेकिन अगर पुरुष तैयार भी हो जाते हैं तो उनकी पत्नी या मां ही उन्हें मना करवा देती हैं।   

बिना डॉक्टरी सलाह के दवाएं बाजार में धड़ल्ले से बिकती हैं। इंदौर का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल है एमवाय हॉस्पिटल। इसके ठीक सामने है यहाँ का दवा बाज़ार, जहाँ एक पट्टी इन दवाइयों के लिए मशहूर है। बाजार में जाने पर हालाँकि कैमरे पर आने से सबने स्पष्ट मना कर दिया लेकिन एक दुकान मालिक महिला ने बताया कि उस पट्टी में 300 रूपये एमआरपी वाली गर्भनिरोधक गोली कैमिस्ट 120 में खरीदकर 200 में बेच देते हैं। 

इस लेख को लिखते-लिखते मुझे खबर मिली कि शोभा के यहां तीसरी भी लड़की हो गई है।

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