अपनी खोज के 100 वर्षों बाद इन्सुलिन अभी भी 50 फीसदी जरूरतमंदों की पहुंच से दूर है। 1921 में सर फ्रेडरिक जी बैंटिंग, चार्ल्स एच बेस्ट और जेजेआर मैकलियोड द्वारा इन्सुलिन की खोज की गई थी, जोकि यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो से जुड़े थे। अपनी इस खोज का फायदा उठाने की जगह उन्होंने मानवता की भलाई के लिए इसके पेटेंट को महज एक डॉलर में बेच दिया था।
लेकिन अफसोस की बात है अभी भी दुनिया भर में टाइप 2 मधुमेह से ग्रसित करीब 3 करोड़ लोगों के पास इन्सुलिन उपलब्ध नहीं है। गौरतलब है कि दुनिया भर में टाइप 2 मधुमेह से ग्रस्त करीब 6 करोड़ लोगों को इन्सुलिन की जरुरत पड़ती है। यह जानकारी हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट में सामने आई है।
इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले 100 वर्षों के दौरान मधुमेह से पीड़ित लोगों के इलाज में काफी सुधार आया है हालांकि इसके बावजूद अभी भी मधुमेह से ग्रस्त एक बड़ी आबादी इन्सुलिन और उससे सम्बंधित जरुरी उपकरणों की पहुंच से दूर है। आज भी व्यापक रूप से मधुमेह सम्बन्धी देखभाल कुछ देशों तक ही सीमित है।
दुनिया भर में होने वाली असमय मौतों के प्रमुख कारणों में से मधुमेह भी एक है। जो स्वास्थ्य प्रणालियों के साथ-साथ इससे ग्रस्त लोगों पर बढ़ते वित्तीय बोझ के लिए जिम्मेवार है। डब्लूएचओ के अनुसार वैश्विक स्तर पर करीब 42 करोड़ लोग मधुमेह से पीड़ित हैं, जिनमें से करीब 80 फीसदी निम्न और माध्यम आय वाले देशों में रहते हैं। उनमें से टाइप 1 मधुमेह से ग्रस्त 90 लाख लोगों को जीवित रहने के लिए जीवनभर इन्सुलिन और अन्य उपचार की जरुरत है जबकि टाइप 2 मधुमेह से ग्रस्त 6.3 करोड़ लोगों को उपचार के लिए इन्सुलिन की जरुरत पड़ती है, लेकिन उनमें से केवल आधों के पास ही यह उपलब्ध है।
इंसुलिन एक हार्मोन है जो प्राकृतिक तौर पर शरीर में बनता है। यह शरीर में ग्लूकोस के स्तर को नियंत्रित करता है। इसकी कमी से रक्त में ग्लूकोस का स्तर बढ़ जाता है जो मधुमेह का कारण बनता है। आमतौर पर मधुमेह दो प्रकार के होते हैं पहला टाइप 1 मधुमेह जिसमें शरीर में इन्सुलिन नहीं बनता है या बहुत कम बनता है जबकि टाइप 2 मधुमेह में शरीर समय के साथ पर्याप्त इन्सुलिन के निर्माण की क्षमता खो देता है।
मधुमेह को यदि ऐसे ही छोड़ दिया जाता है और उसके इलाज पर पूरा ध्यान नहीं दिया जाता तो इससे दिल के दौरे, स्ट्रोक, गुर्दे की विफलता, अंधापन, गैंगरीन आदि का खतरा बढ़ जाता है।
इन्सुलिन के 90 फीसदी बाजार को नियंत्रित करती हैं तीन कंपनियां
देखा जाए तो दुनिया भर में जरूरतमंदों को इन्सुलिन नहीं मिल पा रहा है उसके लिए कहीं हद तक इसकी बढ़ती कीमतें और घटती उपलब्धता जिम्मेवार है। दुनिया की तीन बहुराष्ट्रीय कंपनियां बाजार में उपलब्ध 90 फीसदी से ज्यादा इन्सुलिन को नियंत्रित करती हैं। जिसका मतलब है कि प्रतिस्पर्धा की कमी के चलते इनकी कीमते ज्यादा हैं। रिपोर्ट का मानना है कि सिंथेटिक इंसुलिन, मानव इन्सुलिन की तुलना में कम से कम 1.5 गुना अधिक महंगे होते हैं, जबकि कुछ देशों में तो यह तीन गुना ज्यादा महंगे हैं। ऐसे में यह निम्न आय वाले देशों में यह वित्तीय बोझ को और बढ़ा रहे हैं।
ऊपर से मांग को पूरा करने के लिए अपर्याप्त वित्त, दवा की कीमतों के निर्धारण में व्याप्त समस्याएं, इन्सुलिन और उससे सम्बंधित उपकरणों का वितरण और उनकी निगरानी इसकी उपलब्धता पर असर डाल रही है। कुल मिलाकर इसके लिए कहीं हद तक प्रशासन की कमी जिम्मेवार है। ऊपर से पिछड़े देशों में स्वास्थ्य सम्बन्धी बुनियादी ढांचे की कमजोरी और स्थानीय तौर पर इन्सुलिन का उत्पादन एक बड़ी समस्या है।
इस दिशा में हो रही ज्यादातर रिसर्च निम्न और मध्यम आय वाले देशों के सार्वजनिक स्वास्थ्य सम्बन्धी जरूरतों की उपेक्षा करते हुए केवल समृद्ध बाजारों की ओर अग्रसर हैं, जबकि यह देश मधुमेह का 80 फीसदी बोझ ढो रहे हैं।
ऊपर से इन्सुलिन की कीमतों के निर्धारण में भी काफी असमानता व्याप्त है। रिपोर्ट से भी इसकी कीमतों को निर्धारित करने के तरीकों में पारदर्शिता की कमी का पता चलता है। उदाहरण के लिए बायोसिमिलर इंसुलिन (जेनेरिक इन्सुलिन) मूल उत्पादों की तुलना में करीब 25 फीसदी सस्ते हैं, इसके बावजूद इसका फायदा कमजोर देशों को नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में यदि दुनिया भर में मधुमेह को हराना है तो इन समस्याओं पर गौर करना जरुरी है। जिससे समाज के कमजोर से कमजोर तबके तक भी यह जरुरी दवाएं पहुंच सकें।