संक्रमण खत्म, कष्ट जारी

कोविड-19 से रिकवरी का मतलब पूर्ण स्वस्थ होना नहीं है। रिकवरी के बाद बहुत से लोग थकान, कमजोरी, सांस लेने में परेशानी, सिरदर्द और मानसिक विकारों जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। विशेषज्ञ एवं शुरुआती अध्ययन बताते हैं कि ये परेशानियां लंबे वक्त तक रह सकती हैं
संक्रमण खत्म, कष्ट जारी
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मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में रहने वाले 39 साल के जुगल किशोर शर्मा 27 अप्रैल 2020 को जब कोरोनावायरस (कोविड-19) से जंग जीतकर अस्पताल से निकले, तब उनके हाथ में गुलाब का फूल और चेहरे पर विजयी मुस्कान थी। उनकी खुशी लाजिमी थी क्योंकि वह भोपाल के उन पांच शुरुआती लोगों में से एक थे जो जानलेवा वायरस के संक्रमण से सबसे पहले उबरे थे। 3 अप्रैल को वह कोरोना संक्रमित पाए गए थे। तब उन्होंने डाउन टू अर्थ को बताया था, “यह वायरस उतना डरावना नहीं है, जितना हम इसे समझते हैं। जरूरत पड़ने पर मुझे 18 घंटे तक ऑक्सीजन दी गई। मैंने खूब पानी किया और डॉक्टरों ने लक्षणों के आधार पर मेरा इलाज किया जिससे मैं रिकवर हो गया।”

तब से अब तक करीब चार महीने का वक्त गुजर चुका है। डाउन टू अर्थ ने अगस्त में जब उनकी स्थिति जानने के लिए दोबारा संपर्क साधा तब पता चला कि उनकी परेशानियां खत्म नहीं हुई हैं। रिकवरी के बाद उन्हें थकान और कमजोरी की शिकायत थी जो अब तक बरकरार है। अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद उन्हें लगा था कि कुछ दिनों बाद ये परेशानियां खत्म हो जाएंगी लेकिन वह गलत निकले। अब उन्हें लगता है कि इनके साथ ही जीना पड़ेगा। अपना अनुभव साझा करते हुए वह बताते हैं, “कोरोनावायरस ने मेरे फेफड़ों पर गहरा असर डाला है। वायरस ने फेफड़ों को इतना नुकसान पहुंचा दिया कि थोड़ा ज्यादा चलने पर हांफने लगता हूं।” उन्हें आशंका है कि वह भविष्य में अस्थमा का शिकार हो सकते हैं। जुगल ने रिकवरी के बाद चार बार फेफड़ों का एक्सरे कराया है। हर एक्सरे में फेफड़ों को हुआ नुकसान साफ दिख रहा है।

दिल्ली के पांडव नगर में रहने वाले 34 साल के चंदन कुमार भी जुगल किशोर शर्मा की तरह कोरोनावायरस से संक्रमित होने के बाद चिकित्सीय भाषा में रिकवर तो हो गए लेकिन पूरी तरह ठीक नहीं हुए हैं। चंदन कुमार को जीवन में कभी सिरदर्द नहीं हुआ था लेकिन संक्रमण के बाद असामान्य ढंग से उन्हें कभी-कभी अचानक तेज सिरदर्द होने लगता है। यह दर्द भी एक जगह नहीं बल्कि सिर के अलग-अलग हिस्सों में होता है। संक्रमण से पहले चंदन चार से पांच मंजिल तक आसानी से सीढ़ियां चढ़ लेते थे लेकिन अब दूसरी मंजिल तक पहुंचते-पहुंचते उनकी सांस फूलने लगती है। रात को सोने के दौरान भी सांसों के अचानक उतार-चढ़ाव से वह परेशान हो उठते हैं। चंदन बताते हैं,“कभी-कभी चलते वक्त लगता है कि चक्कर खाकर गिर पड‍ूंगा। हमेशा कमजोरी और थकान महसूस होती है।” चंदन के सास, ससुर और साले भी संक्रमण के बाद रिकवर हुए हैं। वह बताते हैं कि सास और ससुर की सूंघने की क्षमता अब भी नहीं लौटी है। चंदन 28 जून को बुखार, सूखी खांसी और सिरदर्द के लक्षणों साथ बीमार हुए थे। 8 जुलाई को उन्होंने टेस्ट कराया और एक दिन बाद आई रिपोर्ट में वह संक्रमित पाए गए। चंदन बताते हैं कि उन्हें हल्के लक्षण थे, लिहाजा डॉक्टर ने घर पर ही आइसोलेशन में रहने की सलाह दी। इस दौरान बुखार और मल्टीविटामिंस की दवा खाते रहे। 25 जुलाई को फिर जांच कराई तो रिपोर्ट नेगेटिव आई। चंदन को कोरोनावायरस के संक्रमण के दौरान इतनी परेशानी नहीं हुई, जितनी रिकवरी के बाद हो रही है। उन्हें उम्मीद है कि एक-दो महीने का वक्त गुजरने के साथ उनकी समस्याएं खत्म हो जाएंगी।

लेकिन क्या चंदन दो महीने बाद परेशानियों से उबर जाएंगे? यह दावा के साथ नहीं कहा जा सकता क्योंकि बहुत से लोग तीन से चार महीने बाद भी पूरी तरह ठीक नहीं हो पाए हैं। उदाहरण के लिए एक समाचार चैनल में काम करने वाले अवनीश चौधरी को ही लीजिए। शुरुआत में उन्हें भी चंदन की तरह लगता था कि कोरोनावायरस के कारण उनके शरीर में आई कमजोरी और थकान की समस्या कुछ दिनों के लिए है। अवनीश को कोरोनावायरस से उबरे तीन महीने से ज्यादा हो गए हैं लेकिन समस्याएं जस की तस हैं। अवनीश को भी चलते या सीढ़ियां चढ़ते वक्त सांस फूलने की समस्या हो रही है। वह डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि रात को सोते समय पीठ के बल लेटने पर सांस लेने में अचानक तकलीफ होने लगती है। सांसों का टूटना और जल्दी-जल्दी चलना अब सामान्य होता जा रहा है। वह अब यह मानकर चल रहे हैं कि यह समस्या लंबे समय तक बनी रहेगी। अवनीश ने भी चंदन की तरह रिपोर्ट पॉजिटिव आने पर खुद को घर में आइसोलेट कर लिया था। रिपोर्ट नेगेटिव आने के बाद दोनों का डॉक्टर से संपर्क टूट गया।

चंदन और अवनीश से उलट कोरोनावायरस से उबरे ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने एक बार कोविड-19 पॉजिटिव आने के बाद दोबारा जांच नहीं कराई और लक्षण खत्म होने पर खुद को रिकवर मान लिया। इनमें से बहुत से लोगों ने डॉक्टरों की सलाह पर ही दोबारा जांच नहीं कराई। उदाहरण के लिए, दिल्ली के उत्तम नगर इलाके में रहने वाली 38 वर्षीय शिक्षिका सुशीला ने 7 जून को टेस्ट कराया था। तीन दिन बाद उनकी रिपोर्ट पॉजिटिव आई। इसके बाद डॉक्टर ने उन्हें जांच कराने से मना कर दिया और उन्होंने 15 दिन बाद मान लिया कि वह संक्रमण से मुक्त हो गई हैं। उनके परिवार के किसी अन्य सदस्य की भी जांच नहीं हुई। डॉक्टर ने उन्हें भले ही कोरोना से रिकवर बता दिया लेकिन अब वह एक अजीब किस्म की समस्या से जूझ रही हैं। उन्हें अचानक घबराहट होने लगती है और दिल की धड़कन अप्रत्याशित रूप से तेज हो जाती है। कई बार यह धड़कन इतनी तेज होती है कि उन्हें लगता है कलेजा सीने से बाहर न निकल जाए। सुशीला बताती हैं कि कोरोनावायरस से संक्रमित होने से पहले दिल का इतना तेज धड़कना दुर्लभ था लेकिन संक्रमण के बाद हफ्ते में एक-दो बार ऐसा नियमित हो जाता है। उन्हें हैरानी तब होती है जब चेक करने पर धड़कन सामान्य आती है।

सुशीला की तरह दिल्ली के मयूर विहार, फेज-3 में रहने वाली 35 वर्षीय पूनम बिष्ट के परिवार के सभी छह सदस्य कोरोनावायरस के संक्रमण से दो महीने पहले मुक्त हुए हैं। पूनम के ससुर के अलावा घर के किसी भी सदस्य की जांच नहीं हुई। परिवार के सभी सदस्यों में लक्षण आने पर डॉक्टर ने उन्हें संक्रमित मान लिया और जून के आखिर में लक्षण समाप्त होने पर उन्होंने परिवार को कोरोना मुक्त समझ लिया। अन्य लोगों की तरह पूनम और उनके परिवार के सदस्यों को अब भी कोई न कोई समस्या बनी हुई है। पूनम अस्थमा की मरीज हैं। लक्षण समाप्त होने के बाद उन्हें लगा था कि सब ठीक हो गया है। लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने महसूस किया कि उनकी सूंघने की क्षमता अब भी पूरी तरह से नहीं लौटी है। उन्हें अक्सर थकान महसूस होती है और एसी में रहने पर सांस लेने में तकलीफ होने लगती है। उनके 63 वर्षीय ससुर को अब भी हल्की खांसी है। सास-ससुर दोनों कमजोरी महसूस करते हैं। 


उपरोक्त मामले बताते हैं कि कोरोना से होने वाली रिकवरी को भले ही हम उपलब्धि समझकर खुश हो लें लेकिन सभी रिकवर मरीजों को स्वस्थ मान लेना बड़ी भूल है। भारत में 19 अगस्त 2020 तक 21 लाख से अधिक लोग रिकवर हो चुके थे और रिकवरी की दर करीब 72 प्रतिशत पहुंच चुकी थी। राजधानी दिल्ली में जहां मई-जून को कोरोना संक्रमितों के मामले तेजी से बढ़ रहे थे, वहां जुलाई और अगस्त में सुधरी रिकवरी के बूते ही हालात नियंत्रण में बताए जा रहे हैं। राजधानी में रिकवरी दर करीब 90 प्रतिशत पर पहुंच गई है। इसका अर्थ है कि राज्य में 19 अगस्त तक आए 1,56,139 मामलों में करीब 1,40,767 संक्रमित रिकवर हो चुके हैं। वैश्विक स्तर पर सामने आए करीब सवा दो करोड़ मामलों में डेढ़ करोड़ संक्रमित रिकवर हो चुके हैं (देखें, रिकवरी बनाम संक्रमण, पेज 14)। ये आंकड़े बताते हैं कि रिकवर होने वाले लोगों की संख्या मामूली नहीं है। अगर इनमें से 10-15 प्रतिशत लोगों की तकलीफों में भी इजाफा होता है तो इनकी कुल संख्या लाखों में होगी, इसलिए ऐसे लोगों को नजरअंदाज करना भारी पड़ सकता है।

केंद्र सरकार भी इस तथ्य को स्वीकार करती है। यही वजह है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारी राजेश भूषण ने दिल्ली में मीडिया के सामने माना “कुछ रिकवर मरीजों को सांस, हृदय, लिवर और आंखों से संबंधित समस्याएं हो सकती हैं। हमारे विशेषज्ञ लोगों के मार्गदर्शन के लिए काम कर रहे हैं। वे पता लगा रहे हैं कि दीर्घकाल में लोगों की किस तरह की देखभाल की जरूरत है और वे भविष्य में किस प्रकार की समस्याओं का सामना कर सकते हैं।” नीति आयोग के सदस्य वीके पॉल ने भी 18 अगस्त को बताया, “बीमारी का एक नया पहलू सामने आ रहा है। वैज्ञानिक और चिकित्सा समुदाय की इस पर नजर है। हम सभी को सचेत रहना होगा कि बाद में भी इसका प्रभाव पड़ सकता है। जैसे-जैसे हम इसे अधिक समझेंगे, वैसे-वैसे हम इसके बारे में अधिक बता पाएंगे।”



चिंता में डालते अध्ययन

दुनियाभर में इस वक्त ज्यादातर देशों का ध्यान संक्रमण रोकने और मरीजों की जान बचाने पर केंद्रित है। रिकवर मरीजों को प्राथमिकता के आधार पर देखना अभी संभव नहीं हो रहा है। इस संबंध में हुए कुछ अध्ययन बताते हैं कि रिकवर हुए मरीजों पर ध्यान नहीं दिया गया तो आगे चलकर स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है। दरअसल, बहुत से लोगों की रिकवरी के बाद हृदय, फेफड़ों, मस्तिष्क, लीवर आदि में विभिन्न तरह की समस्याएं सामने आ रही हैं (देखें, अंगों पर असर,)।

जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (जामा) कार्डियोलॉजी में 27 जुलाई, 2020 को प्रकाशित यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल फ्रैंकफर्ट के अध्ययन में रिकवरी के बाद होने वाली हृदय की परेशानियों पर रोशनी डाली गई है। जर्मनी में कोरोनावायरस से रिकवर हुए लोगों पर किया गया यह अध्ययन बताता है कि सीएमआर (कार्डियक मैग्नेटिक रेजोनेंस) जांच में कोविड-19 से रिकवर हुए 100 में से 78 लोगों के हृदय में संरचनात्मक परिवर्तन और 60 प्रतिशत लोगों में मायोकार्डियल यानी हृदयघात के लक्षण पाए गए। अध्ययन बताता है कि कोविड-19 हृदय तंत्र पर गहरा असर डालता है। यह वायरस पहले से हृदय की समस्याओं से जूझ रहे लोगों में हार्ट फेल की समस्या को काफी गंभीर कर सकता है। अध्ययन में शामिल 100 लोगों में 67 असिंप्टोमैटिक और हल्के लक्षण वाले थे और घर में ही रिकवर हुए थे। शेष 23 लोगों को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था। जामा का अध्ययन बताता है कि कोविड-19 के कारण लंबे समय तक रक्त प्रवाह को सुचारू रखने की हृदय की क्षमता घट सकती है।

ब्रिटेन स्थित एडिनबर्ग विश्वविद्यालय के डॉक्टरों का विश्लेषण भी इसी तरह के निष्कर्ष पर पहुंचता है। डॉक्टरों ने 69 देशों के 1,200 मरीजों की अल्ट्रासाउंड (एकोकार्डियोग्राम) जांच की और पाया कि 55 प्रतिशत लोगों के हृदय में गंभीर गड़बड़ियां हैं। जांच में एक तिहाई से अधिक लोगों के हृदय के दो मुख्य चैंबरों (वेंट्रिकल्स) में क्षति पाई गई। इसके अलावा तीन प्रतिशत लोगों ने हृदयाघात और अन्य तीन प्रतिशत लोगों ने हृदय की कोशिकाओं में जलन की शिकायत की। इसी दौरान एक अन्य अध्ययन भी हुआ है जिसमें कोविड-19 से मारे गए 39 लोगों की ऑटोप्सी जांच की गई। इन लोगों की औसत आयु 85 साल थी। जांच में पाया गया कि 24 मृतकों के हृदय में बड़ी मात्रा में वायरस मौजूद हैं।

नेचर रिव्यू कार्डियोलॉजी में मार्च 2020 को प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, सार्स सीओवी-2 (कोविड-19) और एमईआरएस सीओवी (मिडिल ईस्ट रेस्पिटेरटी सिंड्रोम कोरोनावायरस) में काफी समानता है। अध्ययन बताता है कि इन वायरस के संक्रमण से नि:संदेह मायोकार्डियल को क्षति पहुंचती है और मरीज को उबरने में दिक्कत होती है। इसके अनुसार, वुहान में कोविड-19 से संक्रमित पाए गए शुरुआती 41 में से 5 लोगों के हृदय को गंभीर नुकसान पहुंचा। हृदय के अलावा कोविड-19 फेफड़ों को भी स्थायी क्षति पहुंचा सकता है। अमेरिकन लंग असोसिएशन के एमडी व मुख्य चिकित्सा अधिकारी अलबर्ट लिज्जो के अनुसार, हलके लक्षण वाले मरीजों के फेफड़े तो संक्रमण से पूरी तरह मुक्त हो सकते हैं लेकिन जिन मरीजों को अस्पताल में भर्ती किया गया है अथवा जिनके वेंटीलेटर पर पहुंचने की नौबत आई है, उनके फेफड़ों को पहुंचा नुकसान स्थायी हो सकता है। इसकी प्रबल आशंका है कि ऐसे लोगों के फेफड़ों पहले की तरह काम न कर पाएं। फेफड़ों को पहुंचा स्थायी नुकसान फाइब्रोसिस कहलाता है। उनका मानना है कि वायरस से दीर्घकाल में स्वास्थ्य को होने वाली परेशानियां जीवन की गुणवत्ता पर असर डाल सकती हैं।

कोविड-19 केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (सीएनएस) को भी बुरी तरह प्रभावित कर सकता है। यह वायरस नाक के रास्ते दाखिल होकर दिमाग में मौजूद आल्फैक्टरी बल्ब में पहुंचकर संक्रमण फैला सकता है। यही वजह है कि संक्रमण के बाद संूघने और स्वाद की क्षमता प्रभावित हो जाती है। साथ ही सिरदर्द जैसी समस्याएं भी सामने आती हैं। इसके अलावा सीएनएस में इस वायरस की मौजूदगी का असर मानसिक विकार के रूप में देखा जा सकता है। अमेरिका में कोविड-19 से संक्रमित पाई गई एक 50 वर्षीय महिला के सीटी स्कैन से पता चला कि उसके मस्तिष्क की नसों में रिसाव आ गया है। एक 74 वर्षीय संक्रमित पुरुष में भी मानसिक विकार देखे गए।

पार्किंसन और फेफड़ों की बीमारियों से पीड़ित यह शख्य कोविड-19 से संक्रमित होने के बाद बोलने की क्षमता खो बैठा। यह भी देखा गया है कि कोविड-19 से रिकवर होने वाले अधिकांश मरीज कुछ हफ्तों तक तनाव महसूस करते हैं। आमतौर पर कुछ समय पर बाद यह तनाव खत्म हो जाता है लेकिन अवसाद, डर और घबराहट जैसे मनोवैज्ञानिक लक्षण लंबे समय तक बने रहते हैं।

न्यूरोसाइकोफार्माकोलाॅजी जर्नल में 13 अगस्त 2020 को प्रकाशित डेनिज वेतेनसेवर, शोयन वॉन्ग और बार्बरा जैकलीन सहाकियन का शोधपत्र बताता है कि कोिवड-19 महामारी में अवसाद से संबंधित विकारों में सुनामी लाने की क्षमता है। अपनों को खोने की चिंता, असहायता और वायरस के संपर्क मंे आने के डर से बड़ी संख्या मंे लोग अवसाद, बेचैनी से घिर सकते हैं और उनके मन में खुदखुशी के विचार आ सकते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार, महामारी से आए अकेलेपन और चिंताओं के कारण ब्रेन केमिस्ट्री में बदलाव आ सकता है जो मूड डिसऑर्डर का कारण बन सकता है।

 दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहेवियर एंड एलाइड साइंसेस (इहबास) में मनोचिकित्सक व सहायक प्रोफेसर ओमप्रकाश ने डाउन टू अर्थ को बताते हैं, “हमारी नजर में ऐसे मामले आ रहे हैं जिनमें कोविड-19 का दिमाग पर असर देखा जा रहा है। अधिकांश लोगों को एंजाइटी प्रॉब्लम है। उनके दिमाग मंे एक अलग तरह की बेचैनी है।”

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) से संबद्ध चेन्नई स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एपिडेमियोलॉजी (एनआईई) के वैज्ञानिक तरुण भटनागर ने डाउन टू अर्थ से बातचीत में स्वीकार किया कि कोविड-19 से रिकवरी के बाद लोगों की कई तरह की परेशानियां आ रही हैं। वह मानते हैं कि रिकवरी के बाद थकान, सिरदर्द और सांसों का फूलना बहुत आम है। गंभीर संक्रमण की स्थिति में फेफड़ों में बदलाव भी देखने को मिल रहे हैं। वह कहते हैं कि अभी यह कह पाना मुश्किल है कि कोविड-19 से संक्रमितों की पूर्ण रिकवरी कब तक होगी।

भटनागर के अनुसार, “कई तरह की परेशानियों के चलते बहुत से लोग रिकवरी के बाद पहले जितनी सक्रियता से काम नहीं कर पा रहे हैं। रिकवर हुए लोगों के आंकड़ों को जुटाकर उनका व्यापक विश्लेषण जरूरी है। विदेशों में कुछ अध्ययन जरूर हुए हैं लेकिन अभी भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस संबंध में कोई अध्ययन नहीं हुआ है। लोगों की परेशानियों को देखते हुए इसकी शीघ्र जरूरत है।” भटनागर मानते हैं कि गंभीर संक्रमण के मामलों में फाइब्रोसिस का खतरा है। डब्ल्यूएचओ की प्रमुख वैज्ञानिक सौम्या स्वामीनाथन ने 12 अगस्त को एक समाचार चैनल में स्वीकार किया कि रिकवर लोगों को स्वास्थ्य से संबंधित तरह-तरह की परेशानियां आ रही हैं। उन्हांेने ऐसे लोगों पर ध्यान देने की जरूरत पर जोर िदया।



खत्म होती एंटीबॉडी, नया खतरा

नेचर मेडिसिन में 18 जून 2020 को प्रकाशित एक शोधपत्र बताता है कि कोविड-19 से संक्रमित मरीजों की एंटीबॉडी दो से तीन महीने में क्षीण हो रही है। चीन में हुए इस शोध में 37 सिंप्टोमैटिक और 37 असिंप्टोमैटिक मरीजों का अध्ययन किया गया। अध्ययन के बाद शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे कि 90 प्रतिशत मरीजों की इम्युनोग्लोबुलिन जी (आईजीजी) एंटीबॉडी 2-3 महीने में तेजी से कम हो गई। इसका सीधा सा मतलब है कि एक बार एंटीबॉडी विकसित होने का यह कतई मतलब नहीं है कि फिर से संक्रमण नहीं हो सकता। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में ऐसे बहुत से मामले सामने आए हैं जिनमें लोग रिकवरी के बाद भी दोबारा संक्रमित हुए हैं। उत्तर प्रदेश में कोरोना का हॉटस्पॉट बन चुके कानपुर में 45 साल का व्यक्ति एक महीने में दूसरी बार कोरोना संक्रमित पाया गया। 17 जुलाई को उसकी रिपोर्ट नेगेटिव आने पर उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गई थी लेकिन 3 अगस्त को फिर से तबीयत खराब होने पर जांच हुई तो रिपोर्ट पॉजिटिव आ गई।

सफदरजंग अस्पताल में यूरोलॉजी, रोबोटिक्ट एवं रेनल ट्रांसप्लांट विभाग के प्रमुख (एचओडी) अनूप कुमार डाउन टू अर्थ को बताते हैं, “मेरी जानकारी में कोविड-19 के कुछ ऐसे मामले सामने आए हैं जिनकी रिपोर्ट कुछ समय बाद फिर से पॉजिटिव आई है। कुछ लोगों को फिर से पुराने और नए लक्षण उभर रहे हैं। इसकी दो वजह हो सकती हैं। पहला कमजोर इम्युनिटी और दूसरी रिपोर्ट में विसंगति।”

इम्युनिटी के संबंध में तो डब्ल्यूएचओ ने अप्रैल 2020 में ही कह दिया था कि संक्रमण न तो इम्युनिटी का पासपोर्ट है और न ही चिंताओं के खत्म होने की वजह। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, इस बात के कोई प्रमाण नहीं है कि एंटीबॉडी से दोबारा संक्रमण नहीं होगा। देश के अलग-अलग हिस्सों में फिर से रहे संक्रमण के मामले डब्ल्यूएचओ की बातों को पुष्ट करते हैं। कोविड-19 पर शोध करने वाले यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जीनिया के भौतिक वैज्ञानिक विलियम पेट्री कहते हैं, “एक अनुत्तरित प्रश्न यह है कि रिकवर हुए लोगों में कितने समय तक वायरस छुपा रह सकता है।

अगर यह वायरस व्यक्ति के अंदर मौजूद रहा तो देर सवेर रिकवरी के बाद भी लक्षण दिख सकते हैं और वह दूसरों को भी संक्रमित कर सकता है।” छोटे स्तर पर हुए कुछ अध्ययन बताते हैं कि कोरोनावायरस ऐसे अंगों में भी पाया गया है जो पहले इम्यून हो गए थे।

फॉलोअप जरूरी

डब्ल्यूएचओ के अनुसार, कोविड-19 से मृत्युदर 3-5 प्रतिशत के बीच है। इसका अर्थ है कि शेष 95 से 97 प्रतिशत लोगों को देर सवेर रिकवर हो जाएंगे। रिसर्चर मानते हैं कि हलके लक्षणों से रिकवर हुए आधे लोग अपने तंत्र में वायरस को कैरी कर सकते हैं। ऐसे में अगर इन लोगों पर ध्यान नहीं दिया गया तो वायरस को नियंत्रित करना बेहद मुश्किल हो जाएगा। यही वजह है कि विशेषज्ञ रिकवरी के बाद भी लगातार फॉलोअप और जांच की सलाह देते हैं (देखें, समाज की भलाई के लिए जरूरी है कोविड-19 से रिकवर मरीजों का लंबा निरीक्षण,)। अनूप कुमार बताते हैं कि संक्रमितों को डिस्चार्ज करने के बाद हम एक महीने तक तो उनका फॉलोअप करते हैं। घर में रिकवर होने वाले मरीजों के साथ भी ऐसा होता है लेकिन एक महीने बाद उनकी निगरानी नहीं हो पाती। वह मानते हैं कि रिकवरी के बाद लंबे समय तक फॉलोअप जरूरी है। विशेषकर किडनी, लिवर, हृदय और मधुमेह से पीड़ित अधिक जोखिम वाले मरीजों की कम से कम तीन महीने तक गहन निगरानी आवश्यक है। बहुत से लोग रिकवरी के बाद परेशानियों के बाद भी डॉक्टर से संपर्क नहीं करते। ऐसे लोगों को समझाने की जरूरत है कि वे तुरंत डॉक्टर से संपर्क नहीं करेंगे तो आगे चलकर उनकी तकलीफें काफी बढ़ सकती हैं।

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) के अध्यक्ष श्रीनाथ रेड्डी बताते हैं कि वायरस शरीर के इम्युनोलॉजी रिएक्शन पर असर डालता है, लेकिन यह शरीर के अंगों को कितना नुकसान पहुंचा सकता है, यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। यह संक्रमित की उम्र के हिसाब से अलग-अलग हो सकता है। इस पर अधिक स्पष्टता के लिए जरूरी है कि भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद व्यापक अध्ययन कराए। रेड्डी संक्रमण से रिकवर होने वाले मरीजों की गहन निगरानी पर जोर देते हैं। इससे मरीज से सामाजिक रूप से जुड़े लोगों को भी पता चल जाएगा कि उनका दोस्त या परिवार का सदस्य खतरे में नहीं है।

साइंस ऑफ द टोटल एनवायरमेंट जर्नल में प्रकाशित अध्ययन “फॉलोअप स्टडीज इन कोविड-19 रिकवर्ड पेशेंट्स- इज इट मेंडेटरी” बताता है, “अगर कुछ समय बाद कोविड-19 से रिकवर हुए मरीजों की बीमारियों में उछाल आता है तो स्वास्थ्य तंत्र पर अचानक बोझ बढ़ेगा जिससे वह चरमरा सकता है। इसलिए नियमित अंतराल पर रिकवर मरीजों की देखभाल जरूरी है। इससे भविष्य में होने वाले बहुत से खतरों से भी बचा जा सकता है। साथ ही यह बेहतर टीके का मार्ग भी प्रशस्त करेगा।”

श्रीनाथ रेड्डी चेताते हैं कि हमें रिकवर हुए मरीजों पर सावधानी से ध्यान देने की जरूरत है। उनका कहना है, “हम यह पूरी तरह से नहीं समझ पाए हैं कि रिकवर हुए मरीज कैसा व्यवहार करते हैं। जामा में प्रकाशित हुआ जर्मन शोध बताता है कि युवा लोगों में भी रिकवरी के बाद हृदय में संक्रमण की समस्या आ रही है। यह हमारी समझ को विकसित करने के लिए महज शुरुआत भर है। इसलिए यह कहना गलत होगा कि असिंप्टोमैटिक सहित सभी रिकवर हुए मरीज पूरी तरह रिकवर हो चुके हैं।”

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