ओडिशा के बरगढ़ में मौत बताकर आती है। यह हर दूसरे दिन, किसी न किसी को चपेट में लेकर आगमन की सूचना दे देती है। पश्चिमी ओडिशा के इस जिले में स्थित भोईपाली गांव में रहने वाले 55 वर्षीय जापा प्रधान के परिवार में वृद्धावस्था से ज्यादा मौतें कैंसर के कारण हुई हैं। महज कुछ दशकों के भीतर जापा ने अपने पिता, दो चाचा और एक चाची को ब्लड कैंसर की वजह से खो दिया। अब कैंसर ने उनकी पीढ़ी पर भी हमला बोल दिया है। उनके चचेरे भाई जुलाई 2015 से लीवर कैंसर से जूझ रहे हैं। जापा कहते हैं, “मुझे अंदाजा नहीं है कि मेरे परिवार पर आखिर कैंसर के कहर की वजह क्या है।”
भोईपाली में केवल यही परिवार कैंसर से तबाह नहीं है। 2012 में त्वचा के कैंसर की वजह से अपनी बेटी को खोने के बाद सेवानिवृत्त शिक्षक कृष्ण चंद्र बारीक संभाले नहीं संभल रहे थे। उस समय उनकी बेटी उम्र के महज 20 साल की थी। उनकी पड़ोसी, 45 वर्षीय रुक्मिणी प्रधान, खुद को स्तन कैंसर का चमत्कारिक सर्वाइवर मानती हैं। 2011 में मौत ने आशा वर्कर बसंती भुइ के दरवाजे पर भी दस्तक दी, उन्होंने मस्तिष्क कैंसर के शिकार हुए अपने भाई को खो दिया था। अभी इस शोक से वह उबर भी न पाईं थीं कि लीवर कैंसर ने उनकी मां की जान ले ली। भुई बताती हैं, “इस 200 परिवारों वाले गांव में कम से कम 15 परिवार इस समय कैंसर से जूझ रहे हैं”। भोईपाली बरगढ़ जिले में कैंसर से सबसे ज्यादा प्रभावित दो प्रखंडों में से एक, भेडेन में स्थित है। इस जिले में कैंसर से दूसरा सर्वाधिक प्रभावित प्रखंड अट्टाबीरा है।
जब डाउन टू अर्थ भोईपाली पहुंचा तो रिपोर्टर के चारों ओर आसपास के गांवों तक के लोगों की भीड़ लग गई। यहां तक कि बगल के गांव से भी लोग जमा हो गए। सब अपनी-अपनी मुसीबतें सुना रहे थे। यह बिल्कुल साफ था कि कैंसर का खौफ पूरे बरगढ़ जिले पर कायम है।
इस ग्रामीण जिले के 6 गांवों की महज 72 घंटे की यात्रा के दौरान रिपोर्टर को कैंसर की वजह से कम से कम 15 मौतों के बारे में पता चला। कई इस जानलेवा बीमारी से जूझ रहे हैं। 14 लाख की आबादी और 1,249 गांवों वाले इस जिले को कैंसर ने अपनी चपेट में ले लिया है। नजदीक के सम्बलपुर जिले में स्थित वीर सुरेंद्र साई चिकित्सा विज्ञान और अनुसंधान संस्थान (विमसार) के फार्माकोलॉजी विभाग में कार्यरत अशोक पाणिग्रही के अनुसार, यहां सबसे ज्यादा हो रहे सर्वाइकल कैंसर से लेकर स्तन कैंसर, सर और गले के कैंसर, पेट, फेफड़ों, रक्त, कोलोरेक्टल, और अंडाशय के कैंसर के मरीज हैं।
बरगढ़ में 1990 के दशक से डॉक्टरी कर रहे राम के पुरोहित ने बताया, “मैं पूरी जिम्मेदारी से ये बात कह सकता हूं कि कैंसर हमारे जीवन चक्र में प्रवेश कर चुका है और यहां का हर दूसरा परिवार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इससे प्रभावित है।”
बरगढ़ के राजेश त्रिपाठी भी पुरोहित के दावे का समर्थन करते हैं। उन्होंने 2005 में 50 बिस्तरों वाला साई कृपा नर्सिंग होम खोला था, जहां आज हर महीने 10-15 कैंसर के मामले आ रहे हैं। उनके अनुसार, अस्पताल में हर महीने की जाने वाली कुल सर्जरी में से कम से कम पांच कैंसर के लिए होती हैं।
ओडिशा में कैंसर किस कदर अपनी जड़ें जमा रहा है, इस बात को समझने के लिए पाणिग्रही ने राज्य के 23 जिलों के ऊपर एक अध्ययन किया। इस अध्ययन में उन्होंने पाया कि कैंसर के कुल सूचित मामलों में से 26.3 प्रतिशत के साथ बरगढ़ सबसे बुरी तरह प्रभावित जिला है।
उनके आंकड़े बताते हैं कि पश्चिमी ओडिशा में कैंसर के मरीजों कि संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। 2014-15 में कुल 1,017 मामले दर्ज हुए थे। 2015-16 के दौरान यह संख्या बढ़कर 1,066 और 2016-17 के दौरान 1,098 हो गई। उनका शोध पत्र आईओएसआर जर्नल ऑफ डेंटल एंड मेडिकल साइंसेज के अक्टूबर 2018 के अंक में छपा था।
हरे-भरे धान के खेतों के बीच से जमुर्दा गांव को जाती हुई संकरी गलियों को पार करते हुए हवा में कीटनाशकों की भारी गंध अपनी मौजूदगी का एहसास कराती है। यहां सुधांशु बारिक की मां नम आंखें लिए बैठी हैं। वह कहती हैं, “जब भी मेरा 11 साल का बेटा मुझसे पूछता है कि वह स्कूल क्यों नहीं जा सकता, मेरी जुबान लड़खड़ा जाती है। मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है कि उसे बता सकूं कि उसे ब्लड कैंसर है।” सिर्फ छह महीनों में ही उनके बेटे का वजन काफी घट गया है और वह इतना कमजोर और हतोत्साहित हो चुका है कि स्कूल का तनाव नहीं ले सकता। सुधांशु के पिता महेश एक खेतिहर मजदूर हैं। कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर बसे कुटपली गांव के गणेश का भी ये ही हाल है।
कैंसर की यह दुर्भाग्यपूर्ण कड़ी सुधांशु को गणेश की 40 वर्षीय बहन, हरा प्रधान से जोड़ती है। बेहद कमजोर हालत में वह एक अंधेरे कमरे में बिछी चारपाई पर अचेत-सी पड़ी हैं। पिछले दो वर्षों से लगभग लगातार ही उनकी योनि से रक्तस्त्राव हो रहा है। उनके भाई गणेश ने बताया कि उनकी साड़ी अक्सर ही खून से सन जाती है।
विधवा हरा एक मानसिक रोग से ग्रस्त हैं। वह मुश्किल से अपना काम कर पाती हैं। उनके भाई हताशा में कहते हैं, “उन्हें गर्भाशय का कैंसर है। पिछली बार जब हम उसे अस्पताल ले गए, तब वह रक्ताधान (ब्लड ट्रांसफ्यूजन) कराने में असमर्थ थीं। अब हमारे पास अस्पताल जाने के लिए पैसे नहीं हैं।” वह हरा को पीड़ा में छटपटाते देख रो पड़ते हैं और कहते हैं कि इतनी तकलीफ सहने से तो बेहतर होता कि वह मर जातीं। न गणेश और न ही महेश इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि कौन-सी चीज उनके परिवारों में तबाही लेकर आई है।
अत्ताबिरा क्षेत्र की विधायक, स्नेहंगिनी छुरिया कहती हैं कि इसकी कड़ी धान की खेती से जुड़ती है। सम्बलपुर के हीराकुड बांध से बरगढ़ को प्रचुर मात्रा में जल प्राप्त होता है। यहां के सारे किसान धान उगाते हैं, जिसके लिए पानी की अत्यधिक आवश्यकता होती है। बरगढ़ को इतना पानी मिलता है कि यहां के किसान आमतौर पर साल में दो बार धान उगाते हैं। 2018 की खरीफ ऋतु में कुल 3.4 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से 2.4 लाख हेक्टेयर पर धान उगाया गया था। निसंदेह, बरगढ़ को ओडिशा का धान का कटोरा भी कहा जाता है। छुरिया बताती हैं कि करीब 15 साल पहले पानी की कमी झेल रहे पड़ोसी राज्य, आंध्र प्रदेश से किसान बरगढ़ पलायन कर गए। उन्होंने आदतन कीटनाशकों का छिड़काव किया। उनकी देखा देखी यहां के मूल किसानों ने भी यही पद्धति अपनाई। वह जोर देते हुए कहती हैं कि आज यही सारी समस्या का मूल कारण है।
यहां के किसान पाइरेथ्रोइड, ऑर्गोफॉस्फेट, थायोकार्बामेट और नेओनिकोटेनाइड जैसे कीटनाशकों का प्रयोग करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन इन्हें खतरनाक कीटनाशकों के द्वितीय वर्ग की श्रेणी में रखता है। प्रथम वर्ग के कीटनाशकों को सबसे खतरनाक माना गया है। सम्बलपुर विश्विद्यालय के पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर, बीआर महानंदा अपने 2016 के शोधपत्र के माध्यम से कहते हैं कि द्वितीय वर्ग के कीटनाशक भी पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
विमसार के पाणिग्रही कहते हैं कि वैज्ञानिक दस्तावेज बरगढ़ में फैल रहे कैंसर की वजह कीटनाशकों को बताते हैं। यहां पर कैंसर प्रभावित मरीजों की औसत उम्र 50 साल है। उन्होंने डाउन टू अर्थ को बताया, “यहां सरकार ने भूजल के दूषित होने को लेकर किसी तरह का कोई परीक्षण नहीं किया है। लेकिन, यह साफ है कि बरगढ़ में कैंसर के मामलों की अत्यधिक संख्या का कारण कीटनाशक ही हैं।”
किसान लंबे समय तक लगातार कीटनाशकों के संपर्क में रहते हैं। इसके सुरक्षित इस्तेमाल के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है और न ही कोई प्रशिक्षण ही दिया गया है। महानंदा ने अपने शोध में पाया कि उन्होंने जिन धान किसानों पर अध्ययन किया, उनमें से 11 फीसदी को पता ही नहीं था कि कीटनाशक हानिकारक हैं। 35 फीसदी ने कीटनाशकों के कंटेनर पर दिए गए निर्देशों का पालन नहीं किया और 18 फीसदी किसानों को तो यही नहीं पता था कि कंटेनरों पर कीटनाशक के इस्तेमाल के लिए निर्देश दिए गए हैं। करीब 64 फीसदी किसानों ने कीटनाशकों का छिड़काव करते समय दस्ताने, जूते, तौलिए, फुल पैंट और फुल शर्ट जैसे सुरक्षा उपायों का इस्तेमाल नहीं किया था।
बरगढ़ स्थित कृषि विज्ञान केंद्र के प्रमुख अिनल कुमार स्वाइन कहते हैं, “कीटनाशक कारसीनोजेनिक हैं, उनकी वजह से कैंसर हो सकता है, लेकिन गरीब किसान कीटों के हमलों से निपटने के लिए इनका उपयोग करने को मजबूर हैं।” उदाहरण के तौर पर 2017 में धान की फसल पर ब्राउन लीफ हॉपर, जिसे स्थानीय तौर पर चकड़ा कीट कहते हैं, ने हमला कर दिया। इससे बचने के लिए किसानों ने आक्रामक तरीके से कीटनाशकों का छिड़काव किया। इसके बावजूद इन जिद्दी कीटों के हमले में 95 फीसदी फसल नष्ट हो गई। कीटनाशक 80 फीसदी कीटों को मार सकते हैं, लेकिन चकड़ा इससे कई गुना तेजी से बढ़ते हैं। एक मादा चकड़ा महज 20 दिनों में 250 कीटों को जन्म देती है। 2017 में गर्मियां लंबे समय तक रहीं और सर्दी देरी से आई, मौसम में इस बदलाव से कीटों की पैदावार के लिए अनुकूल परिस्थितियां बन गईं।
वह कीटनाशक डीलरों के लिए भी माकूल समय था। कीटनाशकों की खपत 2016 में 440.702 टन के मुकाबले 2017 में बढ़कर 713.867 टन तक पहुंच गई। डीलरों ने कीटनाशकों को फसलों के रक्षक के तौर पर प्रचारित किया और खेतों में जाकर इसका प्रदर्शन भी किया। यह प्रचार अब भी जारी है। अगर कोई कीटनाशक किसी साल फेल हो जाता है, तो कंपनी उसे नए नाम से मार्केट में उतार देती है। स्वाइन कहते हैं, “हमारा हानिरहित जैव कीटनाशकों के इस्तेमाल का संदेश इन डीलरों के आक्रामक प्रचार में खो जाता है। हालांकि, जैव कीटनाशक महंगे भी हैं और उनसे परिणाम मिलने में लंबा समय लग जाता है। इसके लिए सभी किसान इतने समर्थ नहीं हैं।”
विश्व बैंक के अनुसार, ओडिशा भारत के 7 सबसे निम्न आय वाले राज्यों में शामिल है। इतने गरीब राज्य में कैंसर के हमले ने लोगों का बजट बिगाड़ दिया है। उदाहरण के तौर पर महेश ने सुधांशु के मासिक कीमोथेरेपी सत्रों के लिए करीब डेढ़ लाख रुपए का लोन लिया है। अभी आधे सेशन भी खत्म हुए हैं और उनके पास सिर्फ 20,000 रुपए बचे हैं। उन्हें हर रोज एंटीबायोटिक टेबलेट भी लेने की जरूरत है। 4 टेबलेट के एक पत्ते की कीमत 700 रुपए है। महेश ने अब गांव के दूसरे लोगों की तरह मुख्यमंत्री राहत कोष से आर्थिक सहायता के लिए आवेदन किया है।
इसी तरह, मेहना गांव में रहने वाले 60 साल के मोहन काम्पा के पास उनके दाएं कान में हुए ऑडिटरी कैनल कैंसर के इलाज के लिए पैसे नहीं हैं। डॉक्टरों ने उन्हें 300 किमी दूर कटक में स्थित आचार्य हरिहर क्षेत्रीय कैंसर केंद्र में रेफर कर दिया है। उन्हें मई में दवा दी गई थी और 2 महीने बाद दोबारा बुलाया गया था। वह कहते हैं, “मेरे पास पैसे नहीं हैं। मेरे बेटे मुझे पैसे भेजते हैं, लेकिन उनकी कमाई भी बहुत कम है। ऐसे में अस्पताल जाने का क्या मतलब है?”
बरगढ़ में कैंसर का इलाज करवाना आसान नहीं है। जिले में सिर्फ एक सरकारी अस्पताल और तीन 50 बिस्तरों वाले निजी अस्पताल हैं। जब से प्रदेश सरकार ने अपने सभी अस्पतालों में मुफ्त कीमोथेरेपी की सुविधा शुरू की है, यहां के सरकारी हॉस्पिटल में हमेशा मरीजों की लंबी कतार लगी रहती है। लेकिन, अस्पताल में एमआरआई, एंडोस्कोपी या सीटी स्कैन कराने की बुनियादी सुविधाएं भी मौजूद नहीं हैं।
निजी अस्पतालों में एंडोस्कोपी कराने में 2,000 रुपए का खर्च आता है, जबकि सीटी स्कैन पर 2,000 से 5,000 रुपए तक खर्च हो जाते हैं। डॉक्टर मरीजों को आसपास स्थित बेहतर सुविधाओं वाले वीएसएस अस्पताल में रेफर कर देते हैं। यहां मरीजों की भीड़ इतनी ज्यादा है कि 30 बेड वाली कैंसर यूनिट में 260 मरीजों को दाखिल करना पड़ता है। इस अस्पताल में सिर्फ तीन ऑन्कोलॉजिस्ट और 13 नर्स हैं। ऐसे हड़बड़ी भरे माहौल में कुछ मरीज गलत निदान के शिकार हो जाते हैं। रेमुंडा गांव में रहने वाली संजुक्ता सत्पथी के पेट में सूजन है। वह अगस्त 2017 से विभिन्न अस्पतालों के चक्कर लगा रही हैं। उनका पेट के कैंसर का ऑपरेशन किया गया था और कीमोथेरेपी भी की गई थी। जून 2018 में जब उन्हें दोबारा समस्या हुई, तो डॉक्टरों ने बताया कि उन्हें सिर्फ अल्सर की शिकायत हो सकती है।
पुरोहित कहते हैं कि सरकार ने संकट को मानने से इनकार कर दिया है। यहां तक कि वह एक प्रारंभिक सर्वेक्षण भी कराने पर ध्यान नहीं दे रही है। यही नहीं, ओडिशा नैशनल कैंसर रजिस्ट्री का हिस्सा भी नहीं है, जो व्यवस्थित रूप से कैंसर का डेटा एकत्रित करता है। हालांकि, मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने हाल ही में घोषणा की थी कि इस पर काम जल्द ही शुरू होगा, लेकिन अब तक इस संबंध में कोई भी कदम नहीं उठाए गए हैं। डाउन टू अर्थ ने राज्य के स्वास्थ्य मंत्री नाबा किशोर दास और प्रदेश स्वास्थ्य आयुक्त प्रमोद कुमार मेहेरदा को एक विस्तृत प्रश्नावली भेजी और पूछा गया कि ठोस सबूतों के बावजूद सरकार ने बरगढ़ में कैंसर के मामलों को काबू करने के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाए। हम अब तक जवाब का इंतजार कर रहे हैं। मेहेरदा को कई बार कॉल की गई, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।
बरगढ़ के डॉक्टर सर्वसम्मति से मानते हैं कि मृत्यु दर को कम करने के लिए शुरुआती स्तर पर इसका पता लगाना ही एकमात्र तरीका है और इसमें बरगढ़ में कैंसर अस्पताल खुलने से मदद मिल सकती है। लेकिन, सरकार टाटा मेमोरियल अस्पताल (टीएमएच) की एक शाखा कटक में खोलना चाहती है, जहां पहले से एक कैंसर अस्पताल मौजूद है। गैर-लाभकारी संस्था यूनाइटेड फोरम ने बरगढ़ में टीएमएच की शाखा खोलने की मांग करते हुए 2018 में केंद्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को पत्र लिखा था, जो खुद पश्चिमी ओडिशा से आते हैं। संस्था ने जनवरी 2019 में राज्य के स्वास्थ्य मंत्री को भी इस संबंध में पत्र लिखा था। किसी तरह की कोई सरकारी सहायता न मिलते देख तेजागोला गांव के एक किसान सरोज कुमार साहू ने सुधारात्मक उपाय अपनाने का निर्णय लिया। कैंसर में अपने पिता और चाचा को खोने के बाद उन्होंने जैविक खेती की ओर रुख कर लिया है। वह कहते हैं, “मैं अपने चाचा का इलाज कराने के लिए उन्हें कटक के कैंसर अस्पताल लेकर जाया करता था। मैं वहां अपने कई परिचितों को इलाज करवाते देखता था। यह दिल दहला देने वाला था। मैंने महसूस किया कि कीटनाशक धीमे जहर हैं। मेरी पत्नी और बेटा है। मैं उनकी जिंदगी को जोखिम में नहीं डाल सकता।” साहू अब महंगे जैविक कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं। हालांकि, आसपास के खेतों में किसान अब भी अंधाधुंध कीटनाशकों का इस्तेमाल कर रहे हैं, इसलिए कीट उनके खेतों में आ जाते हैं।
हताशा के बीच सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्यरत लोगों का एक समूह आशा की नयी किरण बन उभरा है। ये लोग मूलतः भुवनेश्वर में रहते हैं, लेकिन इन्होंने बरगढ़ को अपना दूसरा घर बना लिया है। उम्मीदें नामक यह समूह बरगढ़ में शिविर आयोजित कर और घर-घर घूमकर कैंसर की जल्द से जल्द पहचान के लिए लोगों को जागरूक करता है। यह कैंसर चालीसा नाम की पॉकेट साइज पत्रिकाएं वितरित करता है, जिसमें कैंसर की जल्द पहचान के लिए उड़िया में जानकारी दी गई है। डाउन टू अर्थ ने आंगनबाड़ी सहायकों के लिए आयोजित ऐसे ही एक शिविर में भाग लिया। उम्मीदें के संस्थापकों में से एक, निताई पाणिग्रही बताते हैं, “हमने इस अभियान के द्वारा कई मरीजों की पहचान की है।” पाणिग्रही कहते हैं, “यह तो स्पष्ट है कि बरगढ़ संकट से जूझ रहा है। अब सरकार को इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए और इससे निपटने के लिए पहले कदम के तौर पर एक कैंसर रजिस्ट्री बनाने पर काम शुरू करना चाहिए।”