
नए शोध से पता चला है कि भारत में महिलाओं को कोरोनावायरस महामारी के दौरान पुरुषों की तुलना में बहुत अधिक नुकसान हुआ है। पहले से ही महिलाएं लिंग आधारित असमानताओं का सामना करतीं हैं, उसके ऊपर कोरोना ने इन्हें आर्थिक रूप से गरीबी में धकेल दिया है।
यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर के ग्लोबल डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट की प्रोफेसर बीना अग्रवाल ने शोध के माध्यम से पाया कि महिलाओं को कोविड लॉकडाउन के दौरान पुरुषों की तुलना में नौकरियों का अधिक नुकसान हुआ है, उनकी लॉकडाउन के बाद रिकवरी भी बहुत कम रही है। वे अपनी छोटी सी बचत और संपत्ति के दोहरे कार्य बोझ, डिजिटल असमानता और प्रतिबंधात्मक मानदंडों के कारण आर्थिक असुरक्षा का सामना करती हैं।
शहरी महिलाओं ने लॉकडाउन के दौरान अपनी पूरी अथवा अधिकतम आय के नुकसान होने के बारे में बताया। घरेलू कामगारों के रूप में कार्यरत लोगों की बड़ी संख्या में काम पर रोक लगा दी गई थी, कई अपने गांवों में वापस चले गए और अधिकांश तब से वापस नहीं आए हैं क्योंकि वे आसानी से अब वहां नहीं रह सकते हैं। यहां तक कि जो महिलाएं रोजगार खोजने में कामयाब रही, या स्व-नियोजित श्रमिकों के रूप में अपने व्यापार को फिर से स्थापित किया उनकी पहले जैसी आय नहीं हो रही है।
सीमित या बिना आय के जीवन यापन करने वाली गरीब महिलाओं को अपनी छोटी सी बचत को खर्च करना पड़ता है। कई लोग कर्जदार हो गए हैं और समय के साथ, अपनी सीमित संपत्ति जैसे छोटे जानवर, गहने या यहां तक कि व्यापार के अपने उपकरण, जैसे कि गाड़ियां बेचने के लिए मजबूर हो गए हैं। संपत्ति के नुकसान ने उनके आर्थिक भविष्य को गंभीर रूप से खतरे में डाल दिया, यहां तक उन्हें भयंकर गरीबी में धकेल दिया है।
दरअसल, जब पुरुषों की नौकरी चली जाती हैं, तब भी महिलाएं बहुत अधिक प्रभावित होती हैं। उदाहरण के लिए, बेरोजगार पुरुष प्रवासियों के अपने घर गांवों में लौटने से स्थानीय नौकरियों की मांग अधिक बढ़ गई जो कि महिलाओं के लिए थी। महिलाओं पर घर के काम का बोझ, खाना पकाने, बच्चों की देखभाल करने और जलाऊ लकड़ी और पानी लाने से भी काफी बढ़ गई है। सामाजिक मानदंडों के कारण, जहां महिलाएं सबसे अंतिम में और सबसे कम खाती हैं, भोजन की कमी का बोझ महिलाओं पर अधिक पड़ गया है।
इसके अलावा, कोविड के दौरान घरों में भीड़ बढ़ने से घरेलू हिंसा में भी तेजी आई है, लेकिन कई महिलाएं मोबाइल फोन तक पहुंच नहीं होने के कारण अधिकारियों को इसकी सूचना नहीं दे सकती हैं। शोध में यह भी पाया गया कि कोविड के कारण पुरुष मृत्यु दर ने विधवा महिलाओं पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है, जो आने-जाने पर रोक-टोक का सामना करती हैं और इस कारण अलगाव बढ़ गया है। यह शोध वर्ल्ड डेवलपमेंट नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
इस सब के बावजूद, अग्रवाल के शोध से पता चलता है कि ग्रामीण महिलाओं की आजीविका तब अधिक व्यवहार्य रही है जबकि वे किसी समूह आधारित उद्यमों से जुड़ते हैं। यह केरल में विशेष रूप से स्पष्ट है, जहां राज्य सरकार ने बचत और ऋण के लिए महिलाओं के निकट समूहों को बढ़ावा दिया और इन समूहों के सदस्यों ने संयुक्त उद्यम, विशेष रूप से समूह खेती को अपनाया।
केरल के 30,000 महिला समूहों में से अधिकांश जो सामूहिक रूप से कोविड के पहले से ही खेती कर रहे थे, उन्हें इसने बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान होने से बचाया, क्योंकि उनके पास कटाई के लिए समूह श्रम था, कई ने अपनी उपज महिलाओं द्वारा संचालित सामुदायिक रसोई में बेची थी। इसके विपरीत, कई अकेले काम करने वाले पुरुष किसानों को श्रम की कमी या खरीदारों की कमी के कारण उपज का भारी नुकसान हुआ। पूर्वी भारत में, समूहों में खेती करने वालों ने भोजन अधिक सुरक्षित होने के बारे में बताया, क्योंकि उनके पास व्यक्तिगत छोटे किसानों की तुलना में अधिक खाद्यान्न की पैदावार थी, जिन्हें कम-विश्वसनीय सरकारी सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर निर्भर रहना पड़ता था।
अग्रवाल ने बताया कि भारत में 60 लाख स्वयं सहायता समूहों के बीच समूह उद्यमों के विस्तार की बहुत बड़ी संभावना है। महामारी के दौरान, इन स्वयं सहायता समूहों की लगभग 66,000 महिला सदस्यों ने लाखों मास्क, हैंड सैनिटाइटर और सुरक्षात्मक उपकरणों का उत्पादन करके खुद को बचाया। ग्रामीण क्षेत्रों में, समूह खेती इन समूहों के लिए स्थायी आजीविका प्रदान कर सकती है।
प्रोफेसर बीना अग्रवाल कहती हैं कि समूहों में काम करने के ये उदाहरण आजीविका को पुनर्जीवित करने के लिए महत्वपूर्ण सबक देते हैं, क्योंकि भारत आर्थिक सुधार के लिए नए रास्ते तलाश रहा है। वे सरकार और गैर सरकारी संगठन सहायता के माध्यम से महिला-केंद्रित समूहों को मजबूत करने के महत्व पर प्रकाश डालते हैं तथा अर्थव्यवस्था को बदलने के लिए यहां अनेक अवसर हैं।