खाने की गुणवत्ता और न्यूट्रिशन लेबलिंग के बारे में भारतीय बच्चों और अभिभावकों में है जागरूकता की कमी

पंजाब में किए एक नए अध्ययन में बच्चों और अभिभावकों के बीच खाद्य गुणवत्ता और फूड लेबलिंग के बारे में जागरूकता की कमी को उजागर किया है
खाने की गुणवत्ता और न्यूट्रिशन लेबलिंग के बारे में भारतीय बच्चों और अभिभावकों में है जागरूकता की कमी
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बच्चे आने वाले कल का भविष्य हैं, लेकिन यह भविष्य कितना स्वस्थ होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वो बचपन में क्या खाते हैं और वो कितना पोषक होता है। मौजूदा स्थिति यह है कि बच्चे, जंक फूड और तले भोजन के मायाजाल में इस कदर उलझे हैं कि उन्हें और उनके अभिभावकों भी यह नहीं सूझ रहा कि वो अपने बच्चों को इस समस्या से कैसे बचाएं।

आज इन अस्वास्थ्यकर भोजन को विज्ञापनों के माध्यम से इस तरह प्रस्तुत किया जाता है कि बच्चों को लगता है कि खाद्य उत्पाद ही सबसे बेहतर हैं। कहीं न कहीं नामी-गिरामी कंपनियां भी इसका फायदा उठाकर बच्चों की सेहत के साथ खिलवाड़ कर रही हैं। वहीं बच्चों और अभिभावकों में भी खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता और न्यूट्रिशन लेबलिंग के बारे में जागरूकता की कमी है। जो इस समस्या को फैलने का मौका दे रहा है।  

इसको लेकर पंजाब में किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि वहां बच्चों और अभिभावकों में खाद्य गुणवत्ता और फूड लेबल को लेकर जागरूकता की कमी है। रिसर्च के मुताबिक 14 से 18 वर्ष की आयु के करीब आधे बच्चों और उनके माता-पिता ने खाद्य पदार्थ लेते समय फूड लेबल पर उसकी समाप्ति की तारीख नहीं देखी थी। इसी तरह 40 फीसदी बच्चे खाद्य प्रदार्थों की गुणवत्ता सम्बन्धी जानकारी के बारे में अवगत नहीं थे।

यह अध्ययन रमणिका अग्रवाल के नेतृत्व में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, बठिंडा के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है, जिसके नतीजे जर्नल बीएमसी पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित हुए हैं। यह रिसर्च पंजाब के मालवा क्षेत्र में 14 से 18 वर्ष की आयु के 722 बच्चों और उनके अभिभावकों पर मार्च से जून 2022 के बीच किए क्रॉस-सेक्शनल अध्ययन पर आधारित है।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने प्रश्नावली की मदद से इन बच्चों और परिवारों की सामाजिक-जनसांख्यिकी विशेषताओं, आहार संबंधी प्राथमिकताओं, प्रति दिन सर्विंग की औसत संख्या, हर माह नमक की खपत, घर की जगह बाहर खाने की प्राथमिकता और परिवार में सह-रुग्णता पर आंकड़े एकत्र किए हैं।

साथ ही शोधकर्ताओं ने यह भी जानकारी एकत्र की है कि किया किशोर और उनके माता-पिता ने खाद्य पैकेजों पर प्रकाशित जानकारी जैसे की प्रोडक्ट की समाप्ति की तिथि, उसमें मौजूद सामग्री, पदार्थ शाकाहारी है या मांसाहारी और उसपर छपी पोषण सम्बन्धी जानकारी को देखा था।

खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता के बारे में 40 फीसदी बच्चों को नहीं है जानकारी

अध्ययन में जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनके अनुसार टेलीविजन में दिखाए जाने वाले विज्ञापन और खाद्य लेबल, युवाओं की खाने की आदतों पर व्यापक प्रभाव डालते हैं। साथ ही वो खाने की उनकी प्रवृत्ति को भी नियंत्रित करते हैं। अध्ययन के मुताबिक केवल एक चौथाई माता-पिता और अभिभावकों ने टेलीविजन में दिखाए जाने वाले खाद्य विज्ञापनों में तथ्यों की सटीकता के बारे में परवाह की थी।

रिसर्च के मुताबिक अध्ययन में शामिल करीब 46 फीसदी बच्चे सप्ताह में तीन बार घर की जगह बाहर खाना खा रहे थे। वहीं करीब 48.8 फीसदी ने माना की उन्होंने कभी भी खाद्य पदार्थों के पैकेट पर उसके खराब होने की तारीख पर ध्यान नहीं दिया। वहीं 40.2 फीसदी को उन खाद्य पदार्थों में मौजूद उत्पाद की गुणवत्ता के बारे में जानकारी नहीं थी। न ही उन्होंने इस बात की जांच की थी।

वहीं 71.7 फीसदी बच्चों ने माना कि वो संदेह होने पर इस बात की हमेशा जांच करते हैं कि खाद्य पदार्थ शाकाहारी है या मांसाहारी। इसी तरह अधिकांश बच्चों (61.9 फीसदी) को यह फूड लेबल ध्यान देने योग्य नहीं लगे जबकि 55.8 फीसदी ने माना की इनको पढ़ना मुश्किल हैं।

वहीं सर्वे में शामिल आधे बच्चे (52.2 फीसदी) खाद्य लेबलों में प्रकाशित घटकों को नहीं समझते हैं, जबकि 59 ने माना कि लेबल पर प्रकाशित जानकारी का उनके खरीदने के व्यवहार को प्रभावित नहीं किया था। यदि अभिभावकों की बात करें तो केवल 37.8 फीसदी माता-पिता ने टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों के समय के बारे में अपनी चिंता व्यक्त की थी।

केवल 25.5 फीसदी इसमें दिखाई गई जानकारी की सटीकता को लेकर चिंतित थे। वहीं प्रसिद्ध हस्तियों द्वारा खाद्य विज्ञापन में अस्वास्थ्यकर उत्पादों को बढ़ावा देना केवल 45 फीसदी अभिभावकों के लिए परेशानी का सबब था।

देखा जाए तो आज सिर्फ भारत ही नहीं दुनिया भर में खान-पान की गुणवत्ता, पोषण और मोटापा एक बड़ी समस्या बन चुका है। अब यह समस्या विकसित देशों तक ही सीमित नहीं है। भारत जैसे देश में इस समस्या से त्रस्त हैं जो उनकी भावी पीढ़ी को खोखला कर रही है। वैश्विक स्तर पर देखें तो यह समस्या हर साल 28 लाख मौतों के लिए जिम्मेवार है।

वैश्विक स्तर पर देखें तो बढ़ता मोटापा एक बड़ी समस्या बन चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 1975 के बाद से यह समस्या तीन गुणा विकराल हो गई है। आज दुनिया की अधिकांश आबादी उन देशों में रहती है जहां अधिक वजन और मोटापे की समस्या, कम वजन वाले लोगों की तुलना में कहीं ज्यादा लोगों की जान ले रही है।

यदि बच्चों की बात करें तो 2020 में पांच वर्ष से कम आयु के करीब चार करोड़ बच्चे बढ़ते वजन या मोटापे से ग्रस्त थे। इसी तरह पांच से 19 वर्ष की आयु के 34 करोड़ बच्चे और किशोर इस समस्या से जूझ रहे थे।

क्या है न्यूट्रिशन लेबलिंग?

न्यूट्रिशन लेबलिंग, किसी खाद्य पदार्थ के पोषक गुणों के बारे में उपभोक्ताओं को जानकारी देने का एक तरीका है। इसके दो पहलू होते हैं, पहला - पोषक तत्वों की अनिवार्य रूप से दी जाने वाली जानकारी और दूसरा, इस अनिवार्य लेबलिंग को समझने के लिए दी गई अतिरिक्त जानकारी।

वहीं पैकेट के पीछे छोटे अक्षरों में पोषक तत्वों का विवरण दिया जाता है, जबकि अतिरिक्त जानकारी, जिसे फ्रंट-ऑफ-पैक लेबलिंग भी कहते हैं, पैकेट के सामने की तरफ होती है। आमतौर पर इस न्यूट्रिशन लेबलिंग के तहत पदार्थ में मौजूद नमक, वसा, शर्करा, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट आदि पोषक तत्वों की जानकारी दी जाती है। इसके साथ ही अगर पैकेट पर सेहत या पोषण संबंधी कोई दावा किया गया है तो वह भी न्यूट्रिशन लेबलिंग के दायरे में आता है।

देखा जाए तो नियामक व्यवस्था की कमियों के चलते भी भारत में कई प्रतिष्ठित फूड ब्रांड भी खाद्य वस्तुओं के पैकेट पर प्रत्येक उपभोग की उचित मात्रा (सर्विंग साइज) और नमक की जानकारी नहीं देते हैं। हालांकि जिन उत्पादों में न के बराबर नमक होता है, उनमें जरूर कुछ ब्रांड नमक की मात्रा का उल्लेख कर देते हैं। वहीं दूसरी तरफ ऐसी वस्तुएं जिनमें नमक अधिक होता है, यह जानकारी छिपा ली जाती है।

भारत में ट्रांस फैट, सेचुरेटेड फैट और डाइटरी फाइबर को छोड़कर पोषण से जुड़े अन्य दावों की तरफ ध्यान ही नहीं दिया जाता। वहीं फूड ब्रांड किस तरह के दावे कर सकते हैं और किस तरह के नहीं, यह भी तय नहीं है।

ऐसे में शोधकर्ताओं ने परिवार पर केन्दित हस्तक्षेपों का सुझाव दिया है। जो पोषण में सुधार और मोटापे की दर को कम करने के लिए बच्चों में स्वस्थ भोजन और उससे जुड़ी आदतों को विकसित करने की वकालत करते हैं। इसके लिए बच्चों के साथ-साथ उनके माता-पिता और अभिभावकों का भी इस बारे में जागरूक होना जरूरी है।

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