ग्राउंड रिपोर्ट: इस चुनावी मौसम में भी सिर्फ 35 किलो अनाज और सामाजिक स्वीकार्यता मांग रहे हैं कुष्ठ रोगी

कुष्ठ रोगियों को दो पेंशनों के 1900 रुपए और पांच किलो राशन मिलता है। रोजगार के लिए उन्हें तकनीकी शिक्षा तक नहीं दी जा रही
कमानुल निशा; फोटो: सीटू तिवारी
कमानुल निशा; फोटो: सीटू तिवारी
Published on

कमानुल निशा अपने दो कमरों के घर के बाहर बैठी बड़बड़ा रही है। अपने दोनों पैर से अपंग कमानुल निशा अपनी कुष्ठ कॉलोनी में आए बूथ लेवल अफसर को आया देखकर कह रही है, “ हम वोट दे देते है, कुछ सोचते नहीं। हमको जो दिक्कत है उसको भगवान देखेगा। नेता तो सब झूठ बोलकर वोट लेकर बदल जाएगा।”

कमानुल पूर्वी चंपारण के मुख्यालय मोतिहारी स्थित कुष्ठ आश्रम में रहती हैं। कमानुल जैसे इस आश्रम में 25 कुष्ठ रोगी और उनके परिवार रहते है। इस कॉलोनी में कुल 40 वोटर है, जो छठे चरण में वोट देंगें। लेकिन ये वोटर अपने अधिकार के प्रति ठीक वैसे ही उदासीन है, जैसे सरकार इनके प्रति उदासीन है।

1900 रुपए, 5 किलो अनाज में घिसटती जिंदगी

रवि यादव मोतिहारी कुष्ठ आश्रम के कॉलोनी मुखिया है। उन्हें ड्रेसिंग करने की ट्रेनिंग साल 1982 से कुष्ठ रोगियों के लिए काम कर रही लिटिल फ्लॉवर संस्था ने दी है। उन्हें इसके लिए हर माह 500 रुपए मिलते है।

36 साल के रवि ने शादी नहीं की। डाउन टू अर्थ से वो कहते है, “ काम धंधा कुछ है नहीं, बाल बच्चा हो जाता तो उसे क्या खिलाते? बिहार सरकार से 1900 रुपए पेंशन और ड्रेसिंग से 500 रुपए मिलते है। पांच किलो अनाज सरकार देती है जबकि हम लोगों को अंत्योदय योजना (35 किलो) से अनाज मिलना चाहिए। हम बार बार यहां आने वाले नेताओं से यही डिमांड करते है, लेकिन कुछ होता नहीं है।”

बिहार में कुष्ठ रोगियों के लिए शताब्दी कुष्ठ कल्याण योजना के तहत जी2डी (ग्रेड 2 डिसएबिलिटी)  के कुष्ठ रोगियों को हर महीने 1500 रुपए मिलते है। इसके अलावा उन्हें 400 रुपए की विकलांगता पेंशन मिलती है।

कुष्ठ रोगियों के साथ काम कर रही संस्था सम उत्थान के सचिव रमेश प्रसाद कहते है, “ इन दो पेंशन के अलावा सरकार कुछ नहीं कर रही है। हम लोग अंत्योदय योजना की मांग कर रहे है, लेकिन राज्य की कुल 51 कुष्ठ कॉलोनी में कुछ को छोड़कर कहीं भी अंत्योदय का 35 किलो अनाज नहीं मिलता। बिहार में किसी भी कुष्ठ कॉलोनी में आपको सिर्फ भिखारी या मजदूर मिलेंगें क्योंकि सरकार के पास उनके रोजगार या स्किल डेवलेपमेंट को लेकर कोई योजना नहीं है।”

भीख मांगना मजबूरी है

नुसरत जहां को बचपन से ही कुष्ठ रोग है। वो भी मोतिहारी की कुष्ठ कॉलोनी में रहती है। उनके पति सुलेमान मियां एक स्वस्थ आदमी है लेकिन उनके दादा – नाना को कुष्ठ रोग था। सुलेमान ने नुसरत से दूसरी शादी की है। नौजवान सुलेमान जो बमुश्किल 24 साल के लगते है वो एक गाड़ी में बैठकर भीख मांगकर रोजना 200 से 400 रुपए लाते है। ये पूछने पर कि कोई काम क्यों नहीं करते, नुसरत कहती है, “ सबको भीख मांगते देखा तो आदत पड़ गई है भीख मांगने की। इससे काम नहीं होता।”

ऐसा नहीं कि इस कॉलोनी में सब लोग भीख मांगना चाहते है। लेकिन कई बार उनकी मजबूरी है जैसे 50 साल के वकील मियां की। जो पत्नी की मृत्यु के बाद कुष्ठ कॉलोनी में रहते है। वो कहते है, “ जब जवान थे तो मजदूरी करके घर वालों का पोषण किया लेकिन अब अपंग हो गए। भीख मांगने के अलावा सरकार कोई काम दे दे तो अच्छा लगे।”

दरअसल कुष्ठ रोगियों को लेकर परिवार के साथ समाज की भी ये तय राय है कि ये भीख मांगकर अपना गुजारा करें। 70 से ज्यादा बसंत देख चुकी नसीरन के बालों में भरपूर चांदी है। लकड़ी चीरने वाले उनके पति की मौत लकड़ी चीरते वक्त गाछ (पेड़) गिरने से हो गई है। हाल ही में नसीरन के बेटे का भी देहांत हो गया है। नसीरन थोड़े दिन पहले ही कुष्ठ आश्रम आई है, वो कहती है, “ बहु ने घर से बाहर निकालकर कहा कोढ़ी हो, भीख मांग कर खाओ। अब इस उम्र में भीख मांगकर कैसे खाया जाएगा?”

कॉलोनी टू कॉलोनी शादी होती है

राज्यसभा में साल 2023 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री ध्दारा दिए गए जवाब के मुताबिक बिहार में प्रत्येक 10,000 की आबादी पर व्यापकता दर (प्रीवेलेंस रेट) 0.9 है। नेशनल स्ट्रैटजिक प्लान एंड रोडमैप फॉर लेप्रोसी 2023-2027 में दर्ज आंकड़ों के मुताबिक साल 2009-10 से 2021-22 के बीच हर वर्ष सबसे ज्यादा नए कुष्ठ रोगी उत्तरप्रदेश (20,492), बिहार (17,471) और महाराष्ट्र (15,812) में मिलते है।

वहीं बच्चों में इस रोग के प्रसार की बात करें तो साल 2009-10 से 2021-22 के बीच बिहार में 2,383, महाराष्ट्र में 1,699 और यूपी में 1,106 मामले दर्ज हुए। इसी समयकाल में जी2डी मामले प्रत्येक साल यूपी में 519, बिहार में 475 और महाराष्ट्र में 467 दर्ज हुए। बिहार राज्य के इन डराने वाले आंकड़ों से इतर जागरूकता के संदर्भ में भी सरकार बहुत गंभीर नहीं है। यहीं वजह है कि कुष्ठ रोगियों के ठीक हो जाने के बाद भी सोशल स्टिग्मा झेलना पड़ता है। और ये एक तरह का सामाजिक बहिष्कार होता है।

राम बढ़ई एसोसिएशन ऑफ पीपुल एफेक्टड बाई लेप्रोसी के बिहार से सदस्य है। वो जूता मोजा पहनकर ही सार्वजनिक जगहों पर जाते है। इसकी वजह राम बढ़ई बताते है कि अगर वो ऐसा ना करें तो पैर देखकर चाय वाला चाय भी नहीं देगा।

राम बढ़ई बताते है, “ मेरे बच्चों की शादी बाहरी समाज में नहीं हो पाई, जबकि मेरा एक लड़का इंग्लैंड में क्रूज पर काम करता है और दूसरा बेटा अस्पताल में आईटी इंचार्ज है। दोनों की शादी हमें कॉलोनी(कुष्ठ) में करनी पड़ी। भारत भर में 850 कॉलोनी है और हमारे स्वस्थ और पढ़े लिखे बच्चों की शादी कॉलोनी टू कॉलोनी में ही संभव है।”

बायोमैट्रिक  की नई परेशानी

कुष्ठ कालोनियों की जगहें भी गंदगी से भरी है। मोतिहारी कुष्ठ कॉलोनी के अंदर बने घर टूट टूट कर गिर रहे है तो मुख्य गेट के ठीक बाहर चौड़ा नाला बह रहा है। बरसात के दिनों में इसमें उफनता पानी कुष्ठ कॉलोनी में रहने वाले लोगों को डराता है। गीता देवी कहती है, “ हमेशा डर लगता है कि कहीं बच्चा इसमे गिर ना जाएं। नेता लोग आते है तो वो लोग सिर्फ आश्वासन देते रहते है।”

बायोमैट्रिक भी इन रोगियों के साथ बड़ी परेशानी बनकर उभरी है। महलका खातून को बीते एक साल से 400 रुपए मिलने वाली विकलांगता पेंशन नहीं मिली है। उनके हाथ टेढे मेढे हो चुके है और आंखों की रोशनी भी अब साथ नहीं दे रही। वो कहती है, “ सरकार देती ही क्या थी, चार सौ रुपए। वो भी एक साल से नहीं दे रही। हम लोग कहां चले जाएं, सरकार बता दे।”

महलका के बगल में अपने तख्त पर बैठी राज रानी के पति की मृत्यु हो चुकी है। अब उन्हें सिर्फ चार सौ रुपए मिलते है। वो कहती है, “ आंख चली गई है मेरी, देह में ताकत नहीं है। अगर गार्जियन (पति) चला गया तो सरकार को उनको मिलने वाला 1500 रुपए में से हमको कुछ देना चाहिए। कैसे जिंदा रहेंगें हम?”

सोशल स्टिग्मा, सरकार की बेरूखी झेलते ये कुष्ठ रोगी अपने जीवन की बेसिक आवश्यकताओं को लेकर सरकार का आसरा देख रहे है। जैसा कि सम उत्थान के रमेश प्रसाद कहते है, “ इनके पास हाथ पांव नहीं है, किसी जमीन का मालिकाना हक नहीं है, कोई रोजगार नहीं है। सरकार इनको इंसान समझकर कुछ तो करें।”

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in