देश के 15 जिलों की जमीनी पड़ताल-6 : दूसरी लहर में बिहार और झारखंड में बहुत बुरे थे हालात

कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान बिहार और झारखंड के ग्रामीण इलाकों की स्वास्थ्य व्यवस्था बुरी तरह चरमरा गई
बिहार के पश्चिमी चंपारण क्षेत्र में दूसरी लहर के दौरान कोरोना संक्रमित अपनी मां को रेहड़ी में लिटा कर अस्पताल ले जाते हुए।
बिहार के पश्चिमी चंपारण क्षेत्र में दूसरी लहर के दौरान कोरोना संक्रमित अपनी मां को रेहड़ी में लिटा कर अस्पताल ले जाते हुए।
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डाउन टू अर्थ ने कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान देश के सबसे अधिक प्रभावित 15 जिलों की जमीनी पड़ताल की और लंबी रिपोर्ट तैयार की। इस रिपोर्ट को अलग-अलग कड़ियों में प्रकाशित किया जा रहा है। पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि कैसे 15 जिले के गांव दूसरी लहर की चपेट में आए। दूसरी लहर में आपने पढ़ा अरुणाचल प्रदेश के सबसे प्रभावित जिले का हाल। तीसरी कड़ी में आपने पढ़ा, हिमाचल के लाहौल स्पीति की जमीनी पड़ताल।  चौथी कड़ी में आपने पढ़ा, दूसरी लहर के दौरान गुजरात में कैसे रहे हालात । इसके बाद आपने उत्तराखंड से अरविंद मुदगिल व दीपांकर ढोंढियाल और मध्य प्रदेश से राकेश कुमार मालवीय की रिपोर्ट पढ़ी। आज पढ़ें, दूसरी लहर के दौरान बिहार और झारखंड में कैसे थे हालात-  

बिहार

मुजफ्फरपुर जिले के कुढ़नी पंचायत के निवासी मनोज कुमार कहते हैं, “महामारी ने हमारा सब कुछ लूट लिया है।” अप्रैल के मध्य में उनके रिश्तेदार अंगद कुमार को खांसी और तेज बुखार हुआ। मनोज आगे बताते हैं, “वह कुढ़नी प्रखंड के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र गए, जहां सिर्फ रैपिड एंटीजन टेस्ट ही उपलब्ध था, उनकी टेस्ट रिपोर्ट नेगेटिव आने के बाद हमें सुकून मिला। तीन दिन बाद अंगद की सांस फूलने लगी। हम उसे एक निजी अस्पताल ले गए जहां उनका आरटी-पीसीआर टेस्ट पॉजिटिव आया। उस समय तक, उनका ऑक्सीजन लेवल 60 से नीचे गिर गया था और उन्हें फेफड़ों का गंभीर संक्रमण हो गया था। उचित उपचार में देरी के कारण हम उन्हें बचा नहीं सके।” एक निजी अस्पताल में महंगे इलाज का खर्च उठाने के लिए उनके परिवार ने सोने के जेवर गिरवी रखे थे और पैसे उधार लिए थे।

मुजफ्फरपुर और बिहार के अन्य जिलों में ऐसे कई परिवारों की कहानियां सुनने को मिलती रही, जिन्होंने अपने प्रियजनों को बचाने के लिए स्थानीय साहूकारों से कर्ज लिया, अपनी खेती की जमीन बेच दी और सारी जमा पूंजी खर्च करने पर मजबूर हो गए। निजी अस्पतालों में कोविड के इलाज पर लोग औसतन दो से पांच लाख रुपये खर्च कर रहे हैं। पश्चिमी चंपारण के बगहा-2 प्रखंड के नौरंगिया ग्राम पंचायत के निवासी सुरेश महतो कहते हैं, “जो लोग इतने गरीब हैं कि उधार भी न ले सकें उनके लिए स्थानीय केमिस्ट की दुकानें ही एक मात्र उम्मीद हैं।” उनके गांव में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) बदहाल अवस्था में है। महतो का कहना है कि सालों से कोई डॉक्टर पीएचसी नहीं आया। उनके शब्द सच प्रतीत होते हैं, क्योंकि अप्रैल और मई के बीच राज्य भर में हुई 5,000 कोविड मौतों में से 50 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों से थे।

इससे भी बुरी बात यह है कि अप्रैल के दूसरे सप्ताह में जब बिहार में कोविड-19 संक्रमण की दूसरी लहर आई तब स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख सचिव ने पीएचसी और स्वास्थ्य उप-केंद्रों के सभी डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मचारियों को डेप्युटेशन पर जिला मुख्यालय के कोविड अस्पतालों में शामिल होने का आदेश जारी कर दिया। इसके फलस्वरूप गांवों की स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गई। अकेले मुजफ्फरपुर में ही लगभग 90 डॉक्टर और सैकड़ों पैरामेडिकल कर्मी मुजफ्फरपुर मुख्यालय में कोविड अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों में योगदान देने लगे। अधिकांश पीएचसी हफ्तों तक बंद रहे और कोविड-19 गांवों में बेरोक टोक फैलता रहा।

सरकार को इन लापता ग्रामीण डौकटरों की याद मई के दूसरे हफ्ते में आई। ग्रामीण क्षेत्रों में कोविड-19 जटिलताओं के कारण होने वाली मौतों में वृद्धि के बाद, स्वास्थ्य विभाग ने डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों को पीएचसी में वापस जाने का आदेश दिया। स्वास्थ्य विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव प्रत्यय अमृत ने बताया कि सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को मजबूत करने के लिए 1,451 अतिरिक्त पीएचसी को फिर से सक्रिय करने का फैसला किया है और घरेलू अलगाव में कोविड रोगियों की निगरानी के लिए 80,000 आशा कार्यकर्ताओं को तैनात किया लेकिन कइयों के लिए बहुत देर हो चुकी है।

लीची के किसानों और कारीगरों पर संकट

मुजफ्फरपुर गर्मी में पैदा होनेवाले फल लीची के लिए जाना जाता है। मई की शुरुआत में लगाए गए लॉकडाउन ने हजारों लीची किसानों के साथ-साथ इस उद्योग में लगे अन्य लोगों को भी अपनी चपेट में ले लिया। इसमें लीची तोड़कर उसे पैक और लोड करने वाले मजदूरों के अलावा सैंकड़ों स्थानीय एजेंट भी शामिल हैं जो राज्य के बाहर के व्यवसाइयों से व्यापार करते हैं। पिछले साल की तरह, लॉकडाउन और अंतरराज्यीय आवाजाही पर प्रतिबंध का मतलब है कि अन्य राज्यों के व्यापारी फल खरीदने के लिए इन गांवों में नहीं आएंगे। मुजफ्फरपुर में लीची के बाग लगभग 12,000 हेक्टेयर में फैले हुए हैं और कुछ पड़ोसी जिलों के साथ मिलकर यह इलाका देश के कुल लीची उत्पादन का लगभग 40 प्रतिशत पैदा करता है। लीची उत्पादक संघ के अधिकारियों का कहना है कि 5,000 से अधिक लीची किसानों का व्यापार इस साल भी मंदा रहने की आशंका है। यदि व्यापारी मुजफ्फरपुर में फल खरीदने के लिए नहीं जाते हैं तो जिले के हजारों मजदूर और कारीगर, जो लीची की पैकेजिंग के लिए लकड़ी के हल्के बक्से बनाते हैं, वे भी बेरोजगार हो जाएंगे।

झारखंड से आनंद दत्ता की रिपोर्ट 

गुमला जिले के कोंडारा प्रखंड के चटकपुर गांव के निवासी 45 वर्षीय गुलपा घासी करीब एक महीने से सर्दी, खांसी और बुखार से पीड़ित थे। चूंकि सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र 28 किलोमीटर दूर था इसलिए वे इलाज के लिए गांव के ही झोलाछाप डॉक्टर पर निर्भर थे। मई की शुरुआत में एक दिन अचानक घासी को सांस लेने में परेशानी महसूस होने लगी। गांव के सहिया (स्वास्थ्यकर्मी) जब तक ऑक्सीमीटर लेकर पहुंचे तब तक घासी की मौत हो चुकी थी। उनकी बेटी कोयली के अनुसार वे एक पारंपरिक वाद्य यंत्र, मांदर बनाकर जीवन निर्वाह करते थे।

जब जिले के लगभग सभी गांवों से सर्दी, खांसी और बुखार की खबरें आने लगीं, तब प्रशासन ने 4 से 17 मई के बीच एक जांच शिविर लगाया। इसमें 406 गांवों में कोविड -19 से संक्रमित मरीज पाए गए।

गुमला के कोंडारा गांव के झोला छाप डॉक्टर गोविंदा मंडल कहते हैं, “हर दिन हमें 30-40 मरीज मिलते हैं। आजकल लगभग हर कोई सर्दी, खांसी और बुखार की शिकायत करता है। मैं हर मरीज को 500-600 रुपये की दवाएं देता हूं। अगर किसी में कोविड-19 के लक्षण दिखते हैं, तो मैं उन्हें विटामिन सी, जिंक सप्लीमेंट लेने की सलाह देता हूं और साथ ही कोविड-19 टेस्ट कराने की भी सलाह देता हूं।” गांव के ही एक अन्य ग्रामीण चिकित्सक कमलेश कुमार कहते हैं, “सरकार ग्रामीण इलाकों में कोविड-19 के इलाज का प्रशिक्षण देने जा रही है। इसके लिए उनका नाम प्रखंड विकास अधिकारी के पास गया है। फिलहाल तो यह कहा जा सकता है कि दवा की दुकान और हम जैसे डॉक्टरों की मदद से ही गांव वालों की जानें बच रही हैं।”

10 लाख आबादी वाले आदिवासी जिले के लिए यह आश्चर्यजनक नहीं है, जहां 127 स्वीकृत पदों के मुकाबले सिर्फ 59 डॉक्टर उपलब्ध हैं। यानी गुमला में हर 17,372 लोगों पर सिर्फ एक डॉक्टर है। कोंडारा ब्लॉक में, स्वास्थ्य केंद्र भवनों का उपयोग नक्सल विरोधी अभियानों के लिए क्षेत्र में तैनात अर्धसैनिक कर्मियों और पुलिस अधिकारियों को समायोजित करने के लिए किया जाता है। कतरी नामक गांव में सरपंच अरुणा एक्का बताती हैं कि पंचायतों को भी इस बार लोगों को आइसोलेशन या इलाज की सुविधा मुहैया कराने के लिए कोई फंड या मेडिकल किट नहीं दी गई है।

हालांकि पंचायतों के माध्यम से यह अवश्य सुनिश्चित किया जा रहा है कि लॉकडाउन के कारण घर लौटने वाले मजदूर, खासकर वे जो अनौपचारिक सेक्टर में काम करते हैं, उन्हें मनरेगा के तहत रोजगार मिलता रहे। प्रत्येक गांव में कम से कम छह परियोजनाएं चल रही हैं, हालांकि कई जगहों पर भुगतान में देरी की समस्या बनी हुई है। झारखंड मनरेगा वाच के संयोजक जेम्स हेरेन्ज के अनुसार गुमला में मजदूरों की मनरेगा मजदूरी के रूप में 94.15 लाख रुपये लंबित हैं।

इस क्षेत्र में अधिकांश छोटे किसान हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम भूमि है और वे खरबूजे जैसी सब्जियां बेचकर जीवन यापन करते हैं। सरकार द्वारा 22 अप्रैल को तालाबंदी लागू करने के बाद से वे अपनी उपज नहीं बेच पा रहे हैं। लोगों को खेती के लिए संगठित करने वाले गैर-लाभकारी संस्था प्रधान के अर्पण उरांव का कहना है कि अब ज्यादातर खेतों में तरबूज की फसल कटाई के लिए तैयार है। लेकिन बहुत कम व्यापारी उपज खरीदने को तैयार हैं। प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए, सरकार ने एक ई-पास प्रणाली शुरू की है जिसके उपयोग से किसान अपनी फसलों को बाजारों तक पहुंचा सकते हैं।

गुमला चैंबर ऑफ कॉमर्स के अध्यक्ष हिमांशु केसरी कहते हैं,“ई-पास प्रणाली बहुत कम मददगार है क्योंकि इस क्षेत्र के अधिकांश किसानों के पास मोबाइल भी नहीं है। जिनके पास मोबाइल है वे ये नहीं जानते कि ई-पास के लिए पंजीकरण कैसे किया जाता है।” आर्थिक विशेषज्ञ और सेंटर फॉर फाइनेंशियल स्टडीज, झारखंड के निदेशक हरिश्वर दयाल का कहना है कि पिछले साल देशव्यापी तालाबंदी के दौरान 8,50,000 मजदूर झारखंड लौट आए थे। बचत खत्म होते ही वे सभी पलायन कर गए। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बनाए रखने के लिए, सरकार को कृषि और गैर-कृषि क्षेत्र से संबंधित अधिक कार्यों को मनरेगा के तहत लाना चाहिए।

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