लगभग दो सौ दिनों से मैं दो मौलिक इंद्रियों, गंध और स्वाद के बिना जी रहा हूं, ये दोनों इंद्रियां आपस में अंतरग रूप से जुड़ी हैं। इस साल अप्रैल के अंत में मेरा, पत्नी और बेटी का कोविड-19 टेस्ट पॉजिटिव आया था।
जहां तक मुझे याद है, मई के पहले सप्ताह में मेरा स्वाद और गंध चली गई। जैसा कि मैं लिख रहा हूं-अभी तक ये दोनों वापस नहीं लौटे। अब मैं इस भयावह आशंका के साथ जीने लगा हूं कि हो सकता है कि ये दोनों कभी वापस लौटे ही नहीं, या फिर हो सकता है कि इनके बिना लंबा वक्त गुजारने के चलते यह बात मेरे अंदर बैठ गई हो। डॉक्टरों ने तो यही कहा है कि मुझे धीरज रखना चाहिए और समय के साथ मेरा स्वाद और गंध लौट आएंगे।
इस बीच मैंने ‘खुद को तलाशिए’ जैसी उन किताबों को दोबारा छान डाला है, जिन्हें मैंने बेटी के जन्म से पहले खरीदा था। मैं उनसे केवल इतना जानना चाहता था कि स्वाद और गंध, जन्म के समय जैविक रूप से हमें मिलते हैं या वे जन्म के बाद विकसित होते हैं। हो सकता है कि यह सवाल बेवकूफी भरा लगे, लेकिन इन इंद्रियों के खो जाने से मेरी कुंठा का स्तर यहां तक पहुंच गया है, जो भावनात्मक तौर पर कमजोर होने से होता है।
वैसे अब मुझे यकीन हो गया है कि हम सभी पांच इंद्रियों - दृष्टि, श्रवण, गंध, स्वाद और स्पर्श के साथ जन्म लेते हैं। दरअसल, नाक तो गर्भावस्था की पहली तिमाही में ही बन जाती है और दसवें सप्ताह तक बच्चे का भ्रूण गंध का एहसास भी करने लगता है। इस तरह, जहां तक मुझे याद है, जीवन में पहली बार मैं बिना गंध के जी रहा हूं और यहीं से फिर वह सवाल पहली की तरह मेरे सामने मंडराने लगता है कि जब हम स्वाद और गंध खो देते हैं तो क्या होता है ?
मैं उन दो इंद्रियों के बिना जी रहा हूं, जो हमारे पारिस्थितिक तंत्र, परिवार और खाने के साथ हमारे रिश्ते को परिभाषित करती हैं। अब भी मैं खाना बनाता हूं, लेकिन उस खाने से स्वाद और गंध का अहसास, कोविड से पहले की उसकी स्मृतियों के साथ ही कर पाता हूं।
डिनर के समय हम खाने से जुड़ी बातों और कहानियों को जानबूझकर बार-बार एक दूसरे को बताते हैं। इस तरह ही मुझे उस खाने का विशेष स्वाद याद आता है, जिसे मैं उस समय खा रहा होता हूं। वरना तो केवल मैं उस खाने को चबा भर रहा होता हूं, मैं उसमें कोई अंतर नहीं कर पाता - चाहे वह चिकन का कोई टुकड़ा हो या भुना हुआ बैंगन।
मेरी भूख कम हो गई है, मैं उस पारिस्थितिक तंत्र को खो रहा हूं, जिसमें मैं खुश होकर बड़ा हुआ। सब्जियों के बाजार में अब मैं केवल खरीदारी करता हूं, क्योंकि अब किसी सब्जी उस स्वाद और खुशबू का पता तो मुझे चलता नहीं, जो पकने के बाद उससे आती है। अपने स्वाद और गंध की जिम्मेदारी मैंने पत्नी और बेटी को दे दी है, जो सब्जियों के स्वाद और गंध के आधार पर मेरी पसंद के खाने के बारे में फैसला लेती हैं।
मैं अब भी खाना बनाता हूं, लेकिन इससे सामाजिक, जैविक और पारिस्थितिक तौर पर पहले की तरह मेरा जुड़ाव नहीं हो पाता। जब भी मैं ओडिशा के अपने घर जाता हूं, तो वहां से ताजी मिर्च और नीबू लेकर लौटता हूं। इनमें वो स्वाद और खुशबू है, जो मुझे मेरे घर और उसके आसपास की पारिस्थितिकी से जोड़ती है।
उनमें परिवार से जुड़ा हुआ एक खास स्वाद है, जो मेरी यादों में है। उनसे जुड़ाव और लगाव के चलते ही मैं उन्हें खा पाता हूं ताकि मुझे खुशी महसूस हो, लेकिन पहले की तरह अब कुछ महसूस नहीं होता।
यह केवल एक भावशून्य स्मृति है। मुझे बताया गया है कि दिमाग का जो हिस्सा गंध को नियंत्रित करता है, वही स्मृति पर नियंत्रण भी रखता है। मुझे नहीं पता कि गंध जाने के बाद क्या स्मृति भी धुंधली पड़ जाएगी। इतिहासकार कहते हैं कि अगर गंध और स्वाद नहीं होते, तो कई उपनिवेश भी नहीं बनते।
इनके जाने से मेरे ऊपर यह फर्क पड़ा है कि मैं घर में किचन जैसी अपनी सबसे आरामदायक जगह से अलग हो गया हूं, जहां मैं कांच की बोतलों में देश के इतिहास और भूगोल को एक साथ रख पाता हूं।
कोविड-19 पाॅजीटिव आने के बाद पिछले छह महीनों में स्वाद और गंध का खोना, इस बीमारी का केवल एक दुष्प्रभाव है। डाक्टरों ने ऐसे दो सौ दुष्प्रभावों की सूची तैयार की है, जो कोविड से उबरने के बाद मरीजों को भुगतने पड़ते हैं।
अगर किसी मरीज को इन दुष्प्रभावों का सामना एक महीने से ज्यादा करना पड़ता है, तो माना जाता है कि वह लंबे समय तक रहने वाले कोविड-19 का शिकार हो गया है।
बेशक, मैं उन्हीं में से एक हूं। मैं दूसरे दुष्प्रभावों का सामना भी कर रहा हूं, जिनमें बालों का कम होना, कम तेजी वाले बेचैनी के अटैक, लगातार दर्द देने वाली दिमागी हलचल, थकान-जो अब भले कम हो गई हो, लेकिन अभी भी कभी-कभी महसूस होती है, पैर के निचले हिस्सों में दर्द, सूखी त्वचा और कभी-कभी दिल की अनियमित धड़कन।
18 नवंबर तक दुनिया में मेरी तरह कोविड-19 से उबरने वाले 23 करोड़ लोग हैं। इस महामारी से लड़ाई अभी जारी है लेकिन अब उन लोगों पर फोकस बढ़ता जा रहा है, जो इस बीमारी से उबर चुके हैं। इससे उबरने वाले लोग बड़ी तादाद में महीनों से दो सौ तरह की अन्य शारीरिक व्याधियों का सामना कर रहे हैं।
यह स्थिति लगभग एक तरह से स्वास्थ्य, आर्थिक और सामाजिक आपातकाल है। हाल के एक रिसर्च पेपर में मिशिगन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया कि कोविड-19 से उबरने वाले दस करोड़ ऐसे लोग हैं, जो महीनों से महामारी के बाद होने वाले दुष्प्रभावों से जूझ रहे हैं।
शोधकर्ताओं ने यह नतीजे 17 देशों में कोविड-19 से उबरने वाले मरीजों में मिलने वाले दुष्प्रभावों के 40 अध्ययनों की समीक्षाओं के बाद निकाले हैं।
उन्होंने अनुमान लगाया कि कोविड-19 से उबरने वाले 40 फीसदी लोगों को इसके दुष्प्रभावों का समाना करना पड़ रहा है। इनमें भी अगर ये मरीज कोविड-19 के इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती रहे होते हैं, तो यह दर बढ़कर 57 फीसदी हो जाती है। इनमें भी ज्यादा शिकार महिलाएं हैं।
इस शोध में पाया गया है कि कोविड-19 से उबरने वाली 49 फीसदी महिलाओं को बीमारी के बाद के महीनों में इससे उपजे दुष्प्रभावों का सामना करना पड़ रहा है, जबकि पुरुषों में यह आंकड़ा 37 फीसदी है।
जैसे- जैसे कोविड-19 के नए रोगियों की तादाद बढ़ती है, इस बीमारी से ठीक होने के बाद इसके दुष्प्रभावों का सामना करने वालों की तादाद भी बढ़ती है। महामारी अभी भी तेजी से बढ़ रही है और यूरोप में यह दोबारा से बढ़ रही है।
इसका मतलब यह कि लंबे समय तक इसके दुष्प्रभावों को झेलने वाले लोगों का तादाद भी अभी बढ़ेगी। इस परिदृश्य में हमारे सामने कोविड-19 के नए मरीजों से ज्यादा लंबे समय तक इसका शिकार रहने वाले मरीजे होंगे और इसके लिए जिम्मेदारी केवल स्वास्थ्य को लेकर दुनिया के रवैये की होगी।