ऑर्फन दवाओं से भारी मुनाफा
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई

ऑर्फन दवाओं से भारी मुनाफा

जहां एक ओर विशाल दवा कंपनियां दुर्लभ रोगों की दवाओं से अरबों कमा रही हैं, वहीं दूसरी ओर भारत में इन बीमारियों से संबंधित नीतियां मरीजों की सुरक्षा के मामले में बहुत पीछे हैं
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कुछ शब्द भ्रामक होते हैं, खासकर उन मामलों में जब उनकी उपयोगिता और उनके कारणों में अंतर हो। जैसे ऑर्फन अथवा दुर्लभ रोगों की दवाएं। यह नाम हमारे जेहन में एक उदास छवि पैदा करता है और इस मामले से अनजान लोग यह मान सकते हैं कि ये ऐसी दवाएं हैं जिन्हें त्याग दिया गया है और जिन्हें सरकार या बाजार से कोई मदद नहीं मिलती। लेकिन यह वास्तविकता के ठीक उलट है। दुर्लभ और उपेक्षित बीमारियों का इलाज करने वाली ये ऑर्फन दवाएं ऐसी नई ब्लॉक बस्टर दवाएं हैं जो अपनी कंपनियों के लिए अरबों का मुनाफा कमा रही हैं। यह इसलिए संभव है क्योंकि दुनिया के अमीर देशों ने उदार प्रोत्साहनों के माध्यम से ऐसे उपचारों के अनुसंधान और निर्माण को सुविधाजनक बनाया है। 1980 के दशक तक इन दुर्लभ बीमारियों (जिन्हें कई देश दुर्लभ रोग कहते थे) के इलाज के लिए मुट्ठी भर दवाएं ही उपलब्ध थीं। आज केवल अमेरिका में लगभग 900 ऐसी दवाओं को मंज़ूरी मिल चुकी है और हाल के वर्षों में इस क्षेत्र में एक आश्चर्यजनक उछाल आया है। गौरतलब है कि पिछले साल अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) द्वारा मंजूर की गई 52 प्रतिशत दवाएं दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए थीं और यह स्थिति 2020 से ही बरकरार है। इसके बावजूद लाखों मरीज इन जरूरी दवाओं से वंचित हैं और इसका मुख्य कारण दवाओं की कीमत है।

ये ऑर्फन रोग वास्तव में क्या हैं? हालांकि प्रत्येक देश की अपनी परिभाषा होती है, लेकिन आमतौर पर यह ऐसी बीमारियां होती हैं जो आबादी के केवल एक छोटे हिस्से को ही प्रभावित करती हैं। अमेरिका में इन्हें ऐसी बीमारियों के रूप में परिभाषित किया जाता है जो 20 हजार से कम लोगों को प्रभावित करती हैं, वहीं यूरोपीय संघ में इन्हें ऐसी जानलेवा या दीर्घकालिक रूप से दुर्बल बीमारियों के रूप में परिभाषित किया गया है जो 10 हजार की आबादी में 5 से कम लोगों को प्रभावित करती हैं। भारत में आंकड़ों की कमी के कारण किसी भी ऑर्फन रोग की संख्यात्मक परिभाषा नहीं है लेकिन नियामक उद्देश्यों के लिए केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन किसी दवा को तब ऑर्फन मानता है, जब वह 5 लाख से कम लोगों को प्रभावित करने वाली बीमारी के इलाज के लिए हो। यह स्पष्ट है कि विश्व भर, खासकर भारत में दुर्लभ बीमारियों से पीड़ित मरीजों की चिकित्सा संबंधी आवश्यकताएं विशाल हैं और इस क्षेत्र के अन्य देशों के विपरीत भारत ने इन मरीजों की मदद की दिशा में कोई कदम नहीं उठाए हैं। 2021 में घोषित नेशनल पॉलिसी फॉर रेयर डिजीजेज (एनपीआरडी) के तहत मरीजों को प्रति मरीज अधिकतम 50 लाख रुपए की सीमित वित्तीय सहायता प्रदान की गई है। हालांकि इस सहायता की पहुंच बहुत सीमित है क्योंकि अब तक 1,118 मरीजों को ही लाभ मिल पाया है जबकि 63 दुर्लभ बीमारियों को अधिसूचित किया गया है। हालांकि अब तक दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए दवाओं के अनुसंधान और विकास को प्रोत्साहित करने की दिशा में बहुत कम काम किया गया है लेकिन हाल ही में सरकार एक अनोखा प्रोत्साहन लेकर आई है और वह भी एक अप्रत्याशित मंत्रालय के माध्यम से।

जून में विश्व सिकल सेल दिवस पर केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने सिकल सेल रोग (लाल रक्त कोशिकाओं से जुडी एक प्रमुख वंशानुगत विकार) के लिए नई दवाओं के विकास को प्रोत्साहित करने हेतु बिरसा मुंडा पुरस्कार की घोषणा की। इस पुरस्कार का नाम ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध हुए स्वतंत्रता संग्राम के महान आदिवासी नेता बिरसा मुंडा के नाम पर रखा गया है। स्वीकृत शोध प्रस्तावों के लिए 10 करोड़ रुपए तक का यह पुरस्कार अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के सहयोग से दिया जा रहा है जो जनजातीय स्वास्थ्य एवं अनुसंधान केंद्र भी स्थापित कर रहा है। अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से पुरस्कार राशि भले ही कम हो लेकिन यह अब तक इन उपेक्षित रही बीमारियों के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। अनुमान है कि सिकल सेल रोग 10 लाख से अधिक लोगों को प्रभावित करता है, विशेषकर आदिवासी इलाकों में। हालांकि अन्य बीमारियों की तरह भारत के पास कोई विश्वसनीय आंकड़े नहीं हैं क्योंकि यहां कोई सार्वभौमिक जांच कार्यक्रम नहीं है। 2021 की ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज नामक रिपोर्ट में इस बोझ का अनुमान 12 लाख लगाया गया है। यह ऑर्फन रोगों के खिलाफ लड़ाई में एक नई शुरुआत हो सकती है जिसमें भारत अभी पिछड़ रहा है। उदाहरण के लिए थाईलैंड ने अपनी सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज योजना के तहत अक्टूबर 2019 से अब तक 7 दुर्लभ रोग केंद्र स्थापित किए हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि थाईलैंड में एक रोगी समर्थित राष्ट्रीय रजिस्ट्री है जिसने रोगों पर डेटा संग्रह, बजट को अनलॉक करने और वित्तपोषण को सुरक्षित करना आसान बनाया है। भारत में सरकार या दवा उद्योग, दोनों में से किसी ने इन ऑर्फन रोगों के इलाज के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। विश्व की मुख्य दवा कंपनियां (जिनमें जेनेरिक दवाएं बनाने वाली विशाल कंपनियां भी शामिल हैं) ने इस क्षेत्र में कदम रखने में बहुत कम रुचि दिखाई है क्योंकि यहां कई पेटेंट संबंधी कठिन चुनौतियां हैं। हैदराबाद की नैटको इस क्षेत्र में एक अपवाद रही। इसने अपनी दवा रिस्डिप्लाम के लिए विदेशी कंपनी रोश को चुना है। यह दवा स्पाइनल मस्कुलर एट्रोफी के इलाज में प्रयोग की जाती है। यह एक दुर्लभ आनुवंशिक बीमारी है जो रीढ़ की हड्डी में स्थित मोटर नर्व (प्रेरक तंत्रिका) कोशिकाओं को प्रभावित करती है।

पेटेंट संरक्षण के कड़े नियमों की बदौलत बड़ी फार्मा कंपनियों ने ऑर्फन दवाओं से भारी मुनाफा कमाया है। सबसे ज्यादा कमाई करने वाली दवाओं में इब्रुटिनिब भी शामिल है, जिसकी वर्तमान में कुल बिक्री 13.1 अरब अमेरिकी डॉलर है। इसका इस्तेमाल कई प्रकार के ट्यूमर, जैसे मेंटल सेल लिंफोमा और क्रोनिक लिम्फोसाइटिक ल्यूकेमिया के इलाज में किया जाता है। इसके बाद एलेक्साकैफ्टर (9 अरब डॉलर) का स्थान है जो सिस्टिक फाइब्रोसिस के इलाज के लिए है। उसके बाद आती है ओलापैरिब (5.7 डॉलर अरब) जिसे स्तन कैंसर के खिलाफ इस्तेमाल में लाई जाने वाली दवाओं में सबसे ऊंचा दर्जा प्राप्त हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन दिनों दवाओं की अत्यधिक कीमतें आम बात हैं हालांकि विश्लेषकों का मानना है, “ऑर्फन दवाओं की कीमतों में वृद्धि की एक स्पष्ट प्रवृत्ति” है। एक विश्वसनीय रिपोर्ट के अनुसार 39 प्रतिशत दवाओं की कीमत सालाना 1 लाख डॉलर से ज्यादा है, जबकि जीन और कोशिका उपचारों की लागत बहुत अधिक यानी कि10 से 30 लाख डॉलर तक है। इसका समाधान क्या है? हालांकि बिरसा मुंडा पुरस्कार एक प्रशंसनीय कदम है लेकिन असली सवाल यह है कि यह दुर्लभ बीमारियों से निपटने में हमारी कितनी मदद करेगा।

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