वैज्ञानिकों ने अपनी एक नई रिसर्च में खुलासा किया है कि कैसे मानव शरीर में मौजूद टी कोशिकाएं (टी-सेल्स), बैक्टीरिया माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस का मुकाबला करती हैं। गौरतलब है कि माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस बेहद संक्रामक जीवाणु है, जो इंसानों में तपेदिक का कारण बनता है। इस बैक्टीरिया की खोज सबसे पहले रॉबर्ट कोच ने 1882 में की थी।
यह रिसर्च ला जोला इंस्टीट्यूट फॉर इम्यूनोलॉजी (एलजेआई) के वैज्ञानिकों द्वारा की गई है, जिसके नतीजे 26 जनवरी 2024 को जर्नल नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित हुए थे। एलजेआई से जुड़े वैज्ञानिक लम्बे समय से टीकों और दवाओं की मदद से तपेदिक का सामना करने के नए तरीकों पर अध्ययन कर रहे हैं।
बता दें कि तपेदिक एक जानलेवा बीमारी है, जिसे क्षय रोग, टीबी या ट्यूबरक्लोसिस जैसे कई नामों से जाना जाता है। यह कोविड-19 की तरह ही बेहद संक्रामक बीमारी है, जो आमतौर पर फेफड़ों को निशाना बनाती है। लेकिन अध्ययन से पता चला है कि यह बीमारी शरीर के दूसरे अंगों को भी नुकसान पहुंचा सकती है।
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विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक दुनिया की करीब एक-चौथाई आबादी यानी करीब 170 करोड़ लोग इसके बैक्टीरिया माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस से संक्रमित हैं। इस बीमारी की गंभीरता का पता इसी बात से लगाया जा सकता है कि हर साल यह बीमारी एक करोड़ से ज्यादा लोगों को अपनी चपेट में लेती है।
इलाज होने के बावजूद लाखों जानें ले रही है टीबी
हालांकि यह कोई ऐसी बीमारी नहीं जिसका इलाज न किया जा सके, लेकिन इसके बावजूद तपेदिक की वजह से सालाना 15 लाख मौतें हो रहीं हैं। यही वजह है कि इसे दुनिया के सबसे बड़े हत्यारों की लिस्ट में शामिल किया गया है। इतना ही नहीं टीबी, एचआईवी पीड़ित लोगों की मृत्यु का भी एक प्रमुख कारण है। यह बीमारी बढ़ते रोगाणुरोधी प्रतिरोध की भी एक प्रमुख वजह है।
यदि वैश्विक आंकड़ों पर गौर करें तो 2022 में वैश्विक स्तर पर टीबी के जितने भी मामले सामने आए थे उनमें से 12 फीसदी मरीजों की आयु 14 वर्ष या उससे कम थी। इतना ही नहीं साल 2022 में दो लाख बच्चे इस जानलेवा बीमारी की भेंट चढ़ गए थे।
भारत जैसे कैद देशों में तो टीबी बेहद गंभीर समस्या बन चुकी है। डब्ल्यूएचओ द्वारा जारी ‘ग्लोबल ट्यूबरक्लोसिस रिपोर्ट 2023’ से जुड़े आंकड़ों को देखें तो वैश्विक स्तर पर तपेदिक के जितने भी मामले सामने आए थे उनमें से 27 फीसदी अकेले भारत में दर्ज किए गए थे।
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मौजूदा समय में तपेदिक से बचाव के लिए बीसीजी का टीका दिया जाता है, जो गंभीर मामलों में सुरक्षा प्रदान करता है। हालांकि यह टीका पल्मोनरी टीबी के मामलों में उतना कारगर नहीं है, जो घातक सिद्ध हो सकता है। इतना ही नहीं दुनिया भर में टीबी के मामले बड़ी तेजी से इन दवाओं के प्रति प्रतिरोधी हो रहे हैं।
यही वजह है कि ला जोला इंस्टीट्यूट फॉर इम्यूनोलॉजी से जुड़े शोधकर्ता टी कोशिकाओं पर अध्ययन कर रहे हैं। गौरतलब है कि यह कोशिकाएं शरीर में संक्रमण के प्रसार को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
वैज्ञानिकों के मुताबिक यह कोशिकाएं पूरे रोगजनक को लक्षित करने की जगह उससे सम्बंधित पेप्टाइड अनुक्रम के रूप में जाने जाने वाले विशिष्ट मार्करों पर ध्यान केंद्रित करती हैं। ऐसे में एक टी कोशिका किसी रोगजनक में पेप्टाइड अनुक्रम के जिस विशेष भाग की पहचान करती है, तो वैज्ञानिक उस हिस्से को "एपिटोप" कहते हैं।
इन टी सेल एपिटोप्स की पहचान करने से वैज्ञानिकों को इस बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है कि कैसे टीके और दवाएं किसी रोगजनक से निपटने के लिए एक इन विशेष एपिटोप्स को लक्षित कर सकते हैं।
एलजेआई में प्रोफेसर और अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता डॉक्टर सेसिलिया लिंडेस्टम अर्लेहम्न का कहना है कि अध्ययन से पता चला है कि टी कोशिकाएं तपेदिक के विभिन्न चरणों के खिलाफ कैसे प्रतिक्रिया करती हैं। उनके मुताबिक यह जानकारी इस बीमारी से पीड़ित लोगों की सहायता के लिए निदान, टीके या दवाओं के संभावित लक्ष्यों की पहचान करने में मददगार साबित हो सकती है।
बेहतर निदान की ओर एक कदम
अपने इस नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने उन रोगियों के नमूनों की जांच की है जो टीबी का इलाज करवा रहे थे। यह नमूने पेरू, श्रीलंका और मोल्दोवा में मरीजों से लिए गए गए थे। इन अलग-अलग महाद्वीपों के रोगियों में टी कोशिकाओं का अध्ययन करके, शोधकर्ताओं का लक्ष्य आनुवंशिक और पर्यावरणीय कारकों की एक विस्तृत श्रृंखला की जानकारी हासिल करना था, जो प्रतिरक्षा प्रणाली से जुड़ी गतिविधियों को प्रभावित कर सकते हैं।
अपने विश्लेषण में शोधकर्ताओं ने ऐसे 137 टी सेल्स एपिटोप्स की पहचान की है, जो दूसरों से अलग थे। उन्होंने पाया कि इनमें से 16 फीसदी एपिटोप्स को दो या दो से अधिक रोगियों में मौजूद टी कोशिकाओं द्वारा लक्षित किया गया था। इसका मतलब है कि प्रतिरक्षा प्रणाली ने इन एपिटोप्स पर ध्यान देने के लिए कड़ी मेहनत कर रही थी।
शोधकर्ताओं का लक्ष्य इनमें से ऐसे एपिटोप की पहचान करना है जो भविष्य में टीकों और दवाओं के लिए आशाजनक लक्ष्य हो सकते हैं। देखा जाए तो यह नया अध्ययन तपेदिक के मामलों के घातक होने से पहले पकड़ने की दिशा में उठाया एक कदम है।
चूंकि ‘माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस’ हवा के जरिए फैल सकता है, ऐसे में इससे पहले किसी व्यक्ति को इसका अहसास हो वो इसके संक्रमण का शिकार बन सकता है। इतना ही नहीं कई बार संक्रमित होने के बावजूद कई महीनों या वर्षों बाद भी इसके कोई लक्षण सामने नहीं आते।
ऐसे में जब इस संक्रमित व्यक्ति की प्रतीक्षा प्रणाली कमजोर पड़ती है, तो यह निष्क्रिय टीबी सक्रिय हो जाती है। अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने टीबी के मरीजों के नमूनों की तुलना स्वस्थ लोगों के नमूनों से भी की है।
इससे उन्हें दोनों समूहों के बीच टी सेल की प्रतिक्रिया के बीच महत्वपूर्ण अंतर का भी पता चला है। शोधकर्ता अर्लेहम का कहना है, यह पहली बार है जब वे टीबी मरीजों और उन लोगों के बीच अंतर कर सकते हैं, जो टीबी के संपर्क में आ चुके हैं या अब तक उसके संपर्क में नहीं आए हैं।
अर्लेहम्न का सुझाव है कि इसकी मदद से ऐसे निदान विकसित करना संभव हो सकता है जो इन अद्वितीय टी सेल प्रतिक्रिया का पता लगाने में मददगार साबित हो सकते हैं। बता दें कि यह प्रतिक्रिया किसी व्यक्ति में निष्क्रिय से सक्रिय टीबी होने का संकेत देती हैं।