कितना सही है सौंदर्य उत्पादों में पारे का उपयोग, रोकथाम के लिए शुरू की गई एक नई पहल

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एजेंसी ने 2018 में 22 देशों के 300 से ज्यादा उत्पादों की जांच की थी। इस जांच में कई उत्पादों में सीमा से 10 गुणा तक ज्यादा पारे के इस्तेमाल की बात सामने आई थी
फोटो: आईस्टॉक
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क्या आप जानते हैं कि त्वचा को चमकाने वाले कुछ उत्पादों में पारे (मरकरी) का भी इस्तेमाल किया जाता है जोकि पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा है। आज पुरुष हो या महिला, बच्चा हो या जवान, सुन्दर दिखना कौन नहीं चाहता। लेकिन सुंदरता के वास्तविक मायने क्या हैं इस पर अभी भी एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है। सुन्दर होने की यह अंधी दौड़ स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरे भी पैदा कर रही है।

ऐसे में इनके बढ़ते उपयोग को सीमित करने के लिए गेबॉन, जमैका और श्रीलंका ने 1.4 करोड़ डॉलर लागत की एक नई परियोजना की शुरआत की है। इस पहल के जरिए सभी प्रकार की त्वचा की सुंदरता को बढ़ावा देने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण को समर्थन दिया जाएगा, जिससे इन हानिकारक केमिकल्स के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीके से बन्द किया जा सके।

संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों ने भी त्वचा चमकाने वाले इन उत्पादों में पारे के प्रयोग को सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा बताया है। विशेषज्ञों की मानें तो त्वचा चमकाने वाले इन उत्पादों में मौजूद पारे से शरीर में मेलेनिन का उत्पादन रुक जाता है। गौरतलब है कि मेलेनिन शरीर में बनने वाला एक प्राकृतिक पिग्मेंट है, जिसकी वजह से त्वचा, बालों और आंखों का रंग निर्धारित होता है।

देखा जाए तो चाहे गोरी हो या सांवली मेलेनिन हर तरह की त्वचा में पाया जाता है। यह न केवल शरीर की त्वचा के रंग को निर्धारित करता है साथ ही सूर्य से आने वाली हानिकारक किरणों से भी हमारे शरीर की रक्षा करता है।

खतरों से अनभिज्ञ उपभोक्ता

दुनिया भर में लोग ऐसे पारा युक्त उत्पादों का लम्बे समय से ना केवल रंगरूप को निखारने के लिए लिए, बल्कि झुर्रियों और धब्बों के साथ अपनी बढ़ती उम्र को छिपाने के लिए भी इसका इस्तेमाल करते रहे हैं। हालांकि बड़ी संख्या में लोग यह नहीं जानते कि इन प्रसाधनों में पारे का प्रयोग भी किया जाता है जो स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा सकता है।

इसकी वजह से त्वचा पर चकत्ते और निशान पड़ सकते हैं। साथ ही त्वचा के रंग खराब होने के साथ-साथ इसकी वजह से स्नायु, पाचन तंत्र व इम्यून सिस्टम को भी नुकसान हो सकता है। इतना ही नहीं यह बेचैनी और मानसिक अवसाद का भी कारण बन सकते हैं। देखा जाए तो 2013 में हुई मिनामाता सन्धि में त्वचा चमकाने वाले उत्पादों में पारे के उपयोग के लिए मानक तय कर दिए थे, जिनके अनुसार प्रति किलोग्राम उत्पाद में एक मिलिग्राम पारे की सीमा निर्धारित की गई थी।

हालांकि इसके बावजूद अभी भी कई कॉस्मेटिक उत्पादों में गोरापन बढ़ाने के लिए पारे का तय मात्रा से ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है। गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एजेंसी ने 2018 में 22 देशों के 300 से ज्यादा उत्पादों की जांच की थी। इस जांच में कई उत्पादों में सीमा से 10 गुणा तक ज्यादा पारे के इस्तेमाल की बात सामने आई थी। कुछ मामलों में तो यह 100 गुणा से ज्यादा थी।

देखा जाए तो इन उत्पादों से केवल इनका इस्तेमाल करने वाले को ही सिर्फ खतरा नहीं हैं। उदाहरण के लिए माओं में इनके प्रयोग से स्तनपान के जरिए बच्चे भी इनकी चपेट में आ सकते हैं। इसी तरह इन प्रसाधनों को साफ करने के बाद भी इनके अंश जल में प्रवाहित होने से इनसे खाद्य श्रृंखलाओं के दूषित होने का जोखिम बढ़ जाता है। पारे के यह अंश लम्बी दूरी तय कर सकते हैं और बिना नष्ट हुए भूमि व जल में जमा मिल सकते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक बांग्लादेश, चीन, डोमिनिकन गणराज्य, हांगकांग, जमैका, लेबनान, मलेशिया, मैक्सिको, पाकिस्तान, फिलीपींस, कोरिया, थाईलैंड और अमेरिका सहित कई देशों में इन पारा युक्त स्किन लाइटनिंग उत्पादों का निर्माण किया जाता है।

आज भी ऑनलाइन तरीके से इन उत्पादों का व्यापार बिना किसी रोक टोक के धड़ल्ले से जारी है। एक अनुमान के अनुसार 2026 तक इन उत्पादों की मांग बढ़कर 11.8 अरब डॉलर तक पहुंच जाने की सम्भावना है।

इस बारे में यूनेप से जुड़ी शीला अग्रवाल-खान का कहना है कि त्वचा को गोरा करने वाले उत्पादों में पारा का उपयोग सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर समस्या है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। उनके अनुसार जहां सरकारों ने मिनामाता कन्वेंशन के माध्यम से पारे के उपयोग को सीमित करने पर सहमति जताई है वहीं कंपनियां उपभोक्ताओं के लिए जहरीले उत्पाद बना और बेच रही हैं।

भारत में 2014 में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) द्वारा की गई रिसर्च में भी फेयरनेस क्रीम में मरकरी और लिपस्टिक में क्रोमियम पाया गया था। हालांकि नियमों के अनुसार भारत में सौंदर्य प्रसाधनों में पारे के उपयोग की अनुमति नहीं है।

इस जांच में सीएसई ने जिन फेयरनेस क्रीमों का परीक्षण किया था उनमें से 44 फीसदी में पारा मिला था। सीएसई द्वारा जांचे गए 14 उत्पादों में पारे की मात्रा 0.10 भाग प्रति मिलियन (पीपीएम) से लेकर 1.97 पीपीएम तक पाई गई थी। ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट्स एंड रूल्स ऑफ इंडिया के तहत देश में पारा कॉस्मेटिक्स में इस्तेमाल के लिए पूरी तरह प्रतिबंधित है। इन उत्पादों में उनकी उपस्थिति इंगित करती है कि यह कंपनियां कानून का पालन नहीं कर रही हैं।

चेहरे में नहीं, सोच में बदलाव जरुरी

इसकी सबसे बड़ी वजह एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में बढ़ता मध्य वर्ग और अफ्रीका एवं कैरीबियाई देशों की आबादी में आ रहा बदलाव है। यही वजह है कि त्वचा चमकाने वाले इन उत्पादों में हानिकारक रसायनों का इस्तेमाल अब एक वैश्विक मुद्दा बन चुका है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी पारे को सार्वजनिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से एक चिन्ताजनक केमिकल बताया है और उसके प्रभावों से बचाव के लिए तत्काल कार्रवाई की गुहार लगाई है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि पारा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, सदियों से इस बात की जानकारी है, लेकिन ज्यादा लोगों को इसके खतरों के बारे में जागरूक करने की जरूरत है।

ऐसे में इस परियोजना के तहत तीनों देश प्रसाधन के क्षेत्र में अपनी नीतियों को बेहतर बनाएंगे और उनमे एकरूपता लाने का प्रयास करेंगे, जिससे पारे के उपयोग को चरणबद्ध तरीके से बन्द किया जा सके। इसमें त्वचा के रंग-रूप से जुड़े सामाजिक मानदंडों में बदलाव का प्रयास भी एक अहम लक्ष्य है, जिसे इससे जुड़े संगठनों, स्वास्थ्यकर्मियों की मदद से आगे बढ़ाया जाएगा।

इस बारे में प्रोजेक्ट की सह-फाइनेंसर और 'द पैंथियन ऑफ वीमेन हू इंस्पायर' संस्था की संस्थापक सेमा जॉनसन का कहना है कि ने संगठन चाहता था कि लोग अपनी प्राकृतिक त्वचा की प्रशंसा और उस पर गर्व करें। उनके अनुसार हमें एक नए आदर्श की आवश्यकता है, जो त्वचा की सुंदरता से नहीं बल्कि मानवता के दृष्टिकोण से सबको बराबर मानता हो।

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