बड़ी पड़ताल: 10 हजार बच्चों की मौत को सामान्य घटना मानते हैं अस्पताल प्रशासन

देश के 10 राज्यों के 19 सरकारी अस्पतालों में एक साल में लगभग 10 हजार से अधिक नवजात की मौत हो गई। नवजातों की इतनी बड़ी संख्या में मौतों को अस्पताल प्रशासन नॉर्मल बता रहे हैं। एक खास रिपोर्ट-
बड़ी पड़ताल: 10 हजार बच्चों की मौत को सामान्य घटना मानते हैं अस्पताल प्रशासन
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गोरखपुर, मुजफ्फरपुर और बाद में कोटा में सैकड़ों बच्चों की मौत सुर्खियां बनीं लेकिन प्रशासन की नजर में ये मौतें नई बात नहीं थीं। डाउन टू अर्थ ने इन मौतों के बाद देशभर के 10 राज्यों के 19 अस्पतालों में जन्म से 28 दिन तक के नवजात बच्चों की मौतों की पड़ताल की। हमारी पड़ताल में पता चला कि 2019 में लगभग 10,000 नवजातों ने दम तोड़ दिया। देश के कई अस्पतालों की हालत दयनीय थी। नवजातों की मौतों के मामले में एक ही बात प्रमुखता से सामने आई कि इन सभी अस्पतालों के प्रशासन ने बच्चों की मौतों को सामान्य बताया। यानी पहले के तीन और बाद के 19 अस्पतालों में हुई बच्चों की मौतें अस्पतालों के लिए “नॉर्मल” ही हैं। इसके अलावा इन अस्पतालों में एक और समान बात निकलकर आई कि इन अस्पतालों के प्रशासन का कहना था कि बाहर से लाए गए बच्चे जब हमारे अस्पताल में भर्ती होते हैं तब अधिकांश मरणासन्न स्थिति में होते हैं, ऐसे में हम कैसे बचा सकते हैं। इसका आशय यही निकलता है कि देशभर के अस्पतालों में बच्चों की मौत हर हाल में नॉर्मल ही कही जाएगी। अस्पताल प्रशासन ने इसे नियति ही मान ली है।

इन अस्पतालों में 2019 यानी एक साल के दौरान यहां 70,253 नवजात भर्ती हुए, इनमें से 9,886 नवजात की मौत हो गई (देखें: मानचित्र, जान लेते अस्पताल)। यानी कि लगभग 14 फीसदी बच्चों ने अस्पताल में ही दम तोड़ दिया। इन 19 अस्पतालों में हर घंटे में औसतन एक बच्चे की मौत हुई। इन राज्यों में गुजरात भी शामिल है और झारखंड-िबहार भी। राज्यवार परिस्थितयां बेशक बदली हुई हैं, लेकिन एक बात समान है कि अस्पताल की खामियों की वजह से नवजातों की जान जा रही है।

इन 19 अस्पतालों में राजधानी दिल्ली से सटे शहरों के अत्याधुनिक कहे जाने वाले अस्पताल भी शामिल हैं तो कुछ दूरदराज के अस्पताल भी, लेकिन इनकी समानता यह है कि अत्याधुनिक अस्पतालों में उपकरण हैं तो स्टाफ नहीं है और खस्ताहाल अस्पतालों में दोनों ही नहीं हैं।

अगर देश भर के सरकारी अस्पतालों की बात की जाए तो अब तक 2017 का आंकड़ा उपलब्ध है। इसके मुताबिक इन सरकारी अस्पतालों में 2017 में करीब 5,29,976 नवजात शिशुओं की मौत हुई है। एक महीने से कम 28 दिनों की उम्र वाले शिशुओं को नवजात कहा जाता है। 2019, फरवरी में राज्यसभा के एक जवाब में सरकार की ओर से नवजात शिशुओं की मृत्युदर के आंकड़े दिए गए थे। इन आंकड़ों के मुताबिक देश में नवजात (नियो-नटल) शिशु मृत्यु दर प्रति हजार में 24 है।

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के मुताबिक 2017 में 2.2 करोड़ जीवित बच्चों (लाइव बर्थ) के जन्म पंजीकृत किए गए। इनमें अस्पताल और घर पर होने वाले प्रसव दोनों शामिल हैं। हालांकि, जटिलता यहीं से शुरू होती है। डाउन टू अर्थ ने एक निश्चित समय में होने वाले नवजात शिशु मृत्यु दर के आंकड़े को समझने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के एक्सपर्ट से संपर्क साधा और अपने विश्लेषण में पाया कि सरकार के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है जिसमें स्पष्ट और आधिकारिक तौर पर नवजात की मृत्यु के आंकड़ों को अलग-अलग करके यह बताया जा सके कि अस्पताल में और अस्पताल से बाहर कितने नवजात शिशुओं की मौतें हुई हैं।

गुजरात: जमीनी हकीकत जानने के लिए जिन 10 राज्यों का चयन किया गया, उनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृह राज्य गुजरात प्रमुख है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद अहमदाबाद सिविल अस्पताल के नवीनीकरण का उद्घाटन फरवरी, 2019 में किया था। अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक (एमएस) गुणवंत राठौर दावा करते हैं कि यहां सुविधाओं और स्टाफ की कमी नहीं है। हमारे यहां 1,200 बेड और बच्चों को गर्मी पहुंचाने वाले 68 वार्मर हैं, जो जरूरत से अधिक हैं। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि अस्पताल में वर्ष 2019 के दौरान 1002 बच्चों की मौत हो गई। वर्ष 2018 में अहमदाबाद सिविल अस्पताल में 4512 शिशु गहन चिकित्सा कक्ष (एनआईसीयू)में दाखिल किए गए थे, जिसमें से 1,646 शिशु अर्थात 36.48 प्रतिशत जीवित नही रहे। वर्ष 2019 में अस्पताल ने गंभीरता दिखाई तो 4,732 नवजातों को एनआईसीयू में दाखिल हुए थे जिसमें से 21.17 प्रतिशत अर्थात 1,002 बच्चों की मृत्यु हुई। इन आंकड़ों में जनरल पेडियाट्रिक वार्ड में जन्मे बच्चों की मृत्यु के आंकड़े शामिल नहीं है। गुणवंत राठौर कहते हैं, “ हमारे अस्पताल में पिछले तीन वर्ष से लगातार शिशु मृत्यु दर में कमी आई है।”

उत्तर प्रदेश: इसके बाद देश की बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ स्थित किंग जार्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (केजीएमयू) की पड़ताल की। सबसे पुराने मेडिकल संस्थानों में से एक केजीएमयू में राज्य के तराई क्षेत्र, पूर्वांचल, नेपाल व बिहार से बड़ी संख्या में बच्चों को इलाज के लिए लाया जाता है। यहां पर 315 बच्चों को भर्ती करने की व्यवस्था है। सर्दी के इस मौसम में यहां पर रोजाना औसतन 12 से 15 बच्चे भर्ती हो रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2019 में यहां 4,015 बच्चे भर्ती हुए, इनमें से 650 बच्चों (16 प्रतिशत) बच्चों की मौत हो गई। कहने को, यहां लगभग सभी आधुनिक सुविधाएं हैं, लेकिन बच्चों की मौत की वजह अस्पताल में 50 फीसदी स्टाफ की कमी बताया जाता है। हालांकि बाल रोग विभाग की विभागाध्यक्ष शैली अवस्थी बताती हैं कि दूरदराज के क्षेत्रों से जब बच्चों को लाया जाता है, तब तक समस्या काफी गंभीर हो चुकी होती है। वहीं, केजीएमयू के रेजीडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन के सदस्य एवं बाल रोग विशेषज्ञ मोहम्मद शीराज कहते हैं कि यदि प्राथमिक चिकित्सा केंद्र, मुख्य चिकित्सा केंद्र आदि को ठीक किया जाए और बच्चों का इलाज समय पर हो तो बच्चों की मृत्यु में कमी संभव है। यदि किसी बच्चे को झटका (दिमाग में ऑक्सीजन नहीं जा रहा है) आ रहा है तो उसे तुरंत नजदीक के अस्पताल में भर्ती कराया जाए तो उसे बचाया जा सकता है।



उत्तर प्रदेश के ही बरेली जिला अस्पताल की बात की जाए तो यहां अप्रैल से दिसंबर 2019 के दौरान एनआईसीयू में भर्ती लगभग 1,000 नवजात में से 180 की मौत हो गई। वजह, बच्चा वार्ड में वार्मर नहीं हैं। सिर्फ चार नेबुलाइजर, दो इन्फ्यूजन पंप और एक पल्स ऑक्सीमीटर विद मॉनिटर है। वहीं, जिले के महिला अस्पताल के एसएनसीयू वार्ड की शुरुआत एक साल पहले की गई। उद्घाटन के वक्त यहां चार फोटोथेरेपी मशीनें भेजी गई, लेकिन समय बाद ही मेडिकल कारपोरेशन ने वापस ले लिया। बताया गया कि इनमें कुछ कमी थी। यहां ऑक्सीजन पाइप लाइन भी मौजूद नहीं है।

मध्य प्रदेश: देश के हृदय स्थल में बसे मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल है गांधी मेडिकल कॉलेज का हमीदिया अस्पताल। यहां शिशु रोग विभाग में प्रदेश के कोने-कोने से बच्चे आते हैं। अस्पताल के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2019 में अस्पताल में 4,000 से अधिक बच्चों की भर्ती हुई, जिसमें से लगभग 22 फीसदी बच्चों की जान नहीं बचाई जा सकी। हालांकि अस्पताल के डॉक्टर इस स्थिति को सामान्य बताते हैं। उनका भी यही तर्क है कि बच्चे दूसरे अस्पतालों से रेफर होकर आते हैं और पहले ही उनकी हालत काफी नाजुक होती है। अस्पताल में आधे से अधिक बच्चे मेडिकल कॉलेज के महिला अस्पताल सुल्तानिया अस्पताल से आते हैं और आधे दूसरे अस्पतालों से। हमीदिया अस्पताल की शिशु रोग विभाग की अध्यक्ष ज्योत्सना श्रीवास्तव बताती हैं कि न्यूबॉर्न चाइल्ड केयर यूनिट में भर्ती होने वाले बच्चों की संख्या काफी अधिक होती है। ये बच्चे ग्रामीण अंचलों से रेफर किए गए बच्चे आखिरी वक्त पर हमारे पास लाए आते हैं।

उत्तराखंड: उत्तराखंड के हल्द्वानी जिले की कहानी भी कुछ ऐसी है। यहां के डॉ. सुशीला तिवारी राजकीय चिकित्सालय के चिकित्सा अधीक्षक अरूण जोशी ने बताया कि 1 जनवरी 2019 से 31 दिसंबर 2019 के बीच 228 शिशु (ज्यादातर नवजात) की मौत हुई है। जबकि 1,401 नवजात भर्ती हुए। यहां नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत समेत उत्तर प्रदेश के नजदीकी क्षेत्र जैसे रामपुर, बरेली, पीलीभीत से भी बड़ी संख्या में मरीज आते हैं।

राजस्थान: जनवरी के पहले ही सप्ताह में देश भर के अखबारों की सुर्खियां बटोरने वाले राजस्थान के कुछ अन्य अस्पतालों की पड़ताल की गई। भीलवाड़ा के महात्मा गांधी अस्पताल में 2019 में 435 नवजात बच्चों की मौत हुई है। पिछले पांच साल में 2,175 बच्चों की मौत के बाद आलम यह है कि इस अस्पताल में 35 लोगों का स्टाफ होना चाहिए, लेकिन सिर्फ 12 कर्मी ही कार्यरत हैं। बूंदी के जनाना अस्पताल में चार साल पहले लगे 20 हीट वार्मर में से 13 पर तो मॉनिटर ही नहीं लगे हैं। मॉनिटर के कारण बच्चे की पल्स, ऑक्सीजन, एक्सप्रेशन और तापमान का पता चलता है। यहां एक साल में 82 नवजातों की मौत हुई। बाड़मेर मेडिकल कॉलेज के अंतर्गत आने वाले राजकीय जिला अस्पताल में 2019 में 8,735 भर्ती बच्चों में 250 बच्चों की मौत हो गई। उदयपुर के महात्मा गांधी अस्पताल में 2019 में 18,735 बच्चे भर्ती हुए, जिनमें से 1,928 नवजातों की मौत हो गई।

बिहार: बिहार के भागलपुर में कहने को तो मेडिकल कॉलेज और सदर अस्पताल है, लेकिन दोनों अस्पतालों की स्थिति दयनीय है। भर्ती के बाद ईश्वर ही आपको बचा पाएंगे, कई डॉक्टर निजी प्रैक्टिस में रहने के कारण अपना पूरा ध्यान अस्पतालों में न देकर अपने क्लिनिक में देते हैं। पिछले पांच सालों में 4,507 बच्चों में 1,145 बच्चों की मौत हो गई। इनमें से 1,132 बच्चों का जन्म इसी जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज अस्पताल में हुआ। जबकि 3375 बच्चे जिले में पीएचसी में रेफर होकर आये थे। इसमें मेडिकल कॉलेज में जन्मे 202 व बाहरी अस्पतालों से आए 943 बच्चों की मौत हो गई। गया के मगध मेडिकल कॉलेज में 1602 नवजात भर्ती हुए, लेकिन इनमें से लगभग 32 प्रतिशत बच्चों की जान नहीं बचाई जा सकी। औरंगाबाद के सदर अस्पताल में भी 1260 भर्ती बच्चों में से 122 की जान चली गई।

झारखंड: राज्य की राजधानी रांची स्थित राजेंद्र इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (रिम्स) में एक साल में 1,150 बच्चों की मौत हुई। यहां साल भर में भर्ती बच्चों की संख्या 3,400 थी। मतलब, 34 फीसदी बच्चे घर नहीं लौट पाए। अस्पताल प्रबंधन इसे सामन्य मौत बता रहा है। यहां गंभीर स्थिति में नवजात शिशुओं की जान बचाने के लिए 2014-15 में खरीदी गई लाखों की वेंटिलेटर मशीनें बेकार पड़ी हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि मात्र 20 रुपए के प्लग के लिए मशीन में लगा वार्मर बंद है। रिम्स प्रबंधन इसका सर्विस चार्ज भी दे रहा है। इसके अलावा भी कई महंगी मशीनें बेकार पड़ी हैं। रिम्स के डायरेक्टर दिनेश कुमार सिंह और अधीक्षक विवेक सहाय ने शिशु रोग विभाग का निरीक्षण किया और पाया कि इलाज करने वाले कई चिकित्सीय उपकरण बंद हैं।

पश्चिम बंगाल: सेठ सुखलाल करनानी मेमोरियल (एसएसकेएम) अस्पताल कोलकाता का सबसे प्रमुख अस्पताल है। यहां 2019 में एक साल से कम उम्र के 366 बच्चों की मौत हुई। मौत की वजह भी अन्य राज्यों के अस्पतालों की ही तरह बताई जाती है। अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक रघुनाथ मिश्रा बताते हैं कि दूसरे अस्पतालों से जो बच्चे लाए जाते हैं, उनकी हालात काफी नाजुक होती है।

नवजात शिशु मृत्यु के मामले में इंडियन एकेडमी ऑफ पेडियाट्रिसियन्स के सचिव रमेश कुमार ने डाउन टू अर्थ को बताया कि नवजात शिशुओं की अधिकांश मृत्यु अस्पतालों में ही होती है। महज 0.1 फीसदी नवजात शिशुओं की मौत ही अस्पताल से बाहर होती है। वह कहते हैं, अधिकांश परिस्थितियों में अभिभावक नवजात को लेकर अस्पताल तक पहुंचने में सक्षम होते हैं। स्थितियां इससे भिन्न हो सकती हैं। इसलिए नवजात शिशु के अस्पतालों में मृत्यु का आंकड़ा ही स्पष्ट गणना के ज्यादा करीब पहुंचाता है। नाम न बताने की शर्त पर एक सरकारी अस्पताल के चिकित्सक बताते हैं कि जिस अस्पताल में बच्चे का जन्म होता है, अगर 28 दिन के भीतर उसे कोई बीमारी होती है तो मां-बाप उसी अस्पताल में उसे लेकर आते हैं। इस वजह से अस्पतालों में मृत्यु के आंकड़ों में वृद्धि हुई है।

गैर सरकारी संस्था सेव द चिल्ड्रेन ने बताया कि अस्पताल में बच्चों की मौत का कोई निश्चित कारण नहीं है। इसकी वजह अस्पतालों का खराब स्तर, मरीज का प्रकार, रोग की गंभीरता हो सकती है। इस बारे में आंकड़े भी स्पष्ट नहीं हैं। संस्था के डिप्टी डायरेक्टर (हेल्थ एंड न्यूट्रिशन) राजेश खन्ना ने बताया कि भारतीय अस्पतालों में नवजात शिशुओं की मृत्युदर की प्रमुख वजह घर पर ही बच्चों के रोग की पहचान में देरी, उपचार के लिए स्वास्थ्य केंद्र से रेफर या परिवहन में होने वाली परेशानी है। इसके अलावा विशिष्ट कारणों में समयपूर्व जन्म, निमोनिया कारक जिम्मेदार हैं।

दरअसल, मौत की वजह कुछ भी हो, लेकिन उन्हें सामान्य बताकर अस्पताल प्रशासन अपना पल्ला नहीं झाड़ सकता। वह भी ऐसी स्थिित में जब अस्पतालों में प्रसव दर बढ़ रही है तो अस्पतालों की जिम्मेवारी बढ़ जाती है कि एक नवजीवन को पनपने से पहले मौत की आगोश में समाने से बचा लें।

10 हजार मौतें नॉर्मल बात है

देश भर के अस्पताल प्रशासन मानते हैं कि उनके अस्पतालों में हो रही नवजात बच्चों की मौतें “नॉर्मल” है, लेकिन यह कहीं परिभाषित नहीं है कि आखिर “नॉर्मल” क्या होता है? कितनी मौतों को असामान्य माना जाता है?

“हमारे अस्पताल के एनआईसीयू में ऑक्यूपेंसी रेट अधिक है और इसकी वजह है कि ग्रामीण अंचलों से रेफर किए गए बच्चे आखिरी वक्त पर हमारे पास आते हैं। तब तक बच्चों को बचाना संभव नहीं हो पाता”
— ज्योत्सना श्रीवास्तव, हमीदिया अस्पताल, भोपाल — मृत्यु दर : 22%

“हमारे अस्पताल में पिछले तीन साल से लगातार शिशु मृत्यु दर कम हो रही है। 2019 में एनआईसीयू में भर्ती 1,002 शिशुओं की मृत्यु सामान्य बात है, क्योंकि जब हमारे अस्पताल में बच्चों को लाया जाता है, तब तक उनकी हालत नाजुक हो चुकी होती है। उन्हें बचाने का पूरा प्रयास किया जाता है”
— गुणवंत राठौर, चिकित्सा अधीक्षक, सिविल अस्पताल, अहमदाबाद — मृत्यु दर : 21.17%

“हमारे अस्पताल में उपकरण की कमी नहीं है। बच्चों को हरसंभव इलाज उपलब्ध कराया जाता है। हमारे यहां शिशु मृत्यु दर 12-14 प्रतिशत के आसपास है,  जो राष्ट्रीय व राज्य की मृत्युदर के मुकाबले काफी कम है।”
— अरुण गौड़, अधीक्षक, महात्मा गांधी अस्पताल, भीलवाड़ा, राजस्थान — मृत्यु दर : 10%

इनपुट: गुजरात से कलीम सिद्दीकी, मध्यप्रदेश से मनीष चंद्र मिश्र, उत्तर प्रदेश से बलिराम सिंह व ज्योति पांडे, राजस्थान से माधव शर्मा, उत्तराखंड से वर्षा सिंह, झारखंड से कुमारेंद्र, बिहार से उमेश कुमार राय पंजाब से योगेश्वर, पश्चिम बंगाल से सुदर्शना चक्रवर्ती, और हरियाणा से शाहनवाज आलम

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