बिहार के 6 जिलों में स्तन के दूध में मिली सीसे की उच्च मात्रा

पटना के महावीर कैंसर संस्थान के शोधकर्ताओं का खुलासा
फाइल फोटो: सीएसई
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बिहार के पटना स्थित महावीर कैंसर संस्थान एवं अनुसंधान केंद्र के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक व्यापक अध्ययन में बिहार के 6 जिलों में महिलाओं के स्तन के दूध में सीसे की उच्च मात्रा पाई गई है। ध्यान रहे कि यह शोध उसी टीम द्वारा किए गए एक अन्य शोधपत्र के बाद आया है, जिसमें स्तन के दूध में आर्सेनिक भी पाया गया था।

अध्ययन में शामिल स्वास्थ्य विशेषज्ञों और शोधकर्ताओं ने इस बात पर जोर दिया कि स्तन के दूध के माध्यम से सीसे की विषाक्तता बच्चों के मानसिक विकास के लिए एक बड़ा खतरा है और इससे अन्य गंभीर स्वास्थ्य जटिलताएं हो सकती हैं।

संस्थान के शोध विभाग के 12 वैज्ञानिकों की एक टीम ने इस संबंध में एक शोध पत्र (हाई लेड कंटेमिनेशन इन मदर्स ब्रेस्टमिल्क इन बिहार : हेल्थ रिस्क एसेसमेंट ऑफ द फीडिंग चिर्ल्डन) लिखा और यह शोध पत्र केमोस्फीयर पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

टीम ने 17 से 40 वर्ष की आयु की 327 महिलाओं से स्तन के दूध, माताओं के मूत्र, बच्चों के मूत्र और रक्त के नमूनों सहित जैविक नमूने शोध करने के लिए प्राप्त किए।

शोध केंद्र के वरिष्ठ शोध वैज्ञानिक और शोधकर्ताओं में से एक अरुण कुमार ने डाउन टू अर्थ को बताया कि अध्ययन में 92 प्रतिशत स्तन के दूध के नमूनों में सीसे का उच्च स्तर पाया गया, जिसका उच्चतम मान 1,309 माइक्रोग्राम प्रति लीटर दर्ज किया गया है।

रक्त में सीसे का कोई भी स्तर सुरक्षित नहीं माना जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, 3.5 माइक्रोग्राम प्रति लीटर जितनी कम सांद्रता भी बच्चों की बुद्धि, व्यवहार और सीखने की क्षमताओं को प्रभावित कर सकती है।

अध्ययन के लिए गए नमूनों में से 87 प्रतिशत के रक्त में सीसा भी पाया गया, जिसका अधिकतम मान 677.2 माइक्रोग्राम प्रति लीटर था। कुमार ने बताया कि मिट्टी में सीसा संदूषण भोजन के माध्यम से मानव शरीर में प्रवेश कर सकता है, जिसमें सब्जियां और मोटे अनाज इसके प्राथमिक वाहक होते हैं जो अंततः स्तन के दूध में इसकी उपस्थिति का कारण बनते हैं।

कुमार ने कहा कि अध्ययन से संकेत मिलता है कि गेहूं, चावल और आलू जैसे खाद्य स्रोतों के माध्यम से सीसे के संपर्क ने माताओं के स्तन के दूध को दूषित कर दिया है, जो फिर उनके बच्चों में स्थानांतरित हो जाता है। उन्होंने कहा कि इससे बच्चों में गंभीर तंत्रिका संबंधी क्षति, कम आईक्यू, खराब याददाश्त और मानसिक विकास में बाधा उत्पन्न हो सकती है। साथ ही उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि इसको नियंत्रित करने के लिए रणनीतिक हस्तक्षेप की तत्काल आवश्यकता है।

 नवजात शिशुओं में सीसा विषाक्तता समय से पहले जन्म, कम वजन और धीमी वृद्धि का कारण बन सकती है। यह बच्चों और वयस्कों दोनों में एनीमिया, न्यूरोलॉजिकल, कंकाल और न्यूरोमस्कुलर समस्याओं का कारण बन सकता है।

भारत में सीसे की विषाक्तता एक बड़ी चिंता का विषय है। यूएन चिल्ड्रन्स फंड (यूनिसेफ) और अमेरिका स्थित पर्यावरण स्वास्थ्य गैर-लाभकारी संस्था प्योर अर्थ की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 275 मिलियन बच्चों के रक्त में सीसे का स्तर डब्ल्यूएचओ की निर्धारित सीमा 5 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से अधिक है।

शोध टीम ने राज्य के समस्तीपुर, बेगूसराय, खगड़िया, दरभंगा, मुंगेर और नालंदा जिलों से नमूने लिए गए थे। जैविक नमूनों के साथ-साथ, वैज्ञानिकों ने सीसे के स्तर का आकलन करने के लिए हैंडपंप से घरेलू पानी के नमूने और गेहूं, चावल और आलू सहित खाद्य पदार्थों के नमूने भी एकत्र किए थे।

टीम के प्रमुख वैज्ञानिक और बिहार प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष अशोक कुमार घोष ने बताया कि टीम ने शुरू में गंगा नदी के किनारे के जिलों में पीने के पानी में आर्सेनिक संदूषण का अध्ययन किया था। घोष ने कहा कि इसके बाद हमने स्तन के दूध की जांच करने का फैसला किया और आर्सेनिक के साथ-साथ सीसा की विषाक्तता भी पाई, जो स्तनपान कराने वाले बच्चों के लिए घातक है।

शोध टीम के एक अन्य वैज्ञानिक मोहम्मद अली ने बताया कि मिलावटी हल्दी पाउडर में पीले रंग और कृषि में कीटनाशक का उपयोग सीसे की विषाक्तता को बढ़ाता है। उन्होंने चेतावनी दी कि स्तन के दूध में सीसा विषाक्तता स्तनपान कराने वाले बच्चों के लिए विशेष रूप से खतरनाक है, क्योंकि यह उनके मानसिक विकास, दृष्टि और अन्य शारीरिक कार्यों को प्रभावित करता है। सभी 6 जिलों में जैविक और खाद्य नमूनों में उच्च सीसा स्तर पाया गया, जिसमें भूगर्भीय (प्राकृतिक) और मानवजनित (मानव निर्मित) दोनों स्रोतों को योगदानकर्ता के रूप में पहचाना गया।

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