“गर्मी के प्रभावों के आकलन के लिए स्वास्थ्य एवं शरीर विज्ञान के बीच सामंजस्य बनाएं”
भीषण गर्मी का भारत पर क्या प्रभाव पड़ता है?
हालांकि भारत को मूल रूप से एक गर्म देश माना जाता है लेकिन हमारे पास अपनी जनता पर इस गर्मी के वास्तविक प्रभाव की मात्रात्मक (क्वांटिटेटिव) समझ नहीं है। पिछले 10-15 वर्षों में महामारी विज्ञान के अध्ययनों के नतीजे यह बताते हैं कि कुछ खास शहरों और क्षेत्रों में भीषण गर्मी मृत्यु दर में योगदान देती है। 2010 फिर 2015 और 2019 में हीटवेव (लू) एवं मृत्युदर में सीधा संबंध होने की बात सुर्खियों में थी। हालांकि गर्मी से उत्पन्न तनाव अथवा हीट स्ट्रेस हमें गर्मी के पूरे मौसम के साथ साथ माॅनसून के दौरान भी प्रभावित करता है। यह समय उत्तरी भारत में विशेष रूप से असुविधाजनक होता है। इससे शारीरिक कार्य क्षमता, मानसिक स्वास्थ्य और फसल वृद्धि पर तो प्रभाव पड़ता ही है साथ साथ श्रम उत्पादकता और कृषि पैदावार में कमी के फलस्वरूप समग्र आर्थिक उत्पादन भी प्रभावित होता है। गर्मी से जुड़ी बीमारियां हमारा ध्यान आकर्षित नहीं करती लेकिन हममें से अधिकांश ने घरेलू कामगारों या कपड़ों पर प्रेस करने वालों को गर्मियों में बीमार पड़ते देखा होगा।
जीवनशैली में बदलाव ने भी मौसम के प्रति हमारी संवेदनशीलता को बढ़ा दिया है। अधिकांश लोग ऑफिस के अंदर काम करते हैं और उनकी शारीरिक गतिविधियां भी न के बराबर होती है इसलिए हमारा गर्मी के प्रति अनुकूलन कम हो गया है। इसके अलावा जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां जैसे मधुमेह एवं हृदय संबंधी अन्य बीमारियां इस संकट को और गहरा करती हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि गर्मी के तनाव के फलस्वरूप पूरी दुनिया की श्रम उत्पादकता में होने वाली लगभग आधी हानि भारत में होती है। अब समय आ गया है कि हमारा देश न केवल मृत्यु दर पर बल्कि - स्वास्थ्य, उत्पादकता और पूरी अर्थव्यवस्था पर गर्मी के प्रभाव की जांच करे।
वेट-बल्ब तापमान और आर्द्रता का उपयोग अक्सर गर्मी के प्रभावों का आकलन करने के लिए किया जाता है , विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन के संबंध में। ये पैरामीटर कितने महत्वपूर्ण हैं?
वेट-बल्ब तापमान और आर्द्रता पर चर्चा अक्सर गर्मी के तनाव और इस तनाव में जीवित रहने के संदर्भ में की जाती है। हालांकि वेट-बल्ब तापमान में वृद्धि को लेकर चिंता बिल्कुल जायज है लेकिन हमारे शोध से पता चलता है कि दक्षिण एशिया के हीटवेव प्रभावित, उच्च मृत्यु दर वाले क्षेत्रों में सामान्य से कम आर्द्रता देखी गई है।
मानव शरीर एवं वेट-बल्ब थर्मामीटर पर तापमान एवं आर्द्रता का प्रभाव अलग होता है । उदाहरण के लिए वेट-बल्ब तापमान के मामले में सूर्य और आसपास की सतहों से होनेवाले विकिरण के प्रभावों को शामिल नहीं किया जाता । हाल ही में हुए एक अध्ययन में पाया गया है कि वेट-बल्ब तापमान उच्च वायु तापमान के फलस्वरूप उत्पन्न स्वास्थ्य जोखिमों को कम करके आंकते हैं। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि केवल वेट बल्ब तापमान पर ध्यान केंद्रित न करके स्वास्थ्य और शरीर विज्ञान से मिली जानकारी को जलवायु परिवर्तन और मानव उत्तरजीविता (ह्यूमन सर्विवेबिलिटी) की चर्चाओं के साथ एकीकृत किया जाए।
मृत्यु दर गर्मी के तनाव (स्ट्रेस) से जुड़ी है। लेकिन आप हीट स्ट्रेन की बात करते हैं। यह कैसे अलग है?
हीटस्ट्रोक भीषण गर्मी के संपर्क में आने का एक चरम परिणाम है और यह तब होता है जब उच्च वायु तापमान, आर्द्रता और विकिरण साथ मिलकर शरीर का कोर तापमान (बुखार के दौरान मापा जानेवाला तापमान) खतरनाक स्तर तक बढ़ा देते हैं । हीट स्ट्रेस इंडेक्स शरीर पर गर्मी के वास्तविक प्रभाव का का अनुमान लगाने के लिए हवा के तापमान, आर्द्रता, विकिरण और हवा की गति को शामिल करता है।
हालांकि, गर्मी से संबंधित बीमारियों और मौतों के लिए हमेशा अत्यधिक हीट स्ट्रेस आवश्यक नहीं होता है - ऐसा निचले स्तर पर भी हो सकता है। यहीं पर हीट स्ट्रेन महत्वपूर्ण हो जाता है। शरीर हीट स्ट्रेस से निपटने के लिए रक्त को त्वचा की सतह के करीब पंप करता है ताकि शरीर के तापमान को कम किया जा सके । ऐसे में रक्तचाप बनाए रखने के लिए कार्डियोवैस्कुलर लोड बढ़ जाता है। पसीना आने से पानी की कमी भी होती है। हृदय संबंधी समस्याओं वाले व्यक्तियों के लिए यह अतिरिक्त तनाव घातक हो सकता है।
निर्जलीकरण या कम पसीना आने की समस्या (मधुमेह या बुढ़ापे के कारण) गर्मी से संबंधित बीमारियों और मृत्यु के प्रति संवेदनशीलता को बढ़ाती है। इस प्रकार हीट स्ट्रेस का एक ही स्तर एक व्यक्ति के लिए सुरक्षित हो सकता है और दूसरे के लिए घातक। अंतर हीट स्ट्रेन और हर व्यक्ति की इससे निपटने की क्षमता में अंतर के कारण होता है।
क्या हमें गर्मी से निपटने के लिए विशेष सलाह की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा लू या भीषण गर्मी के महीनों के दौरान अपने काम एवं दिनचर्या को लेकर एक “अनुकूल” फैसला ले सकें।
हां, अपने नागरिकों को हीट स्ट्रेस के प्रभाव से बचाने के लिए हमें ऐसी एडवाइजरी जारी करनी चाहिए जो व्यक्तिगत जोखिम कारकों को ध्यान में रखे - जैसे कि पहले से मौजूद स्वास्थ्य समस्याएं, आयु, कार्य प्रोफ़ाइल (ऑफिसवर्क बनाम कठिन श्रम) और शीतलन (एसी, कूलर इत्यादि) की सुविधा । जब तक हम व्यक्तिगत निर्देश जारी नहीं करते तबतक हम कुछ समूहों के लिए गर्मी के जोखिम को बढ़ा-चढ़ाकर आंकेंगे और अन्य समूहों के लिए कम। पहले वाले के फलस्वरूप आर्थिक गतिविधि प्रभावित होती है और दूसरे के कारण अतिरिक्त बीमारियां और मौतें होती हैं।
गर्मी के संकट को सुलझाने की दिशा में नीतिगत स्तर पर क्या बदलाव किए जाने चाहिए?
नीति को आंकड़ों पर आधारित होना चाहिए। हमें पहला कदम ऐसे अनुसंधान को वित्तपोषित करके शुरू करना चाहिए जो नीतियों को तैयार करने के लिए आवश्यक डेटा प्रदान करेगा । यही वास्तव में हमारे नागरिकों की रक्षा कर सकता है। चरम गर्मी अभी भी एक अधिसूचित (नोटिफाइड) आपदा नहीं है और इसलिए प्रशासनिक स्तर पर सुरक्षात्मक उपायों के लिए आवंटन राशि प्राप्त करना चुनौतीपूर्ण होता है।
हम यह नहीं समझ पाए हैं है कि लोग जोखिम के बारे में जानते हुए भी भीषण गर्मी में काम क्यों करते रहते हैं। इन अंतर्निहित कारणों को समझना और उनका समाधान करना एक प्रमुख नीतिगत फोकस होना चाहिए। उदाहरण के लिए, गर्मी बीमा होने पर दैनिक श्रमिकों के लिए अत्यंत गर्म दिनों में काम न करने का विकल्प रहेगा। इसी प्रकार कार्यस्थल पर स्वच्छता सुविधाओं की अनुपस्थिति के कारण महिलाएं पर्याप्त पानी नहीं पीती जिससे हीट स्ट्रेस के प्रति उनकी संवेदनशीलता बढ़ जाती है। गर्मी से सुरक्षा केवल जलवायु का मुद्दा नहीं है बल्कि यह चिकित्सा, सामाजिक और आर्थिक विचारों से जुड़ा हुआ है। अतः इस समस्या को स्थानीय स्तर के छोटे मोटे उपायों से नहीं सुलझाया जा सकता और इस दिशा में नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता है।