
एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिए, जिसका कोलेस्ट्रॉल लेवल बढ़ गया है। उसे स्टैटिन नाम की दवा दी जाती है, जो कोलेस्ट्रॉल बनाने वाले एंजाइम को ब्लॉक कर देती है। एक साल बाद भी मरीज के कोलेस्ट्रॉल लेवल में बदलाव नहीं होता। डॉक्टर जानते हैं कि इस दवा के असर का मूल्यांकन सिर्फ पश्चिमी आबादी में ही किया गया है। भारतीय जीन पर इसका अलग असर हो सकता है। रक्त परीक्षण में जेनेटिक म्यूटेशन का पता चलता है, जिससे स्टैटिन की प्रभावशीलता बाधित होती है। इसके बाद डॉक्टर मरीज की आनुवंशिक प्रोफाइल के आधार पर अधिक उपयुक्त दवाएं निर्धारित करता है।
भारत में इस तरह की व्यक्तिगत चिकित्सा मिल पाना जल्द ही संभव हो सकता है। देश के 20 शोध संस्थानों के वैज्ञानिक मिलकर इस कल्पना को हकीकत में बदलने में जुटे हैं और जल्द ही इस तरह से इलाज शुरू हो सकता है। वैज्ञानिकों के समूह ने 9 जनवरी को बताया कि जीनोमइंडिया परियोजना के तहत स्वस्थ व्यक्तियों के 10,074 डीएनए सैंपल्स की सफलतापूर्वक सीक्वेंसिंग पूरी हो चुकी है जिससे भारत का अब तक का सबसे बड़ा जेनेटिक रेफरेंस डेटाबेस तैयार हुआ है। परियोजना की वेबसाइट के अनुसार, 5,750 नमूनों के विश्लेषण से डीएनए में अनूठी विशेषताएं पाई गईं, जिनमें भारतीयों की अद्वितीय दुर्लभ विविधताएं भी शामिल हैं।
डॉ. मोहन्स अडायबिटीज स्पेशलिटीज सेंटर एंड मद्रास डायबिटीज रिसर्च फाउंडेशन, चेन्नई के अध्यक्ष वी मोहन कहते हैं, “इस परियोजना से बीमारियों से जुड़े आनुवंशिक वेरिएंट की पहचान करके उनसे जुड़े आनुवंशिक विकारों की जल्द पहचान और रोकथाम हो सकेगा।” हालांकि, मोहन इस परियोजना में शामिल नहीं हैं, लेकिन उनका कहना है कि यह डेटाबेस डायबिटीज के दुर्लभ मोनोजेनिक रूपों के शोध में मदद कर सकता है, जो किसी खास जीन में बदलाव के कारण होते हैं। नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज, बेंगलुरु के प्रोफेसर और परियोजना के प्रिंसिपल इन्वेस्टीगेटर रघु पदिनजत कहते हैं कि जीनोम सीक्वेंसिंग से यह अध्ययन करने में भी मदद मिलती है कि कुछ जनसंख्या समूह विशिष्ट बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील क्यों हैं।
भारत की आनुवंशिक विविधता को समझने के लिए इस परियोजना की परिकल्पना 2017 में की गई थी। भारत में जाति, जनजाति और धर्म के आधार पर 4,600 से ज्यादा जनसंख्या समूह हैं। वे संस्कृति, स्थान, जलवायु, शारीरिक विशेषताओं, विवाह प्रथाओं, भाषा विज्ञान और आनुवंशिक बनावट में एक-दूसरे से अलग-अलग हैं। पदिनजत ने डाउन टू अर्थ को बताया, “हालांकि मनुष्यों में 99.9 प्रतिशत जीनोम समान होते हैं, लेकिन 0.1 प्रतिशत लोगों के बीच इसमें बहुत ज्यादा अंतर हैं। अंतर पैदा करने वाले यही तत्व रोग के विकास और इलाज के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण हैं।” रेफरेंस डेटाबेस बनाने के लिए टीम को स्वस्थ स्वयंसेवकों के डीएनए की आवश्यकता थी, जो कोई भी दवा नहीं ले रहे थे और जिनके पारिवारिक इतिहास में किसी ने भी अंतर-विवाह (समुदाय से बाहर) नहीं किया था। केंद्र के जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी) से परियोजना को फंड मिलने के बाद 2020 में काम शुरू हुआ।
पहला कदम सैंपल कलेक्शन था। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र में पुणे स्थित भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान की एसोसिएट प्रोफेसर और परियोजना की मुख्य अन्वेषक मयूरिका लाहिड़ी ने जुलाई-सितंबर 2021 में (कोरोना वायरस महामारी के कारण देरी के बाद) शिविर लगाए। स्वयंसेवकों ने परिवार के इतिहास को साझा किया और सैंपल्स का कोलेस्ट्रॉल, ब्लड शुगर लेवल आदि के लिए परीक्षण किया गया। इसी तरह के अभियान अन्य राज्यों में भी चलाए गए। फिर जीनोम सीक्वेंसिंग की गई जो किसी व्यक्ति के डीएनए में न्यूक्लियोटाइड के क्रम को निर्धारित करती है और जीनोम के किसी भी हिस्से में अंतर को पकड़ सकती है। पदिनजत कहते हैं कि अगला कदम एनालिसिस और एनोटेशन (जीन और उनसे जुड़ी अन्य विशेषताओं की पहचान व उनकी मैपिंग करना) था। सैंपल्स बेंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान परिसर के सेंटर फॉर ब्रेन रिसर्च में संग्रहीत हैं। डिजिटल डेटा इंडियन बायोलॉजिकल डेटा सेंटर में है। यह फरीदाबाद में स्थित रीजनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी में स्थित है।
जीनोमइंडिया अब तक का सबसे बड़ा प्रोजेक्ट है, लेकिन देश में खासकर भारतीय आनुवंशिक डेटा के प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देने के लिए इससे पहले भी प्रयास किए गए हैं। 1990-2003 के बीच एक अंतरराष्ट्रीय पहल के तहत चलाए गए ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट में पहली बार मानव जीनोम की सीक्वेंसिंग की गई थी। इसके कई साल बाद साल 2009 में पहले भारतीय जीनोम की सीक्वेंसिंग हुई। 2010 में वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) ने इंडियन जीनोम वेरिएशन कंसोर्टियम की शुरुआत की। इसका मकसद ऑस्ट्रो-एशियाटिक, तिब्बती-बर्मन, इंडो-यूरोपियन और द्रविड़ियन भाषाई समूहों में जीनोमिक विविधताओं का डेटाबेस बनाना था। इस पहल के दौरान सिंगल न्यूक्लियोटाइड पॉलीमॉर्फिज्म (एसएनपीएस) की सीक्वेंसिंग की गई। यह भिन्नता तब होती है, जब जीनोम में किसी खास जगह पर मौजूद सिंगल न्यूक्लियोटाइड में अंतर होता है। यह भी आनुवांशिक विविधता की वजह है। टीम ने 1,800 से अधिक लोगों के 900 जीनों के एसएनपीएस का अध्ययन किया।
2016 में एक गैर-लाभकारी कंसोर्टियम “जीनोमएशिया 100के” ने एक लाख एशियाई जीनोम की सीक्वेंसिंग की। इनमें से करीब 600 जीनोम भारत से थे। 2020 में न्यूक्लिक एसिड रिसर्च में प्रकाशित एक पेपर के मुताबिक, इस डेटाबेस में मुख्य रूप से आदिवासी समूह और विशिष्ट जातियां शामिल थीं, जिनमें से अधिकतर दक्षिण भारत में रहती हैं।
साल 2019 में सीएसआईआर ने इंडिजीन प्रोजेक्ट शुरू किया। दिल्ली स्थित सीएसआईआर-इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी के तत्कालीन मुख्य वैज्ञानिक श्रीधर शिवसुब्बू ने बताया कि इस प्रोजेक्ट के तहत विभिन्न राज्यों के 1,029 व्यक्तियों के सारे जीनोम सीक्वेंस किए गए। अब मुंबई में एक ऑन्कोलॉजी प्लेटफॉर्म के साथ काम कर रहे शिवसुब्बू और उनकी टीम का अनुमान है कि 1 प्रतिशत (150 लाख) भारतीयों में जेनेटिक म्यूटेशन होने की आशंका है, जिससे वे कई तरह की आनुवांशिक बीमारियों की चपेट में आ सकते हैं।
जेनेटिक डेटा को जुटाने और उसका विश्लेषण कर कई तरह की समस्याओं को सुलझाया जा सकता है और भी बहुत से फायदे उठाए जा सकते हैं। लेकिन, इसके दुरुपयोग और भेदभाव को बढ़ावा देने से रोकने के लिए पहले से कदम उठाए जाने चाहिए। उदाहरण के तौर पर सिकल सेल रोग से जुड़े एक मामले की बात करते हैं। सिकल सेल वंशानुगत रोग है, जो लाल रक्त कोशिकाओं को प्रभावित करने वाले जीन में म्यूटेशन के कारण होता है। इसमें एनीमिया, थकान और दर्द जैसे लक्षण दिखते हैं। अफ्रीकी, मध्य और दक्षिण अमेरिकी, भूमध्यसागरीय, पश्चिमी और दक्षिण एशियाई मूल के लोग इस बीमारी से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। 1970 के दशक में कई अमेरिकी राज्यों ने अफ्रीकी-अमेरिकियों के लिए इस बीमारी की जांच अनिवार्य कर दी थी। जिन बच्चों ने ऐसा नहीं किया, उन्हें स्कूल जाने की अनुमति नहीं दी गई। जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स में 2006 में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, इसे भेदभाव के रूप में देखा गया, क्योंकि इसी तरह की दूसरी बीमारियों से जूझ रहे दूसरे लोगों और बच्चों पर ऐसी कोई बंदिश नहीं लगाई गई।
अमेरिका ने 2008 में जेनेटिक इंफॉर्मेशन नॉन डिस्क्रिमिनेशन एक्ट पेश किया, जो रोजगार में जेनेटिक इंफॉर्मेशन से जुड़े भेदभाव को रोकता है। ईयू का जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन, 2016 भी जेनेटिक डेटा की सुरक्षा करता है। यूरोपियन जर्नल ऑफ ह्यूमन जेनेटिक्स में 2022 में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, फ्रांस, कनाडा, इटली और जर्मनी में भी जेनेटिक डेटा की सुरक्षा के लिए कदम उठाए गए हैं। शिवसुब्बू ने बताया, “हालांकि, भारत में अब तक इसके लिए कोई स्पष्ट नियम-कानून नहीं बना है।” उन्होंने कहा कि इंडिजीन ने एक स्वतंत्र रूप से उपलब्ध ओपेन डेटाबेस “इंडिजीनोम” बनाया है, जो अनुसंधान और विकास के लिए “पहचान छुपाकर संकलित डेटा” को साझा करता है। लिखित सहमति के साथ इसका उपयोग भारत के लिए विशेष उत्पाद बनाने में भी किया जा सकता है। 2021 में डीबीटी ने बायोटेक-प्राइड (डेटा एक्सचेंज के माध्यम से अनुसंधान और नवाचार को बढ़ावा) दिशा-निर्देश जारी किए, जिसमें डेटासेट की सुरक्षा, गुणवत्ता व उसके एक्सेस के लिए मानदंड तय किए गए हैं। निनावे का कहना है कि जीनोमइंडिया डेटाबेस को फिलहाल प्रतिष्ठित संस्थानों के शोधकर्ताओं के साथ साझा किया जाएगा। लेकिन, वैज्ञानिक अभी और स्पष्ट कानून बनाने की मांग कर रहे हैं।