कोरोना महामारी ने सामान्य जिंदगी को कई तरीकों से प्रभावित किया है। इसके असर से कई चीजें अब कभी पहले की तरह शायद नहीं हो पाएंगी। इसने छोटे बच्चों की देखभाल, स्कूल, क्रेच या आंगनवाड़ी केंद्रों में उनकी मौजूदगी जैसी चीजों पर रोक लगा दी थी। एक ताजा सर्वेक्षण में पाया गया कि मार्च 2020 में लगाए गए लॉकडाउन के बाद आंगनवाड़ी केंद्रों से जुड़ी पोषण सेवाओं में गतिरोध अभी भी बरकरार है।
सर्वे में देखा गया कि गर्भवती या बच्चों को दूध पिलाने वाली 43 फीसदी मांओं को आंगनवाड़ी केंद्रों से मिलने वाले पौष्टिक खाद्य-पदार्थों को हासिल करने में अभी तक चुनौतियों का सामना करना पड़ा रहा है।
लॉकडाउन के बाद पड़ने वाले दुष्प्रभावों का नतीजा है कि 15 महीने से लेकर छह साल के बच्चे वालों 47 फीसदी परिवारों को आंगनवाड़ी केंद्रों से पौष्टिक भोजन या तो नहीं मिल रहा या फिर कम मिल रहा है।
रिपोर्ट के मुताबिक, ‘ देश के कई हिस्सों में यह पाया गया कि लोगों केे परिवारों में बच्चों में कमजोरी छह फीसदी तक बढ़ गई। ऐसा उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान के ग्रामीण हिस्सों में और बीपीएल और अंत्योदय का लाभ उठाने वाले परिवारों में खासकर पाया गया।’
सर्वेक्षण में पाया गया कि आंगनवाड़ी केंद्रों में पोषण संबंधी कामों से जुड़ी वर्करों की गतिविधियों में 47 फीसदी तक यानी लगभग आधी कमी आ गई। उनका ज्यादातर समय बच्चों और दूध पिलाने वाली मांओं तक राशन पहुंचाने में निकल रहा है और इस वजह से वे सभी जरूरतमंदों को पौष्टिक भोजन उपलब्ध नही करा पा रहीं। लगभग सभी यानी 95 फीसदी वर्कर लोगों को गरम खाना उपलब्ध नहीं करा पा रही थीं।
यह सर्वेक्षण दिसंबर 2020 से फरवरी 2021 के बीच किया गया और इसके नतीजे इस महीने सामने आए हैं। इसमें 11 राज्यों - आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश के 10,112 प्राथमिक, माध्यमिक देखभाल करने वालों और 2,916 फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को शामिल किया गया।
सर्वेक्षण में नीति आयोग द्वारा तकनीकी सहयोग दिया गया, जबकि महिला एवं बाल-विकास विभाग व राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन ने इसके लिए आंकड़े उपलब्ध कराए। यह अध्ययन वाई डलबर्ग एडवाइजर्स और कंटार पब्लिक द्वारा आयोजित किया गया था और इसके लिए फंड बर्नार्ड वैन लीयर फाउंडेशन, पोर्टिकस, एचिडना गिविंग और डालबर्ग द्वारा जुटाया गया था।
सर्वे में मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता यानी आशा वर्करों और आंगनवाड़ी वर्करों ने खुद भी महामारी की शुरुआत के बाद से ही काम के बोझ के असहनीय होने और इस वजह से उनके तनाव के स्तर में वृद्धि के बारे में बताया। इसके मुताबिक, लगभग आधी आशा वर्करों और 36 फीसदी आंगनवाड़ी वर्करों ने उनके काम के घंटे बढ़ने की बात की, जबकि 43 फीसदी आशा वर्करों और 38 फीसदी आंगनवाड़ी वर्करों ने बताया कि उनका तनाव बढ़ा है।
महामारी से पहले के स्तर की तुलना में जनवरी-फरवरी 2021 में तमिलनाडु (66 फीसदी), आंध्र प्रदेश (64 फीसदी), और ओडिशा (60 फीसदी) में आधे से अधिक फ्रंटलाइन वर्करों में तनाव का स्तर बढ़ गया। हालांकि उत्तर प्रदेश (18 फीसदी) और असम (17 फीसदी) में तनाव में वृद्धि दर्ज करने वालों का आंकड़ा कम था। शहरी और ग्रामीण फ्रंटलाइन वर्कर्स में भी अंतर था - शहरों के 9 फीसदी ने गांवों के 15 फीसदी वर्कर्स की तुलना में कम तनाव महसूस किया।
देश के लगभग सभी राज्यों में, आशा वर्कर और आंगनवाड़ी वर्कर अपने अधिकर-क्षेत्र से अधिक आबादी की सेवा करती हैं। केवल ओडिशा ने प्रति 1000 निवासियों पर एक आशा कार्यकर्ता के दिशा-निर्देश का पालन किया है जबकि सर्वेक्षण में शामिल 11 राज्यों में एक आशा कार्यकर्ता की औसत जनसंख्या 1,395 थी। वही आंगनवाड़ी केंद्र के लिए, जहां एक केंद्र को 800 निवासियों की देखभाल करनी होती है, लेकिन केवल ओडिशा और असम ही इस नियम का पालन करते हैं। देश के 11 राज्यों में एक आंगनवाड़ी केंद्र के निवासियों की औसत संख्या 1.124 है।
अध्ययन के मुताबिक, कोविड-19 के बोझ के बावजूद आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में जहां आशा कार्यकर्ता और आंगड़वाड़ी कार्यकर्ताओं की प्रति व्यक्ति के हिसाब से तादाद कम है, वहां उनमें काम का तनाव कम पाया गया है। जबकि तमिलनाडु और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में जहां उनकी तादाद ज्यादा है, वहां उनमें काम का बोझ और तनाव ज्यादा देखा गया। उनमें तनाव बढ़ने के कारणों में कार्यभार में वृद्धि, कोविड-19 फैलने का जोखिम, महामारी से जुड़े कलंकों से लेकर सुरक्षात्मक उपकरणों की कमी, भुगतान में देरी और नौकरी की सुरक्षा आदि कारक शामिल थे।
आशा कार्यकर्ता और आंगड़वाड़ी कार्यकर्ताओं के काम और तनाव के स्तर को लेकर रिपोर्ट में चार मुख्य सुझाव दिए गए हैं - वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के साथ ज्यादा जुड़ाव और उनके काम को मान्यता देना, उनका मनोबल बढ़ाने और डर को कम करने के लिए सुपरवाइजरों के समर्थन को बढ़ाना, सार्वजनिक संदेश के माध्यम से उनके प्रयासों और योगदान को पहचानना, और सामाजिक पूंजी जुटाने में मदद करने के लिए फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को मानसिक और सामाजिक परामर्श सेवाएं प्रदान करना।
महामारी हमारे बीच लगभग दो साल से है और अब हम सबको इसके साथ जीना सीखना चाहिए। रिपोर्ट में पाया गया है कि सर्वेक्षण के समय आधे से ज्यादा अभिभावक पढ़ाई के लिए अपने बच्चों को आंगनवाड़ी केंद्रों में भेजने को तैयार नहीं थे। अपने निष्कर्ष में रिपोर्ट कहती है - ‘जिस तरह से राज्य जरूरी सुविधाओं को फिर से खोल रहे हैं, इस पर नजर रखना महत्वपूर्ण होगा कि बच्चे वास्तव में आंगनवाड़ी केंद्रों में लौट रहे हैं या नहीं। इसके साथ ही जहां जरूरी हो, वहां सामुदायिक स्तर के अभियान यह सुनिश्चित करने में मदद कर सकते हैं कि बच्चे आंगनवाड़ी केंद्रों में जा रहे हैं या नहीं।