उमेश कुमार राय
बिहार के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल पटना मेडिकल कॉलेज व अस्पताल (पीएमसीएच) के जूनियर डॉक्टरों ने अपनी मांगों को लेकर तीन दिनों तक हड़ताल की, जिससे मरीजों को जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल पाईं और उन्हें इलाज के लिए एक अस्पताल से दूसरे अस्पतालों का चक्कर लगाना पड़ा।
स्थानीय मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, हड़ताल के कारण इलाज नहीं होने से दो दर्जन से ज्यादा मरीजों की मौत हो गई। हालांकि, अस्पताल प्रबंधन इससे इनकार कर रहा है। अस्पताल के अधीक्षक डॉ राजीव रंजन प्रसाद से जब डाउन टू अर्थ ने जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल से मरीजों की मौत के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा, ‘जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल से मरीजों की मौत की जो खबर मीडिया में आ रही है, वह पूरी तरह गलत है। सामान्य दिनों में जो मृत्यु दर रहती है, हड़ताल के दिनों में उससे कम ही रही।’
पीएमसीएच जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ शंकर भारती ने भी मीडिया के साथ बातचीत में चिकित्सा सेवा प्रभावित होने की बात यह कह कर खारिज कर दी कि अस्पताल के सीनियर डॉक्टर और असिस्टेंट प्रोफेसरों ने मरीजों का इलाज किया।
अस्पताल प्रबंधन भले ही इलाज नहीं मिलने से मौत की बात से इनकार कर रहा हो, मगर शुक्रवार, शनिवार और रविवार को जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल से अस्पताल में जिस तरह मरीजों में हाहाकार मची थी, उससे प्रशासन का दावा खोखला साबित हो रहा है। इमरजेंसी के सभी बेड मरीजों से भरे हुए थे, जिस कारण कई मरीजों को बरामदे में ही रखा गया था। पूरे अस्पताल में तीन दिनों तक अफरातफरी का माहौल रहा। दर्द से कराहते मरीज इलाज के लिए इधर-उधर भटकते रहे।
अस्पताल के सूत्रों की मानें, तो बहुत सारे ऐसे मरीज थे, जिन्हें तत्काल उपचार की जरूरत थी, लेकिन उनका इलाज नहीं हो सका। कुछ मरीजों को उनके परिजन निजी अस्पताल ले गए, मगर अधिकांश मरीजों की आर्थिक क्षमता इतनी नहीं थी कि वे प्राइवेट अस्पतालों में इलाज करा पाते, नतीजतन उन्हें अस्पताल में ही रखना मजबूरी थी।
अस्पताल के सूत्रों ने बताया कि इन तीन दिनों की हड़ताल के दौरान 60 से ज्यादा ऐसे ऑपरेशनों को टाल देना पड़ा, जो बहुत जरूरी था। हालांकि अस्पताल की तरफ से आपातकालीन स्थिति से निबटने के लिए कुछ इंटर्न और अतिरिक्त डॉक्टरों की तैनाती की गई थी, मगर रोजाना पीएमसीएच में 1000 से ज्यादा मरीज इलाज कराने पहुंचते हैं, जिनके लिए ये व्यवस्था नाकाफी थी।
उल्लेखनीय है कि हड्डी रोग विभाग के पांच छात्र परीक्षा में फेल हो गए थे। जूनियर डॉक्टरों का आरोप था कि अस्पताल के हड्डी रोग विभाग के अध्यक्ष डॉ विजय कुमार उन पर किसी खास कंपनी की दवाएं लिखने को मजबूर करते थे और ऐसा नहीं करने पर ही उन्हें फेल कर दिया गया है। जूनियर डॉक्टरों की मांग थी कि उत्तर पुस्तिका की दोबारा जांच हो और हड्डी रोग के विभागाध्यक्ष को हटाया जाए। वहीं, डॉ विजय कुमार ने अपने ऊपर लगे आरोपों को बेबुनियाद बताया।
रविवार की शाम स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव के हस्तक्षेप के बाद अस्पताल प्रबंधन ने जूनियर डॉक्टरों की मांगें मान लीं और पूरे मामले की तहकीकात के लिए एक जांच कमेटी का गठन भी कर दिया।
गौरतलब हो कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि जूनियर डॉक्टरों ने अपनी मांगें मनवाने के लिए हड़ताल कर मरीजों की जान जोखिम में डाली है। इससे पहले कम से कम चार बार जूनियर डॉक्टर हड़ताल कर चुके हैं। इसी साल अप्रैल महीने में मारपीट के विरोध में पीएमसीएच के जूनियर डॉक्टरों ने हड़ताल की थी जिस कारण चिकित्सा नहीं मिलने से 15 मरीजों की मौत हो गई थी। पिछले साल सितंबर में भी मारपीट को लेकर पीएमसीएच के जूनियर डॉक्टरों ने हड़ताल की थी, जिस कारण तीन मरीजों की इलाज नहीं होने से मौत हो गई थी।
जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल के कारण इलाज नहीं होने से मरीज की मौत हो जाना बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था पर सवाल निशान लगाता है। साथ ही ये सवाल भी उठता है कि अगर पीएमसीएच जूनियर डॉक्टरों के भरोसे ही चलता है, तो सूबे का स्वास्थ्य विभाग ऐसा मकैनिज्म विकसित क्यों नहीं करता कि जूनियर डॉक्टर अपना विरोध दर्ज कराते हुए भी काम जारी रखें।
इस संबंध में हालांकि पटना के सिविल सर्जन डॉ प्रमोद झा का नजरिया अलग है। डाउन टू अर्थ के साथ बातचीत में उन्होंने सीधे तौर पर कहा कि अस्पताल को जूनियर डॉक्टरों के ही भरोसे क्यों रखा जाता है। उन्होंने कहा, ‘जूनियर डॉक्टर तो पढ़ाई करने के लिए आते हैं, फिर उन पर इतनी निर्भरता ही क्यों है। मुझे लगता है कि यह अस्पताल प्रबंधन की बहानेबाजी है कि जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल से चिकित्सा व्यवस्था चरमरा गई।’