जनवरी में गन्ने की कटाई के समय भरी दोपहरी में गन्ना खेत मजदूर वंदना खंडाले अपने घर पर खाली बैठी हुई है। पूछने पर कहती है कि उसके घुटनों में भयानक दर्द हो रहा है और हमेशा थकान रहती है। खेत में काम करते हुए थक जाती है और इतनी झुंझलाहट होती है कि काम करना मुश्किल हो गया है।
वंदना अभी 30 वर्ष से कम उम्र की है, लेकिन घर की कमाई में पिछले 6 वर्षों से कोई योगदान नहीं कर पा रही है। उनके पति माशु खंडाले पांच लोगों के परिवार में अकेला कमाने वाले हैं। छह साल पहले वंदना को पेट के निचले हिस्से में खूब दर्द हुआ और रक्तस्त्राव की वजह से खेत में काम नहीं कर पाई। माहवारी के समय काम करना और मुश्किल हो रहा था, जिससे काम पर न जाने की स्थिति आने लगी और ठेकेदार वेतन काटने लगा।
आसपास के डॉक्टरों ने कुछ गोलियां दी, लेकिन उससे दर्द में आराम नहीं हुआ। इस समस्या से निजात पाने के लिए वंदना एक निजी अस्पताल गई, जहां एक दो बार जाने के बाद डॉक्टरों ने सर्जरी कर गर्भाशय निकालने की सलाह दी। डॉक्टरों ने समझाया कि समस्या से पूरी तरह छुटकारा पाने का एकमात्र यही उपाय है और कई बार समझाने पर वंदना और उसके परिवार को यह बात समझ आ गई। सर्जरी में कुल 40 हजार खर्च हुए।
यह कहानी सिर्फ वंदना की ही नहीं, बल्कि देश की हजारों महिलाओं की है जो सर्जरी के द्वारा गर्भाशय हटाने की प्रक्रिया अपनाती हैं। उनमें से कुछ को कई दौर की चर्चा के बाद दिमाग में ये बिठाया जाता है कि इसके इलाज का एकमात्र यही तरीका बचा है। विशेषज्ञ मानते हैं कि एक बार यह सर्जरी होने के बाद महिलाओं को जीवन भर की दुख-तकलीफ जैसे वजन बढ़ना, ताकत में कमी, पाचन संबंधी विकार से गुजरना होता है।
प्रजनन संबंधी शोध में वर्ष 2018 में पाया गया कि कुछ राज्यों में प्रति हजार महिलाओं में 63 महिलाएं इस तरह की सर्जरी से गुजरती हैं। इसका सबसे बुरा पहलू ये कि एक तिहाई महिलाओं की उम्र 40 से कम है। वैश्विक स्तर पर गर्भाशय को निकालने की सलाह 45 वर्ष उम्र के बाद ही दी जाती है।
राजस्थान में काम करने वाली संस्था प्रयास के मुताबिक आंध्रप्रदेश में 40 से कम उम्र की महिलाओं में गर्भाशय के सर्जरी के मामले सबसे अधिक 42 प्रतिशत और तेलंगाना में 47 प्रतिशत हैं। डाउन टू अर्थ ने इस सर्जरी को कराने वाली 50 से अधिक महिलाओं से बातचीत की, जिनकी उम्र 40 से कम थी ताकि पता लगाया जा सके कि इस सर्जरी के बाद उनका स्वास्थ्य किस तरह बिगड़ा।
डाउन टू अर्थ ने इसके लिए महाराष्ट्र के बीड से 55 किलोमीटर दूर डुकरगांव की यात्रा की। इस गांव में 200 घरों की 45 महिलाएं बिना गर्भाशय के है। ज्यादातर महिलाओं को सर्जरी के बाद थकान, कमजोरी की शिकायत रहने लगी।
महिलाओं की समस्या का पुख्ता इलाज मान बैठे गांव वालों में इतना प्रसिद्ध है कि यहां के सरपंच की पत्नी ने भी सर्जरी करवा ली। बीड के 10 गांव जिनमें बांझरबाड़ी, हजपुर, सोनिमोहा और केसरी शामिल हैं कि 30 प्रतिशत महिलाओं ने यह सर्जरी करवाई है। जिला अस्पताल बीड के सिविल सर्जन अशोक थोराट कहते हैं कि पिछले तीन वर्ष में 4,605 महिलाओं ने गर्भाशय सर्जरी के माध्यम से हटवाया है।
जब डाउन टू अर्थ ने सर्जरी करवा चुकी 50 महिलाओं के सामाजिक और आर्थिक स्थिति को जानने की कोशिश की तो परिणाम निराशाजनक थे। एक भी महिला ने स्कूल का मुंह तक नहीं देखा है। प्रयास संस्था का मानना है कि अगर महिला 10वीं तक भी पढ़ी हो तो 53 प्रतिशत मामलों में संभावना होती है कि वे सर्जरी को न कह दें।
औरत के शरीर में गर्भाशय वह अंग होता है जहां माहवारी वाला खून बनता है और गर्भवती महिला के अजन्मे बच्चे तक इसी माध्यम से पोषण पहुंचता है। शरीर का यह काफी महत्वपूर्ण अंग है और इस पर दूसरे अंगों का स्वास्थ्य भी निर्भर करता है। एक बार गर्भाशय निकल जाए तो ये सारी प्रक्रिया बंद हो जाती है।
डाउन टू अर्थ ने महिलाओं से जानने की कोशिश की कि आखिर डॉक्टर किस तरह उन्हें सर्जरी के लिए प्रेरित करते हैं। एक महिला का कहना था कि डॉक्टर बच्चे के जन्म की वजह से बढ़े हुए गर्भाशय को दिखाकर डराते हैं कि आगे चलकर इसमें कैंसर हो सकता है। कई मामलों में डॉक्टर इलाज की खराब स्थिति और जागरूकता के अभाव का फायदा उठाकर अधिक दवा या गैरजरूरी सर्जरी की सलाह देते हैं जैसे तेलंगाना की जगतियाल जिले की मेहरूनिशा के साथ हुआ, डॉक्टर ने 27 की उम्र में ही उसका गर्भाशय और साथ-साथ अंडाशय और फैलोपियन ट्यूब भी निकाल दिया।
ऐसा बहुत दुर्लभ मामलों में ही किया जाता है। मेहरूनिशा इस सर्जरी के बाद आंख की कमजोरी, जोड़ों में दर्द सहित कई समस्यायों से जूझ रही है। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया की समीक्षा सिंह कहती हैं कि इस तरह की सर्जरी में काफी विशेषज्ञता की जरूरत होती है और कोई गलती मरीज को जीवनभर के लिए कई तकलीफों के साथ जीने के लिए छोड़ सकता है।
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