महामारी से निपटने में विकासशील देशों से भेदभाव कर रहे हैं विकसित देश, नहीं बन रही है सहमति

महामारी नीति पर डब्ल्यूएचओ के संभावित मसौदे पर वैक्सीन और उपचारों की सुलभ प्राप्ति के लिए अफ्रीकन ब्लाक की अगुआई में संघर्ष करते विकासशील देश
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई
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विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के जिनेवा स्थित मुख्यालय में पेनडेमिक एक्सेस एंड बेनिफिट शेयरिंग (पीएबीएस/रोगजनक पहुंच और लाभ-साझाकरण) के मुद्दे पर आम सहमति बनाने के उद्देश्य से जटिल वार्ताओं का दौर जारी है।

यह भविष्य में किसी महामारी से बचाव, उससे निपटने की तैयारियों और प्रतिक्रियाओं पर केंद्रित है और डब्ल्यूएचओ को आशा है कि इस वर्ष मई तक इस पर 194 सदस्य-देशों की सहमति के लिए एक आम राय बन जाएगी।

बहुत से पाठकों के लिए पैथोजेन की साझेदारी की बात किसी पहेली की तरह अबूझ है। जब पैथोजेन मुख्य विषाणु, जीवाणु, कवक, प्रोटोजोआ और कृमियों में उपस्थित है, तो पीएबीएस व्यवस्था के तहत उनकी सुलभता और उनके उपयोग के लाभों को साझा करने का क्या तुक है?

आखिरकार आधी सदी से भी अधिक समय से कई औपचारिक और अनौपचारिक संस्थाएं अपने विभिन्न नेटवर्क के जरिए पैथोजेन की साझेदारी करती रही हैं और डब्ल्यूएचओ के जरिए इन्फ्लुएंजा विषाणुओं का अबाध आदान-प्रदान भी होता रहा है।

लेकिन इस पुरानी व्यवस्था में बदलाव की वजह संयुक्त राष्ट्र के दो समझौते हैं। पहला, कनवेंशन ऑफ बायोलॉजिकल डायवर्सिटी (सीबीडी/जैविक विविधता पर सम्मेलन) और दूसरा इसका पूरक समझौता “नागोया प्रोटोकॉल” जिसे 1993 और 2014 में क्रमवार लागू किया गया और जिसका मकसद पीएबीएस को बीमारी से लड़ने के एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में परिवर्तित करना था।

लेकिन सीबीडी समझौतों द्वारा राष्ट्रों को सूक्ष्मजीवों (माइक्रोआॕर्गैनिज्म) सहित उनके सभी आनुवंशिक संसाधनों पर स्वायत्त अधिकार देने के बाद भी उन तक पहुंच या लाभों को साझा करना आसान नहीं बनाया गया।

पहली बात, वे समय पर सुलभता को सुनिश्चित नहीं करते थे। पैथोजेन-साझेदारी में विलंब या अस्वीकृति के कारण वैक्सीन के कम्पोजिशन और डायग्नोस्टिक्स के स्तर में गिरावट पाई गई जो विशेषज्ञों के अनुसार मौलिक पैथोजेन या उसके नई किस्मों के अनुरूप नहीं थे या उनकी जांच पर आधारित नहीं थे। साथ ही वे लाभों की साझेदारी की कसौटी पर भी खरे नहीं उतरते थे।

इसकी सबसे महत्वपूर्ण मिसाल हम इंडोनेशिया के रूप में देखते हैं जिसने 2007 में देश में एवियन फ्लू के फैलने के बाद एच5 एन1 इन्फ्लूएंजा वायरस के सैंपल साझा करने से मना कर दिया था। वायरस की उत्पत्ति, टीके को विकसित करने और दवा की प्रतिरोध क्षमता का पता करने के लिए दूसरे किसी वायरस की तरह एच5 एन1 के जीनोम सिक्वेंस डाटा की आवश्यकता थी।

हालांकि जनवरी 2007 में डब्ल्यूएचओ के संदर्भ प्रयोगशालाओं ने एच5 एन1 वायरस भेजने से मना करने के निर्णय के कारण इंडोनेशिया की कठोर निंदा की, लेकिन इसके लिए वास्तविक उत्तरदायी कोई और है और इस दोषारोपण से स्वयं विश्व का सर्वोच्च स्वास्थ्य संगठन भी मुक्त नहीं है। इंडोनेशिया ने समस्या के आरंभ में प्रोटोकॉल का पालन भी किया था।

उसने जुलाई 2005 में आरंभिक मानवीय एच5 एन1 मामलों को चिन्हित कर लिया था और 2006 के अंत तक उनके क्लीनिकल नमूनों को डब्ल्यूएचओ इन्फ्लूएंजा निगरानी नेटवर्क की दो प्रयोगशालाओं (अमेरिकी रोग-नियंत्रण व बचाव केंद्र (सीडीसी/यूएस सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन) और हांगकांग विश्वविद्यालय) में उसकी पुष्टि और क्षति-मूल्यांकन के उद्देश्य से भेज दिया था।

इस बीच वैज्ञानिकों ने किसी पूर्व सूचना और इंडोनेशिया की अनुमति मिले बिना ही एच5 एन1 वायरस के विश्लेषण के परिणामों की रिपोर्ट सार्वजनिक करनी शुरू कर दी। यह पूर्व निर्धारित नियमों का स्पष्ट उल्लंघन था। ऐसे समय में जबकि देश में पाए गए मामलों ने संभावित महामारी की आशंका की ओर संकेत किया था, इंडोनेशियाई विशेषज्ञों को शामिल किए बिना विज्ञान-संबंधी कई जर्नल में आलेखों का प्रकाशन किया गया।

यह मार्च 2005 में डब्ल्यूएचओ द्वारा समय पर महामारी फैलाने के लिए जिम्मेदार संभावित वायरसों के संबंध में जारी दिशा-निर्देशों की अवहेलना थी। उन दिनों इंडोनेशिया आसन्न संकट से जूझ रहा था। देश में 81 लोग संक्रमण से ग्रस्त पाए गए थे और मरने वालों की तादाद 63 पहुंच चुकी थी जो पूरी दुनिया में सर्वाधिक थी।

महामारी की आशंका के अतिरिक्त जेनेटिक डाटा को डब्ल्यूएचओ और सीबीडी से जुड़े शोध करने वाली संस्थाओं के केवल एक छोटे से समूह के लिए जारी करने के कारण भी इंडोनेशिया की कठोर भर्त्सना की गई, हालांकि उस समय इतनी कारवाई ही पर्याप्त थी।

उसके बाद ही यह तय हुआ कि उसके सभी एच5 एन1 वायरस सिक्वेंस डाटा को जेनबैंक में जमा किया जाना बेहतर होगा क्योंकि इंडोनेशिया ने क्षति-मूल्यांकन और टीका उत्पादन के लिए बीज वायरस की उत्पत्ति के सैंपल को सीडीसी को भेजना जारी रखा था। बहरहाल प्रोटोकॉल का पालन करने के बाद भी बदले में उसे कुछ नहीं मिला।

बर्दाश्त की हद तब हो गई जब इंडोनेशिया द्वारा डब्ल्यूएचओ को उपलब्ध कराए गए एक वायरस से एक ऑस्ट्रेलियाई कंपनी द्वारा एच5 एन1 टीका को विकसित करने संबंधी योजना की रिपोर्टों की पुष्टि हो गई। “यह न केवल डब्ल्यूएचओ के वायरस-साझेदारी संबंधित निर्देशों (मार्च 2005) का दोबारा उल्लंघन का मामला था, बल्कि इस खबर ने वैश्विक व्यवस्था की भेदभाव और असमानतापूर्ण नीतियों की कलई भी खोल दी।” ऐसा स्पष्ट संकेत 2008 में एक वैज्ञानिक जर्नल में प्रकाशित आलेख में इंडोनेशियाई वैज्ञानिकों ने दिया।

अपने बचाव में इंडोनेशिया ने तर्क दिया कि विकासशील देशों द्वारा उदारतापूर्वक दिए गए पैथोजेन सैंपलों को अमीर देशों की कंपनियों द्वारा वैक्सीन और अन्य चिकित्सा और शोध संबंधी उत्पादों (जो दाता-देशों की पहुंच से बाहर है) को विकसित करने के उद्देश्य से किया जा रहा है।

इंडोनेशिया ने एक न्यायसंगत गारंटी की मांग की कि उसे भी उन उत्पादों का लाभ मिलना चाहिए जो उसके द्वारा विकसित देशों को वायरस की साझेदारी के कारण हो रहा है।धोखाधड़ी का शिकार होने का यह अनुभव डब्ल्यूएचओ की पीएबीएस पर बातचीत के क्रम में केंद्रीय रूप से उपस्थित रहा है। 2007 में डब्ल्यूएचओ द्वारा आयोजित पहले सम्मेलन में वायरस-साझेदारी के मसले के निराकरण को लेकर थाईलैंड ने दो टूक रवैया दिखलाया।

डब्ल्यूएचओ के कार्यकारी बोर्ड में उसके प्रतिनिधि ने कहा, “हम अपना वायरस सैंपल अमीर देशों को देते हैं और वे उनसे एंटीवायरल और वैक्सीन बनाते हैं और जब महामारी फैलती है तब वे तो जिंदा बचे रहते हैं लेकिन हम मारे जाते हैं ... हम जानकारी और वायरस सैंपल की साझेदारी के विरोधी नहीं हैं, लेकिन हमारी एकमात्र शर्त है कि महामारी फैलने की स्थिति में सभी देशों को वैक्सीन और एंटीवायरल सुलभ होने का समान अवसर मिलना चाहिए।”

लेकिन अभी तक इस वैश्विक फ्लू निगरानी व्यवस्था में विश्वनीयता को बनाए रखने की दिशा में कोई कारगर समाधान नहीं निकल पाया है। इस दिशा में बदलाव का पहला बड़ा संकेत कोविड-19 के शुरुआती दिनों में दिखा था जब चीन ने एक सार्वजनिक डेटाबेस पर एक नए तरह के कोरोनावायरस रोग के वायरस का पहला जेनेटिक सिक्वेंस डेटा (जीएसडी) को साझा किया था।

यह जीएसडी सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम-कोरोनावायरस-2 या सार्स-कोव-2 के पहले सामूहिक संक्रमण के दो हफ्ते बाद साझा की गई थी। इस जीएसडी को डब्ल्यूएचओ और जेनबैंक के साथ, अमेरिका, यूरोप और जापान की भागेदारी में साझा किया गया।बहरहाल जो बुनियादी सवाल हैं उनका अभी तक कोई जवाब नहीं मिला है।

बातचीत के मौजूदा दौर में डब्ल्यूएचओ द्वारा बुलाई गई इंटरगवर्नमेंटल नेगोशिएटिंग बॉडी (आईएनबी) की 1 मार्च की आठवीं बैठक में भी अमीर देशों और विकासशील दुनिया के बीच का भेद यथावत बना रहा। अधिकांश देशों ने इसके लिए डब्ल्यूएचओ सचिवालय को दोषी ठहराया जो निष्पक्ष बातचीत का वातावरण बनाने में विफल रहा।

पीइबीएस व्यवस्था को पैथोजेन की सुलभता और जीएसडी में साझेदारी में कानूनी और वित्तीय निश्चितता, प्रभावशीलता और उत्तरदायित्व देने के उद्देश्य से दोनों पक्षों के 70 से अधिक देशों ने विस्तृत प्रस्तावों का एक मसौदा प्रस्तुत किया है। इनमें “अफ्रीका ग्रुप” के 48 और “ग्रुप फॉर इक्विटी” के 29 देश शामिल हैं।फरवरी में तैयार किए गए इन प्रस्तावों में सबसे महत्वपूर्ण डब्ल्यूएचओ-समन्वित प्रयोगशालाओं के नेटवर्क, पीएबीएस डेटाबेस और स्टैण्डर्ड मटेरियल ट्रांसफर एग्रीमेंट्स जैसे कानूनी साधनों की शुरुआत जैसे प्रस्ताव हैं।

इथियोपिया ने अफ्रीकी सदस्य-देशों की मांगों को स्पष्ट कर दिया है। स्पष्ट आंकड़ों के साथ एक बहुपक्षीय पीएबीएस व्यवस्था और पैथोजेन की साझेदारी के प्रति एक उत्तरदायित्व, और एक “समावेशी प्रशासन के साथ एक प्रतिबद्ध वित्तीय व्यवस्था।”

बौद्धिक संपदा (आईपी) भी एक बड़ा और महत्वपूर्ण मसला है। विकासशील देशों ने अपने हितों के बचाव के लिए यह मांग रखी है कि “डब्ल्यूएचओ पीएबीएस जैविक सामग्रियों (जिनमें इनके जीएसडी या उसका कोई अंश, चाहे वह परिवर्तित रूप में हो या किसी अन्य उपयोग की हो)पर कोई आईपी लागू नहीं करेगा।”

यह एक बड़ा मुद्दा है और इसका हल मुश्किल है क्योंकि विकसित उत्तरी देशों के वैज्ञानिकों ने विकासशील देशों से उनकी जानकारी के बगैर पेटेंट किए हुए डेटा पहले ही हासिल कर लिए हैं। क्या इस बड़े अवरोध को अब हटा पाना संभव है?

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