बुरे संकेत: रुक सकता है दिमाग का विकास, घट रही है डीएचए की मात्रा

इस सदी के अंत तक भारत में 25 मिलीग्राम प्रतिदिन प्रति व्यक्ति से कम रह जायेगा डीएचए का उत्पादन, जबकि डब्ल्यूएचओ ने डीएचए की मात्रा प्रति व्यक्ति 100 मिलीग्राम प्रति दिन तय की है
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अंतराष्ट्रीय जर्नल एम्बियो में छपे अध्ययन के अनुसार, इस सदी के अंत तक 96  फीसदी आबादी दिमागी विकास के लिए आवश्यक ओमेगा -3 फैटी एसिड, 'डोकोसैक्सिनोइक एसिड (डीएचए)' से वंचित हो जाएगी, इसकी वजह ग्लोबल वार्मिंग को माना जा रहा है।

आखिर क्यों जरुरी है डीएचए

डीएचए दिमागी विकास, विशेषकर बच्चों के लिए अत्यंत आवश्यक होता है, इसके अलावा यह मानव मस्तिष्क, सेरेब्रल कॉर्टेक्स, त्वचा, शुक्राणु, अंडकोष और रेटिना का एक प्रमुख संरचनात्मक घटक है। साथ ही, यह तंत्रिकाओं को सुरक्षित रखने, कोशिकाओं को बचाने जैसी प्रक्रियाओं में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मस्तिष्क विकास और स्वास्थ्य के लिए इसकी आवश्यकता के बावजूद, मानव शरीर स्वयं अपने लिए पर्याप्त डीएचए का उत्पादन करने में असमर्थ होता है। जिसके कारण हम मछली एवं अन्य प्रकार के समुद्री आहार से यह पोषक तत्व प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। यह मुख्य रूप से अल्फा-लिनोलेनिक एसिड से मिलता है। जो कि मुख्यतः जननी के दूध (स्तन के दूध), मछली या शैवाल के तेल से स्वाभाविक रूप से प्राप्त होता है।

ग्लोबल वार्मिंग और घटते डीएचए के बीच सम्बन्ध

डलहौज़ी विश्वविद्यालय, कनाडा की स्टेफनी कोलंबो और टोरंटो विश्वविद्यालय के टिम रोडर्स ने रायसन और टोरंटो विश्वविद्यालय के अपने सहयोगियों के साथ मिलकर एक गणितीय मॉडल विकसित किया है, जो कि ग्लोबल वार्मिंग के अलग-अलग परिदृश्यों के साथ उपलब्ध डीएचए में संभावित कमी की जांच करता है। जलीय खाद्य श्रृंखला में, डीएचए मुख्य रूप से शैवाल द्वारा निर्मित होता है और जहां डीएचए निर्माण की इस  प्रक्रिया में शामिल जैव रासायनिक प्रतिक्रियाएं तापमान में होने वाले मामूली से बदलाव के प्रति भी संवेदनशील होती हैं।

शोधकर्ताओं के अनुसार, यदि दुनिया भर में ग्लोबल वार्मिंग के चलते डीएचए उत्पादन में गिरावट और जनसंख्या में वृद्धि इसी रफ्तार से जारी रहती है तो इस सदी के अंत तक दुनिया की 96 फीसदी आबादी के लिए मछली से मिलने वाले इस आवश्यक ओमेगा -3 फैटी एसिड की कमी हो जाएगी, जिसका सबसे बुरा असर बच्चों के मानसिक विकास पर पड़ेगा।

भारत जैसे कम विकसित देशों पर पड़ेगा इसका व्यापक असर

इस सदी के अंत तक भारत में डीएचए का उत्पादन 25 मिलीग्राम प्रति दिन प्रति व्यक्ति से कम रह जाएगा, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा डीएचए की निर्धारित मात्रा प्रति व्यक्ति 100 मिलीग्राम प्रति दिन तय की गयी है। 

दुनिया भर में ग्रीनलैंड, नॉर्वे, चिली और न्यूजीलैंड जैसे देश, जो बड़े स्तर पर मछली का उत्पादन कर रहे हैं और अपेक्षाकृत जहां कम आबादी हैं। उन देशों में रहने वाले लोगों के लिए डीएचए की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध रहेगी, जबकि इसके विपरीत इस सदी के अंत तक पूर्वी और दक्षिण-पूर्व एशिया के बड़े देशों जैसे भारत, चीन, जापान एवं इंडोनेशिया और अफ्रीका के अधिकांश देश जो कि बड़े पैमाने पर डीएचए का उत्पादन कर रहे हैं, वहां अपनी आबादी के लिए पर्याप्त डीएचए नहीं रह जाएगा।

डॉ कोलंबो, रोडर्स और उनके सहयोगियों ने बताया कि हमारे अध्ययन के अनुसार, ग्लोबल वार्मिंग के चलते अगले 80 वर्षों में वैश्विक स्तर पर उपलब्ध डीएचए 10 से 58 फीसदी तक घट जायेगा। जिसका सबसे बुरा असर पहले से ही कुपोषण का बोझ सह रहे गरीब तबके पर पड़ेगा। इसके साथ ही भ्रूण और शिशु के विकास पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, जबकि ध्रुवों पर रहने वाले स्तनधारी शिकारी जीव भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाएंगे। वहीं, दूसरी ओर समुन्द्रों की तुलना में मीठे पानी के स्रोतों पर, ग्लोबल वार्मिंग का असर कहीं अधिक पड़ता है । तापमान में अधिक वृद्धि होने के कारण मीठे पानी में मिलने वाली मछलियां और उनसे प्राप्त होने वाले डीएचए में भारी गिरावट आ जाएगी। जिससे दुनिया भर में डीएचए की उपलब्धता में भारी अंतर आ जायेगा । जिसका दुनिया के कुछ क्षेत्रों विशेषकर भारत, चीन और अफ्रीका की आबादी पर अधिक व्यापक प्रभाव पड़ेगा।

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