राजस्थान के जोधपुर स्थित एम्स में कांगो बुखार से दो मौतों के बाद हड़कंप मच गया है। करीब पांच वर्षों के बाद एक बार फिर राजस्थान में जानलेवा कांगो बुखार के फैलने का खतरा बना हुआ है जो सीधे दिमाग पर हमला करते हैं। संक्रमण के डर से जोधपुर में संदेह के आधार पर अब तक 200 से अधिक जांच नमूने लिए गए हैं। इन सभी जांच नमूनों को पुणे स्थित वायरोलॉजी लैब में जांच के लिए भेजा गया है। खून चूसकर जीवित रहने वाले हाईलोमा टिक्स (परजीवी) से खतरनाक विषाणु पशुओं से मनुष्यों तक पहुंचते हैं। यह एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में भी पहुंच सकते हैं। इस वर्ष पहला मामला गुजरात के अहमदाबाद में रिपोर्ट हुआ है। वहीं, राजस्थान के अलावा गुजरात में भी कांगो बुखार को लेकर अलर्ट जारी कर दिया गया है।
जोधपुर के मुख्य चिकित्साधिकारी बलवंत मांडा ने डाउन टू अर्थ से बताया कि कांगो बुखार का सबसे पहला केस गुजरात के अहमदाबाद में मिला था। संबंधित व्यक्ति जोधपुर का ही निवासी है जो अहमदाबाद में भर्ती हो गया था। चिकित्साधिकारी के मुताबिक अभी वह खतरे से बाहर है। उसके दो बच्चों और सगे-संबंधियों के खून जांच भी पुणे वायरोलॉजी लैब में भेजे गए हैं। वहीं, जोधपुर एम्स में कांगो बुखार के चलते इस हफ्ते मरने वालों में जोधपुर की 40 वर्षीय मृतका इंदिरा और जैसलमेर निवासी 16 वर्षीय लोकेश चरण शामिल हैं। बलवंत मांडा के मुताबिक पुणे वायरोलॉजी लैब से जांच रिपोर्ट आने से पहले ही इनकी मौत हो गई थी। बलवंत मांडा ने कहा कि अभी सबसे ज्यादा चिंता का विषय हाईलोमा टिक्स (परजीवी) का मिलना है जो इस बुखार के संचार में मुख्य वाहक बनते हैं।
उन्होंने कहा कि एनसीडीसी की टीम भी जांच करने जोधपुर पहुंची है। पशुबाड़ों में पशुपालन विभाग की ओर से रसायन का छिड़काव कराया जा रहा है। वहीं, जिनपर भी संदेह है उनके खून-नमूनों की जांच लेकर पुणे भेजा जा रहा है। उन्होंने बताया कि कांगो बुखार का सबसे बड़ा लक्षण असहनीय सिर दर्द, उल्टी, कमजोरी, बुखार, बेहोशी आदि है। ऐसा महसूस होने पर सीधे चिकित्सकों से संपर्क करें।
बलवंत मांडा ने बताया कि जैसलमेर के मृतक लोकेश चरण की जो केस हिस्ट्री आई है उसने हाल ही में गुजरात की यात्रा की थी। ऐसे में कयास लगाया जा रहा है कि गुजरात में ही वह कांगो बुखार से संक्रमित हुआ। इसके अलावा पाकिस्तान में भी कांगो बुखार का भय है और ऐसे में कयास लगाया जा रहा है कि वायरस बॉर्डर इलाकों में प्रवेश कर गया है।
2015 में जोधपुर में चार मौतें
जोधपुर के न्यूरोसर्जन नांगेद्र शर्मा डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि यह प्रत्येक वर्ष होने वाला बुखार नहीं है। पांच वर्ष पहले जोधपुर में इसका नामोनिशान नहीं था। 2015 में जोधपुर के गोविंद हॉस्पिटल में चार लोगों की मौत हुई थी। इनमें तीन स्टॉफ नर्स थें और एक मरीज। इस केस के बाद अब यह मामला सामने आया है। इसकी सिर्फ एक वजह है कि लोगों का देश के बाहर भी आना-जाना बढ़ा है। पहले ऐसा कम था। खासतौर से रूस के हिस्से, पूर्वी यूरोप, अफ्रीका से लोग भारत भी आने लगे हैं और भारत से लोग बाहर जा रहे हैं। इसीलिए हाल ही के वर्षो में विषाणु जनित बुखार के मामले बढ़े हैं।
पुणे की वायरोलॉजी लैब ही सहारा
कांगो बुखार से संबंधित जांच तो 48 घंटों में पूरी हो जाती है लेकिन जोधपुर में भी ऐसी कोई प्रयोगशाला नहीं है जो इस विषाणु की जांच जल्द से जल्द कर सके। पुणे वारयोलॉजी लैब से रिपोर्ट आने में काफी देरी भी हो रही है। रिपोर्ट के मामले में स्थिति बिहार के मुजफ्फरनगर और उत्तर प्रदेश के गोरखपुर की तरह बनी हुई है। राजस्थान समेत गुजरात में पशुपालन का काम करने वाले, बूचड़खानों से संबंधित व्यक्ति और अफ्रीका, यूरोप, रूस आदि देशों से आने वाले व्यक्तियों को सर्दी-खांसी बुखार आदि लक्षण होने पर चिकित्सक से तत्काल मिलने की सलाह दी जा रही है।
जोधपुर में तीसरे ग्रेड के खतरनाक वायरस
डॉ नागेंद्र शर्मा ने बताया कि इस वक्त तीसरे ग्रेड वाले बेहद खतरनाक वायरस का संक्रमण फैला हुआ है। इस ग्रेड को सीसीआरएफ-3 कहते हैं। यह बेहद गंभीर और मारक है। सीधा ब्रेन पर हमला करता है। पशुओं के कान आदि में जाने वाले पिस्सू या खटमल जैसे ही हाईलोमा टिक्स होते हैं जिनसे यह वायरस निकलते हैं। पहले यह पशुओं को अपना शिकार बनाते हैं फिर पशुओं से होते हुए यह उन व्यक्तियों के शरीर में पहुंच जाते हैं जो पशुपालन या बाड़े आदि में ज्यादा समय बिताते हैं। इतना ही नहीं पशुओं के खून से भी इस विषाणु का मनुष्य के शरीर में संचार हो सकता है। वहीं, जोधपुर के चिकित्साधिकारी बलवंत मांडा ने भी डाउन टू अर्थ को यह पुष्टि की है कि जांच में हाईलोमा टिक्स की पहचान की गई है जो बेहद चिंताजनक विषय है।
डीएनए नहीं आरएनए पर हमला
डॉक्टर शर्मा बताते हैं कि स्वाइन फ्लू आदि बुखार में विषाणु डीएनए (डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड) पर हमला करते हैं, जिसमें दवाओं के सहारे एंटीबॉडीज को पैदा कर लिया जाता है और बीमारी ठीक हो जाती है। हालांकि, यह हाईलोमा टिक के वायरस आरएनए (राइबोन्यूक्लिक एसिड) पर हमला करने वाले विषाणु हैं। इसको संक्रमण के बाद मरीजों में रोग प्रतिरोधक क्षमता खत्म होने लगती है। दूसरा कमजोर रोग प्रतिरोधक क्षमता को देखकर शरीर के भीतर खराब बैक्टीरिया भी प्रहार करने लगते हैं। ऐसे में मरीज विषाणु और जीवाणु दोनों की मार झेलता है। उन्होंने बताया कि खासतौर से अफ्रीका, यूरोप, रूस और पूर्वी एशिया में तीसरे स्टेज का वायरस सक्रिय है।
बचाव के लिए राईबोवेरिन एकमात्र दवा
डॉ नागेंद्र शर्मा ने बताया कि जो जानवर इस विषाणु के कारण मर गया है और यदि उसे मांस भक्षण करने वाले पक्षी खाते हैं तो यह वायरस उनसे होते हुए हमारे घरों तक भी पहुंच सकता है। ऐसे में इस वक्त संदेह वाले इलाकों में राइबोवेरिन दवाएं बचाव के तौर पर खिलाई जाती हैं। इस वक्त यह खिलाई जा रही है। हालांकि, समय रहते यदि इलाज नहीं हुआ तो पूरी तरह मरीज को ठीक नहीं किया जा सकता। मरीज को अकेले रखकर पूरी सुरक्षा के साथ इलाज करना ही अभी इसका उपाय है। मरीज के संपर्क में आने से बचने के लिए पूरी सुरक्षा जरूरी है। वहीं, मृतकों के शवदाह में भी संक्रमण न फैलने पाए इसका पूरा ख्याल रखना पड़ता है।